तुम न आओगे मनाते रहे उम्रभर
बेवजह घर को सजाते रहे उम्रभर
जलाकर खाक किया अपना वजूद
घर अपने सूरज उगाते रहे उम्रभर
भर गया है कांटो से दामन मेरा
शायद कैक्टस उगाते रहे उम्रभर
थी पास मे हमारे दौलते मुहब्बत
उसे भी खुलके लुटाते रहे उम्रभर
रेत पे लिखते रहे तेरा नाम फिर
लिख लिख के मिटाते रहे उम्रभर
हर रात हमे मिलती रही अमावश
रुठा हुया चॉद मनाते रहे उम्रभर
मुकेश इलाहाबादी --------------------
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