हुआ
उस यूँ कि
कि, मेरी उँगलियाँ
मोबाइल के की पैड पे
तेज़ी से चल रहीं हैं
और लिख रहीं थी
एक प्रेम कविता, तुम्हारे नाम की
तभी,
कमरे मे चुपके चुपके
से तुम आ के
अपनी हथेलियों से
बंद कर लेती हो मेरे आँखे
मै तुम्हें
तुम्हारी खुश्बू और नाज़ुक स्पर्श से पहचान लेता हूँ
और मै तुम्हे
तुम्हारी कलाइयों को
पकड़ के अपनी गोद में गिरा लेता हूँ
तुम खिलखिला देती हो
मै मुस्कुरा देता हूँ
मोबाइल हाथ से गिर के छिटक चूका है
और अब
कविता की पैड पे उँगलियाँ नहीं
मेरे होठ तुम्हारे नाज़ुक गालों पे लिख रहे होते हैं
तुम्हारे चेहरे पे एक मादक मुस्कान है
और मै खुश हूँ
बेहद - बेहद बेहद
क्यों सुमी ?
क्या ये सपना सच नहीं हो सकता कभी ?
बोलो न सुमी, प्लीज् बोलो
मुकेश इलाहाबादी ----------------