एक बुलबुल से दिल लगाने की सजा पाई है
पल भर का चहकना,शामो सहर की तन्हाई है
उम्र भर जाने किस जुस्तजूं में रहा मेरा कारवां
मंजिल न मिली अबतक, फ़क़त ठोकरें पायी है
दिन आफताब सा चमकता है, रात चांदनी सी
लेकिन अपना वजूद तो कागज़ पे फ़ैली स्याही है
कफस में अपने कैद रक्खूं , ये तमन्ना तो नही,
मेरे ख्वाबे फलक पे उडती रहे, ये हशरत पाई है
चहकना और उड़ना शामिल है उसकी फितरत मे
फिर भी जाने क्यूँ उसे मेरी ही मुंडेर बहुत भाई है
मासूम बुलबुल ज़रा सी मुहब्बत पे कुहुक उठती है,
कोई उसके पर न काट दे ,, दुनिया बड़ी हरजाई है
मुकेश इलाहाबादी -----------------------------------
No comments:
Post a Comment