एक --
रोज़
की तरह आज भी
वो आदमी ऑफिस से निकल
उसी ठिये पे गया
उसी गुमटी से सिगरेट लिया
गुमटी की ओट में जा के सिगरेट सुलगाया
मुँह को गोल गोल के धुँए के छल्ले -छल्ले बनाया
और उन्हें ऊपर की तरफ छोड़ा
और धुएँ के छल्ले के साथ साथ उड़ता हुआ
और देखा
दूर जाते हुए
मैनेजर की डाँट से उपजी खीज को
दुसरे दिन निपटाई जाने वाली फाइलों की समस्याओं को
दिन भर की थकन को
सिगरेट पीने के ये ढाई से तीन मिनट के बीच वो देखेगा रोज़ सा
शून्य को
निर्विकार भाव से आती जाती भीड़ को
और फिर शांत भाव से चल देगा घर की ओर - ख़रामा - ख़रामा
दो --
रोज़
की तरह आज भी वो
सात तिरपन की बस पे लपक के चढ़ जाएगा
और इंतज़ार करेगा
नेक्स्ट स्टॉप पे चढ़ने वाली औरत का
साधारण चेहरे मोहरे वाली
उस उस औरत का जिसके चेहरे पे एक उदासी और
शून्यता चस्पा रहेगी
जो अक्सर दो तीन स्टॉपेज बाद बगल की सीट
खाली होने पे उसके बगल में बैठ जाएगी
और जिसकी बदन से उठती हुई मादक महक से
उसका रास्ता महक जाएगा
तीन ---
आज
फिर वो रोज़ सा सात तिरपन की बस पे लपक के चढ़ा
लेकिन आज रोज़ सा
सपाट चेहरे पर गदराये बदन वाली अकेले न थी
उसके साथ एक और आदमी चढ़ा
बस में जिससे वो हंस हंस के बतिया रही थी
आज उसने उसकी तरफ वजह बेवज़ह देख के एक परिचित मुस्कान भी न दी
लिहाज़ा वो उतर के
अपने ठिये पे रोज़ सा गया
सिगरेट ली
मुँह गोल गोल किया
धुंए के छल्ले बनाए
फिर एक साथ ढेर सारा धुआँ उगला
सिगरेट की आख़िरी कश ले के पैर से मसला
आज रोज़ सा सिगरेट को तर्जनी और अंगूठे के सहारे दूर नहीं फेंका
फिर पिच्च से थूँकते हुए स्वागत बड़बड़ाया " सब साली फँसी हैं किसी न किसी से "
और ये कह के सिर झुका के चल दिया घर की तरफ - ख़रामा - ख़रामा
मुकेश इलाहाबादी --------------------------------