इक आह निकलती है दर्द सा उठता है
जब भी कहीं तेरा जिक्र हुआ करता है
रोषनी तो नही तीरगी ही बढ़ जाती है
चरागे इष्क से लौ नही धुऑ उठता है
ऑखों का समन्दर बादल बनता है फिर
जज्बात बरसते हैं औ जिस्म पिघलता है
जब भी तेरे इष्क की ऑज इधर आये है
वजूद मेरा होकर क़तरा कतरा पिघलता है
मुकेष इलाहाबादी ......................
जब भी कहीं तेरा जिक्र हुआ करता है
रोषनी तो नही तीरगी ही बढ़ जाती है
चरागे इष्क से लौ नही धुऑ उठता है
ऑखों का समन्दर बादल बनता है फिर
जज्बात बरसते हैं औ जिस्म पिघलता है
जब भी तेरे इष्क की ऑज इधर आये है
वजूद मेरा होकर क़तरा कतरा पिघलता है
मुकेष इलाहाबादी ......................
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