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Monday, 20 August 2012

तुमने कभी शमा को जलते हुये देखा है ?
 नही देखा तो आज देखना, किसी शमा को जो जल रही हो किसी पूजा घर मे या किसी नीरव एकान्त कमरे मे।
गौर से देखना उस स्वर्णिम, अकम्पित, उर्धवरेता लौ को। जो कभी हल्की सी कंप के फिर शांत और मौन जलती रहती है। रोशनी को लिये दिये अपने ही प्रकाश से खुद को प्रकाशित करती हुयी और माहौल को प्रकाशित करती हुयी। बस ऐसा ही तुम ‘आत्मा’ के बारे मे जानो।
षमा ‘अग्नि’ अपने मे सारी अशुद्धियाँ समाहित करके तत्वों को पूर्ण शुद्धतम कर देती है। और स्वयंम भी शुद्ध रहती है।
और यही कारण है आत्मा के लिये इससे बेहतर प्रतीक या कहें उपमा आजतक नही खोजी जा सकी है पूरे मानव जाति के इतिहास मे।
अगर तुम ध्यान मे गहरे उतरो अंदर अंदर और अंदर मन के विचारों के भावों के अन्तरतम मे तब देखोगी आत्मा को।
और फिर उसमे अपने सारी अशुद्धियों की आहुति देदोगी तब तुम्हारी भी आत्मा भी दिप दिप जलती रहेगी। जलती शमा की तरह। स्वर्णिम, उर्धवरेता और अकम्पित।
और ... तब तुम होगी एक गहरे आनन्द मे।
मुकेश इलाहाबादी --------------

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