जीवन एक साधना है। यहां सब कुछ साधना पड़ता है। घर साधो, परिवार साधो, पति साधो, पत्नी साधो, आफिस साधो, दोस्त साधो, प्रेमी साधो, प्रेमिका साधो यह सब सधे तो लोक साधो, परलोक साधो, धर्म साधो, अर्धम साधो, षरीर साधो, मन साधो, बुद्धी साधो, आत्मा साधो परमात्मा साधो बस साधना ही साधना है।
नही साधे तो गये काम से।
इन सब को साधने के लिये शरीर को तपाना होता है, बुद्धि को सन्तुलित करना होता है, पढ़ना होता है, पढाना होता है, ध्यान करना होता है, मनन करना होता है, चिन्तन करना होता है।
नही तो गये काम से।
और इतने सब खटराग के बाद जो साध ले वही सिद्ध कहलाता है, साधू कहलाता है, देवता कहलाता है, पैगम्बर कहलाता है, भगवान कहलाता है। वर्ना तो इंसान यह सब साधते साधते आदमी से जानवर बन जाता है। लिहाजा एक बार इंसान बन जाने के बाद अब मै दोबारा जानवर नही बनना चाहता।
और इसीलिये आपने देखा होगा कि अक्सर मेरे ख़त और रचनाएं भौतिकता से आघ्यात्मिकता की ओर सरकती चली जाती हैं। अब इसमे कितनी गहराई है कितनी साधना है कितना पाखण्ड़ हेै कितना दिखावा है कितना अच्छा है कितना बुरा है यह तो दूसरा ही समझ सकता है बाकी मुझे तो जो समझना है वह मै समझ ही रहा हूं।
खैर आप मेरी बातो को प्रवचन समझें या कुछ और समझें इसके पहले ही आज की तरंग समाप्त करता हूं।
मुकेश इलाहाबादी ------
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