विडंबना ----------------
आदमी के कद कम, और
हाथ बढते जा रहे हैं
मानवता सिमटती, और
स्वार्थ फैलते जा रहे हैं
धर्म अब कर्म में नही
राजनीति में बसती है
इसांन अब भगवान को
इसांफ दिलाते हैं
आदमखोर शेर
जंगल से निकल
बस्तियों में बेखौफ घूमते हैं
गांव में दरवाजे
अब पूरब से नही
शहरों की तरफ खुलते हैं
परिधि पर खडे लोग
केंद्र को देखते हैं
जमीन पर खडे हम
आकाश देखते हैं
मुकेश इलाहाबादी -----------
आदमी के कद कम, और
हाथ बढते जा रहे हैं
मानवता सिमटती, और
स्वार्थ फैलते जा रहे हैं
धर्म अब कर्म में नही
राजनीति में बसती है
इसांन अब भगवान को
इसांफ दिलाते हैं
आदमखोर शेर
जंगल से निकल
बस्तियों में बेखौफ घूमते हैं
गांव में दरवाजे
अब पूरब से नही
शहरों की तरफ खुलते हैं
परिधि पर खडे लोग
केंद्र को देखते हैं
जमीन पर खडे हम
आकाश देखते हैं
मुकेश इलाहाबादी -----------
यथार्थ के आईने में आपकी यह रचना खूब रोशन हो रही है..साधुवाद स्वीकारें.
ReplyDelete