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Monday, 4 March 2013

सहरा की किस्मत संवरने लगी


 सहरा की किस्मत संवरने लगी
नदी  अपना  रुख  बदलने  लगी

मौसमे   खिज्र  देखा है   ताजिंदगी
तेरे  आने से कलियाँ खिलने लगी

उदास थी कफ़स में बुलबुल बहुत
पा के खुला आसमां चहकने लगी

बिखरी हुई थी जो चांदनी अबतक
बाहों मे आ के फिर सिमटने लगी

बर्फ ही बर्फ जमी थी वजूद मे अपने
मुहब्बत की आंच से पिघलने लगी

मुकेश  इलाहाबादी -------------------

1 comment:

  1. बहुत खूब श्रीवास्तव जी..............!!

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