तुमने ज़ुल्फ़ को संवारा होगा
आइना भी मचल गया होगा
हवाएं भी तो मनचली ठहरी
लटों को बिखरा दिया होगा
दरीचे पे तुम्हे खड़ा देख कर
राही दर पे ठिठक गया होगा
फूल की रजामंदी थी तभी
भँवरे ने चुम्बन लिया होगा
न उम्मीद होकर ही उसने
तुमसे किनारा किया होगा
मुकेश इलाहाबादी --------
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