बहुत दूर हो गया हूँ उजालों से
पहचान बन गया हूँ अंधेरों से
फितरते परिन्दगी रही इस कदर
उड़ उड़ कर दूर हो गया हूँ बसेरों से
क़ैद कर खुद को मुद्दत्तों से घर में
देख लेता हूँ मै शहर को दरीचों से
चाँद और सूरज हो गए खफा मुझसे
कि अब रोशनी माँगता हूँ सितारों से
मुकेश इलाहाबादी --------------------
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