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Wednesday, 30 October 2013

तेरे ज़ख्मो के निशाँ इतने गहरे हैं

तेरे ज़ख्मो के निशाँ इतने गहरे हैं
हमे वर्षो लग जाएंगे इन्हे धोने मे
मुकेश इलाहाबादी -----------------

चाहा तो था दर्द उनका सीने मे छुपा लूं ,

चाहा तो था दर्द उनका सीने मे छुपा लूं ,
वो तो कम्बख्त आंसुओं ने दागा दे दिया
मुकेश इलाहाबादी -------------------------

Tuesday, 29 October 2013

कल तक तो जाँ था ज़िगर था साँसे था,,,

कल तक तो जाँ था ज़िगर था साँसे था,,,
ज़रा सी बेरुखी मे सनम बेवफा हो गया?
मुकेश  इलाहाबादी ------------------------

तेरी मासूमियत और पाकीज़गी ने उसे लब् न खोलने दिया




तेरी मासूमियत और पाकीज़गी ने उसे लब्  न खोलने दिया
पर ये सच है बाद जाने के तेरे वो शख्श टूट कर रोया
मुकेश इलाहाबादी ---------------------------------------------

Monday, 28 October 2013

खुद और ख़ुदा से भी दूर हो गए ,

खुद और ख़ुदा से भी दूर हो गए ,
तेरे यार मे इतने मज़बूर हो गए

जब से तूने अपनी चांदनी समेटी
फलक के  सारे तारे बेनूर हो गए

ज़रा सा हुस्न ज़रा सी नज़ाकत
खुदा की दौलत पे मगरूर हो गए

हमने तो न की थी किसी से चर्चा
फिर अपने चर्चे क्यूँ मशूर हो गए

हर रिश्ते मे शको सुबह करना ही 
शहर का चलन व दस्तूर हो गए 

Sunday, 27 October 2013

हर इक लफ्ज़ के साथ खुशबू रख दिया

हर इक लफ्ज़ के साथ खुशबू रख दिया
तेरे नाम का ख़त चन्दन से लिख दिया

तीरगी तेरे आखों की हमसे देखी न गयी
जला के दिल अपना तेरे दर पे रख दिया

मुकेश इलाहाबादी ------------------------

Friday, 25 October 2013

वह बर्बाद हो के भी खिलखिलाता है

वह बर्बाद हो के भी खिलखिलाता है
कि आइना टूट कर भी छनछनाता है

जब जब भी तीरगी औ तंहाई होती है
तब तब वो तेरा ही गीत गुनगुनाता है

अजब फकीराना अंदाज़ है मुकेश का  
ग़म आता है तो और भी मुस्कुराता है

मुकेश इलाहाबादी -------------------------

इबादत से तो पत्थर भी पिघल जाते हैं,

इबादत से तो पत्थर भी पिघल जाते हैं,
इसी उम्मीद पे तेरे दर पे सिर पटकता हूँ

मुकेश इलाहाबादी -------------------------

आपकी क़ातिल निग़ाह ने ज़िन्दगी बदल की



आपकी क़ातिल निग़ाह ने ज़िन्दगी बदल की
वरना  कारवाँ ऐ जीस्त किसी और राह पे था
मुकेश इलाहाबादी -----------------------------

सच, जब तेरी साँसों की खुशबू

सच,
जब
तेरी  साँसों की खुशबू
बातों का जादू
सर चढ़ के बोलता है
तो बहुत बोलता है

मुकेश इलाहाबादी -----
 

Thursday, 24 October 2013

एक और मुल्क बनवा दीजिये मज़हब के नाम पे

एक और मुल्क बनवा दीजिये मज़हब के नाम पे
कुछ और  दंगे करवा दीजिये महज़ब के नाम पे,,

सिर्फ नारों और बातों से फिर  मिल जाएगी सत्ता
कुछ और सिर कटवा दीजिये महज़ब के नाम पे

अमन  और  खुशहाली देश मे अच्छी नहीं लगती  
भाई - भाई को लडवा दीजिये महज़ब के नाम पे

घोटालों और नाकामियों से जनता न हो जाए बागी
फिर सौ दो सौ घर जलवा दीजिये महज़ब के नाम पे

गर कुछ शर्म और गैरत बाकी रह गयी हो दिल मे
बंद करो जनता को बरगलाना महज़ब के नाम पे 

मुकेश इलाहाबादी -----------------------------------


यूँ तो कोई वज़ह न थी नाराज़ होने की,ये

यूँ तो कोई वज़ह न थी नाराज़ होने की,ये
उनकी ख्वाहिश थी हम उन्हें मनाने आयें
मुकेश इलाहाबादी --------------------------

Wednesday, 23 October 2013

जिंदगी जीना सीख लिया

जिंदगी जीना सीख लिया
तेरे बगैर रहना सीख लिया
महफ़िलों मे हँसते ही रहे
छुप -२ के रोना सीख लिया
तुम्हारी यादों की डोर संग, 
पतंग सा उड़ना सीख लिया
अपनी बातों को हमने भी,
ग़ज़ल में कहना सीख लिया

मुकेश इलाहाबादी -----------

Tuesday, 22 October 2013

बेरुखी औ तोहमद सही, कुछ तो दिया




बेरुखी औ तोहमद सही, कुछ तो दिया
तोहफा ये आपका अब हमको क़ुबूल है
मुकेश इलाहाबादी -----------------------

आज भी हम उसकी दोस्ती के काबिल न हुए,

आज भी हम उसकी दोस्ती के काबिल न हुए,
जब कि ज़माना हमको झुक के सलाम करे है
मुकेश इलाहाबादी --------------------------------

Monday, 21 October 2013

अफ़सोस ये नही हमको किनारा न मिला

अफ़सोस  ये नही हमको किनारा न मिला
दुःख ये  है कि  तुमको भी सहारा न मिला

काँधे पे जुल्फें मासूम चेहरा बोलती आखें
मेले मे  वो  मासूम  चेहरा  दुबारा  न मिला

मुकेश इलाहाबादी ---------------
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Sunday, 20 October 2013

झूठ और फरेब से सने हैं,,

झूठ और फरेब से सने हैं,,
जाने किस माटी के बने हैं

बेशरम के पेड़ हो गए हम
तभी यत्र तत्र सर्वत्र तने हैं

बेवज़ह लड़ रहे भाई भाई
सभी तो भारत माँ के जने हैं

वे अपने दुःख से नही दुखी
ज़माने के सुख से अनमने हैं

दहकते सूरज की तपन है
मगर उम्मीद के साए घने हैं

मुकेश इलाहाबादी --------------

Saturday, 19 October 2013

हालात से समझौता करना नही आया

हालात से समझौता करना नही आया
अपने हक के लिए लड़ना नहीं आया

पिंजड़े में बैठ कर परों को तौलता रहा
खुले  आसमान मे उड़ना नहीं आया

सैकड़ों बार लिख लिख के काट दिया
ख़त इक प्यारा सा लिखना नहीं आया

अपनों ने काटा और तूफ़ान ने तोडा पर
तिनके सा झुक के फिर तनना नहीं आया

मुकेश इलाहाबादी -------------------------

Friday, 18 October 2013

कौन कमबख्त है जो रोज़ रोज़ पीना चाहे है,,,


कौन कमबख्त है जो रोज़ रोज़ पीना चाहे है,,, 
वो तो तेरी आखें हैं, जो  पीने को मजबूर करे है 
मुकेश इलाहाबादी ---------------------------------

न की शिकायत कभी साहिल ने लहरों की बेवफाई की

न की शिकायत कभी साहिल ने लहरों की बेवफाई की
जो कभी सीने पे सर पटकती हैं तो कभी दूर जा के उछलती हैं
मुकेश इलाहाबादी ---------------------------------------------------

हवेलियों से हमे डर लगता है

हवेलियों से हमे डर लगता है
फुटपाथ अपना घर लगता है

पक्के  मकान औ चौड़ी सड़कें,
अब तो गाँव भी शहर लगता है

गर दिल में मुहब्बत नहीं तो,,,
दिया अमृत भी ज़हर लगता है

जिसमे दया औ ममता नही है
वो बिन फलों का शज़र लगता है

अपनी ग़ज़ल औ बातों से मुकेश
इक  पहुचा हुआ फकीर लगता है

मुकेश इलाहाबादी -----------------

Thursday, 17 October 2013

ख्वाहिशें अपनी घटा के देखा

ख्वाहिशें अपनी घटा के देखा
रफ्तारे ज़िन्दगी बढ़ा के देखा

ता-उम्र तनहा के तनहा रहे
सब से दोस्ती निभा के देखा

इक दिन तुम भी चले जाओगे
तुमसे भी रिश्ता बना के देखा

हिस्से मे रेत् ही रेत् मिली
प्यार की गंगा बहा के देखा

शायद हमारी ही गलती थी
खुद को बढ़ा चढ़ा के देखा

मुकेश इलाहाबादी -------------

Wednesday, 16 October 2013

कभी चंदा कभी बिजली कभी सितारा कहे है

कभी  चंदा कभी बिजली  कभी सितारा कहे है
लोग तो मेरे महबूब को जाने क्या क्या कहे हैं
कभी रांझा कभी मजनू कभी सिरफिरा कहे हैं
दुनिया मुझे तेरे प्यार मे जाने क्या क्या कहे हैं
मुकेश इलाहाबादी --------------------------------

ये तो तेरी बेरुखी है जो ज़मी और चाँद सी दूरी है


ये तो तेरी बेरुखी है जो ज़मी और चाँद सी दूरी है 
वर्ना अबतक तेरे हाथो मे हिना सा रचे बसे होते
मुकेश इलाहाबादी ---------------------------------- 


Tuesday, 15 October 2013

तेरी खुद्दारी हमे रास आ गयी

तेरी खुद्दारी हमे रास आ गयी
वर्ना हम कहाँ किसी से दिल लगाने वाले थे
मुकेश इलाहाबादी --------------------------

शीरी जुबान का हमें लहज़ा नही आया

शीरी जुबान का हमें लहज़ा नही आया
घुमा - फिरा के बात करना नहीं आया

पथरीली कंटीली राहों की आदत रही
कालीन पे हमे पाँव रखना नहीं आया

रुख की  मानिंद  सीधा  चलता  रहा हूँ
ऊँट की तरह तिरछा चलना नहीं आया

बेशक तूफ़ान औ आंधियां बुझा दे, पर 
ज़रा सी फूंक से हमे बुझना नहीं आया

जब जब भी लिखा सच औ तीखा लिखा
मुकेश तुझे कभी कसीदे गढ़ना नहीं आया

मुकेश इलाहाबादी --------------------------

ये तो ज़माना है जिसने तजुर्बे की तहरीर लिख दी




ये तो ज़माना है जिसने तजुर्बे की तहरीर लिख दी
वरना हम तो साफ़ और खाली सफा हुआ करते थे
मुकेश इलाहाबादी ------------------------------
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तजुर्बा और काबलियत उम्र की मोहताज़ नहीं होती ,

तजुर्बा और काबलियत उम्र की मोहताज़ नहीं होती ,
ये तो वो चमक है जो आग मे जल कर ही के आती है
मुकेश इलाहाबादी --------------------------------------

न तो काबलियत रखते हैं न तो ख्वाहिश रखते हैं

न तो काबलियत रखते हैं न तो ख्वाहिश रखते हैं
हम जैसे तो ज़माने मे गुमनाम ही अच्छे लगते हैं

मुकेश इलाहाबादी --------------------------------

मेरे घर की हर दरो दीवार गीली है,

मेरे घर की हर दरो दीवार गीली है,
बरसात से नहीं आसुओं से सीली है

तुम्हारे शहर का मौसम होगा गुलाबी
मेरे गुलशन की तो हर पत्ती पीली है

मुद्दत्तों बाद आज भी याद है उसकी
जिसकी ज़ुल्फ़ सुनहरी आखें  पीली है 

आसान  नही है इस राह मे चलना
कि सच की राह बड़ी  ली पथरीली है

कभी खुशनुमा और ताज़ी होती थी
अब तो शहर की हवा ज़हरीली है

मुकेश इलाहाबादी ------------------

Friday, 11 October 2013

जंहा से जंहा तक देखता हूँ




जंहा से जंहा तक देखता हूँ
झूठ  और  फरेब  देखता हूँ

पढ़े लिखे समाज मे भी मै
लकीर के फकीर देखता हूँ

तुम्हारी कजरारी आखों मे
आंसू  की  दो बूँद देखता हूँ

निराशा के गहन गहवर मे 
आशा का इक द्वीप देखता हूँ

मुकेश की गजल मे हरबार
इंकलाबी तहरीर देखता हूँ


मुकेश इलाहाबादी ------------

Thursday, 10 October 2013

क़ाफिला तो क़ाफिला था कब तक रुका रहता ??

क़ाफिला तो क़ाफिला था कब तक रुका रहता ??
गुजरा तो था तेरे कूचे से तेरी ही जुस्तजूं मे !!!!!!
मुकेश इलाहाबादी ------------------------------------

Wednesday, 9 October 2013

हर बार वही होती है

हर बार वही होती है
सरकार वही होती है

शिर बदल जाते हैं पै
तलवार वही होती है

कश्ती कोई भी डूबे है
मझधार वही होती है

हथकड़ी सोने की सही
झनकार वही होती है

ज़ुल्म सहे औरत और
शरमशार वही होती है

मुकेश इलाहाबादी ---

कहानी ... फिजॉ



 फिजॉ ने बच्चे को स्कूल की बस पे बैठा के घर की तरफ का रुख किया ही था। अचानक एक छोटा बच्चा उसकी हाथ मे एक कागज थमा के यह कहते हुये भाग गया कि ‘आपको ये कागज उन अंकल ने देने के लिये कहा है’ वह कुछ समझ और सम्हल पाती तब तक वह लडका सडक के पार की गली मे न जाने कहां खो गया था। उसने जिस अंकल की तरफ इषारा किया था उस तरफ भी उसे कोई नजर नही आया। कागज का पुरजा अभी भी उसकी हथेलियों मे किसी अंगारे सा दबा दहक रहा था। पर वह उस कागज के टुकडे को कुछ डर और कुछ बदहवाषी मे फेक भी नही पा रही थी, और यह भी नही समझ पा रही थी कि वह इस टुकडे का क्या करे। लिहाजा इसी उहापोह की स्थिति मे उस कागज के टुकडे को हथेलियों मे लिये दिये जल्दी जल्दी घर की तरफ बढ चली। न जाने कव उसके हाथों ने उस टुकडे को अपने कपडों मे छुपा लिया। और अपनी उखडी सांसों को सहेजते हुये व चेहरे पे उभर आयी बदहवासी को छुपाने के लिये। अपने सिर के पल्लू को आदतन सही किया,आंचल से नाक, माथे पे चमक आयी पसीने की बूंदों को पोछा और सीधे किचन की तरफ चली आयी। सासू मॉ कुरान षरीफ पढन के लिये बैठी थीं। अब्बू रोज की तरह अखबार मे मुॅह गडाये चाय की चुस्कियों मे व्यस्त थे। साहिल जल्दी जल्दी दाडी पे हाथ साफ कर रहे थे। ननंद कॉलेज के लिये जल्दी जल्दी तैयार हो रही थी। लिहाजा किसी को फिजॉ के चेहरे को देखने की फुरसत न थी। इस बात से उसे कुछ तसल्ली मिली। फिजा के हाथ तेजी तेजी रसोंई के काम निपटाते जा रहे थे पर दिमाग उससे ज्यादा तेज चल रहा था। और अंदाज लगा रहा था सोच रहा था कि कौन हो सकता है यह कागज देने वाला ये तो उसे समझ ही आ गया था कि ये उसको कोई दूर से चाहने वाले प्रेमी ने ही भेजा है। पर वह कौन हो सकता है यह नही समझ पा रही थी। कागज का टुकडा अभी भी उसके षरीर से चिपका हुआ था। दहक रहा था। पर वह इसे छुपाये भी तो कहां छुपाये। ज्वाइंट फेमली मे कोई जगह कोई कोना अपना नही होता। कोई जगह कोई भी अलमारी व्यक्तिगत नही होती। इस बात की कमी उसे आज कुछ ज्यादा ही खल रही थी। खैर दृ फिजा ने उसे फिलहाल वहीं रहने दिया जहां था। पर मन ही मन उस कागज के मजमून को कहां और कब पढा जाये ये सोचती जा रही थी। इसी दौरान उसने जल्दी जल्दी चाय और नास्ता तैयार किया। नंनद का चाय नास्ता उसके कमरे मे जा के दे आयी। पति का चाय व नास्ता डाइनिंग टेबल पे सजा के उन्हे बता भी दिया कि नास्ता तैयार है जल्दी तैयार हो के कर लें। सासू जो अब नमाज से उठ चुकी थी और अब्बू के बगल मे बैठ के अखबार के दूसरे पन्ने मे मषगूल हो गयी थी। उन दोनो को भी उनके पास ही चाय पहुचा दिया। कमवाली आ गयी थी उसे उसने कपडे छांटने के पहले झाडू पोछा करने को कहां। इसके बहाने सब को सुनाते हुये कि वह बाथरुम मे जा रही है। कोई काम हो तो जल्दी से बता दे वर्ना वह नहा के ही निकलेगी। सब अपने अपने काम मे लगे रहे। पति ने ही कहा जाओ मै भी आफिस के लिये निकल रहा हूं। उधर नंनंद ये बात सुनने के पहले ही कॉलेज को निकल गयी थी। खुलता हुआ गेहुऑ रंग, पानी दार चेहरा व बोलती हुयी बडी बडी ऑखों वाली फिजा को जो भी एक बार देखता दूसरी बार देखने की इच्छा जरुर रहती। लबों से कम और आखों से ज्यादा बोलने वाली फिजा अभी उस उम्र मे ही थी जब लडकियों के मन मे नये नये और कोमल कोमल सपने संजोती हैं अपने आस पास किसी एसे चेहरे के ढूंढती हैं जो उनके इन एहसासो बातों को समझे सराहे उसकी खूबसूरती व अदाओं पे फिदा हों। कुछ कसमे वादे हों मिलना मिलान हो। पर यह सब वह सोच पाती इसके पहले ही मॉ बाप ने साहिल से उसका पल्लू बांध दिया। साल के अंदर ही मॉ बन गयी। और घर ग्रहस्थी मे फस गयी। वैसे तो उसकी जिंदगी मे कोई कमी नही। साहिल मिया भी सीधे साधे और सरल इंसान हैं। ज्यादातर अपने आफिस और बिजनेष के काम मे मसरुफ रहते हैं। कम बोलने की फितरत हे। पर उससे फिजॉ को काई परेषानी नही पर कभी कभी इतना कम भी बोलना भी चुभ जाता है खाष कर के जब वह अपनी कुछ बातें उनसे षेयर करना चाहती हो। चूंकि फिजां को किषोरवय से ही गजल षेरो षायरी पढना लिखना और गुनगुना अच्छा लगता रहा है। उसकी इस तबियत की वजह से ही उसे लगता कि जिंदगी मे कोई ऐसा तो साथी हो जिससे हल्के फुल्के माहौल मे हंसा बोला जाये। एक दूसरे से षालीनता से छेड छाड करते रहा जाय। कोई तो हो जो उसकी कभी तो तारीफ करे। पति पतनी के रिष्ते के अलावा भी कुछ ऐसे पल हों जब वह सिर्फ और सिर्फ कोमल एहसास महसूसे और जिये जायें। पर साहिल का धीर गम्भीर स्वभाव इन सब से अलग था। मगर इन सब बातों के बाद भी वह अपनी दुनिया और बच्चों परिवार के साथ खुष रहती। पर दृ कमल और कुमुदनी से भरे पूरे खूबसूरत तालाब की तरह जो अपनी ही रौ मे हल्की हल्की लहरों के साथ बहती जिंदगी मे। थोडा सा हलन चलन उस दिन हुयी जिस दिन उसने अपने पडोस मे आये नये नये परिवार के मुखिया गुलषन साहब से मुलाकात हुयी। गुलषन उनका तखल्लुष था सही नाम तो कुछ और ही था। जिसे बहुत कम ही लोग जानते थे। गुलषन साहेब की लम्बी चौडी कद काठी। काली गहरी ऑखें। क्लीनषेब्ड चेहरे पे एक अलग ही जादू जगाती थी। फिर उनका बोलने का बिंदास लहजा। भारी आवज किसी को भी अपने जादू मे ले लेने के लिये काफी थी। जिससे फिजॉ भी न बच सकी। जब उसे ये पता लगा गुलषन साहब भी एक अच्छे गजलगो हैं और उनका तरन्नुम भी महफिलों मे जान डाल देता है। तो वह भी उनके व्यक्तित्व के जादू मे बहती गयी। पर उनसे जान पहचान का सिलसिला महज इतना था कि कभी कदात ईद बकरीद मे एक दूसरे के यहां आना जाना। या फिर कभी उनके घर के सामने से निकलते हुये दिख भर जाना था। फिजॉ के मन मे कई बार ये खयाल भी आया कि उनसे गजल के लिये इस्लाह लिया जाये। इसके लिये साहिल भी तैयार हो गये थे पर सास ससुर कॉफी पुराने खयाल व कडक मिजाज के होने से उसकी हिम्म्न न पडी। उसे अपने घर से जब भी कहीं आना जाना होता तो गुलषन साहब के घर के सामने से ही हो के जाना होता था। पर कभी उसकी हिम्मत अपने से बात करने की नही हुयी। धीरे धीरे यह एहसास भी उसके मन की कहीं गहराइयों मे दब ढक से गये थे। उनके अलावा उसे और कोई ऐस षख्स तो नही याद आ रहा था जो उसको इस तरह से खत भेज सकता होगा। हालाकि वह यह भी सोचती जा रही थी कि गुलषन साहेब एसा नही कर सकते उनकी पत्नी तो उनसे कहीं ज्यादा खूबसूरत और जहीन है। हां कालोनी या आस पास मे कोई और हो जो उसे किसी और नजर से देखता हो जिसका उसे अन्दाजा नही तो बात अलग है। फिजॉ ने कंपकंपाते हाथो से बाथरुम का दरवाजा बंद किया उसकी चटखनी को गौर से देखा कि बंद है कि नही। फिर नल खोल दिया पानी की धार धड़ धड़ कर के बात्टी मे गिरने लगी। तब अपने कुतें मे छुपाये खत को खोला। अब दृ उसकी नजरे खत पे थी ... दोस्त, आदाब, मुझे नही पता तुम इस खत को पा के कैसा महसूस करोगी। मेरे बारे मे क्य सोचोगी। पर इतना जरुर है कि बहुत सोचने समझने और कई दिन विचारों के समंदर मे डूबने उतराने के बाद मैने यह खत तुम्हे लिखने का फेसला किया था। अब तुम हमे सजा देती हो या कुछ और हमे नही पता। पर इतना तय है फिजॉ जी इधर कुछ दिनो से मै आपकी तरफ आकर्षित होता गया मुझे खुद पता नही। वैसे तो खुदा की दुआ से बंदे की जिंदगी मे न कोई गम है और न कोई खलिष। एक इन्सान अपनी जिंदगी मे जो कुछ भी चाहता है उससे ज्यादा नही तो कम भी नही है। इंषाअल्लाह ने टीक ठाक सेहत दे रखी है ठीक ठाक बीबी है प्यारा से दो बच्चे हैं। अच्छी नौकरी है। सब कुछ गुडी गुडी है। और षायद ऐसा ही आप के साथ भी है। तो फिजॉ जी, जिंदगी आपके षहर मे आने तब अपनी रफतार और खूबसरती से चली भी आ रही थी। पर न जाने क्यूॅ जब से आप से मुलाकात हुयी तो मन कुछ कुछ भटकने लगा। और जितना भी मन को कहीं और ले जाने की कोषिष करता हूं आप की काली गहरी बालती ऑखें मुझसे बतियाने लगतीं। और मै भी उनसे गुफतगू करने लगता हूं।और घंटो किया करता हूं। सच आप मे जो कषिष है वह हर वक्त मुझे अपने गिर्दाब मे लिये रहती है। चाह के भी नही निकल पाता। कई बार अपने मन से पूछने जानने की भरपूर कोषिष की भी इस उम्र मे इस मुकाम पे ऐसा क्यूं एसा क्यूं। पर जितना ही सोचता हूं उतना ही उलझता जाता हूं। दिल और दिमाग दोनो जानते हैं इन सब बातों को कोई मतलब नही। कुछ हासिल भी नही होना। पर हर बार दिल पारे की तरह छटक के गिर जाता है और फिर फिर मै उन्हे बटोरने समेटने मे लग जाता हूं। हर बार नाकामियाबी ही हाथ लगती है। हालाकि मुझे कोई जिस्मानी भूख नही है। कोई मुहब्बत का इरादा भी नही है पर न जाने क्यू आपसे मिलना आपको देखना आपको महसूसना अच्छा लगता है। बस लगता है मेरी रुह आपके आस पास ही रहे। आपकी खुषबू को अपने लम्स लम्स मे संजोता रहूं। आपकी इन झील सी आखें के आबे हयात को पीता रहूं। आपके इस मासूस खामोष चेहरे को देखता रहूं। बस ...... मैने बहुत दिन अपने जज्बातों को जब्त किया और आगे भी करे रहता पर आज जब दिल और दिमाग इस बात पे राजी हो गये कि कम से कम एक बार यह ष्षहर छोडने के पहले अपने एहसासों को आप तक पहुचा ही देना चाहिये। भले ही मेरी ये हरकत आपको नागवार गुजरे और मेरी इज्जत आपकी नजरों मे कम हो जाये। पर आज जब मै आपके इस ष्षहर को हमेसा हमेसा के लिये छोड के जा रहा हूं। कारण मेरी एक बेहतर नौकरी हो। फिजा जी मुझे ये भी नही मालूम आप मेरे बारे मे क्या सोचती है। पर इतना तो मुझे विस्वास है कि घर से निकलते ही आपकी नजरें भी हमे ही ढूंढती हैं। ये बात मैने कई बार छुप छुप के दखकर महसूस की हैं और इसकी वजह कुछ भी रही हो। और यही वजह रही कि मेरी भी हिम्मत हुयी ये खत लिखने की। इस खत का जवाब भी आप चाहे तो दे और चाहे न दे। उसके लिये मुझे कुछ नही कहना। फिजाजी मै अपने इन एहसासों को आप तक पहले ही कह देता पर जानता हूं कि आप भी जिंदगी के इस मुकाम पे उस मंजिल के लिये जिसका न कोई पता है न ठिकाना है अपनी खुषहाल जिंदगी को बरबाद नही करेंगी। और मै नही नही चाहता। यही वजह रही है अपने जज्बातों को इतने दिनो तक अपने अंदर दबारे रखने का। आप पहली और आखरी बार मैने आपको अपनी बाते कह दी। अब आप मेरे बारे मे सोचेगी और क्या न सोचेंगी इस खत का जवाब भी दंेगी या न देंगी। इन सब बातों के पहले ही मेरा कारवॉ एक नयी राह मे बढ चुका होगा। और मै आपसे बहुत दूर जा चुका होउंगा। ष्षायद कभी और कभी न मिलने के लिये। खुदा हाफिज अलबिदा गुलषन फिजा कहानी को कई कई बार पढ चुकी थी। बाल्टी पूरी भर चुकी थी पानी तेजी से बह रहा था। पानी की धार की आवाज मे ही बाहर किसी ट्रक और एक कार की दूर जाती आवाज आ रही थी। फिजा के हाथ का खत न जाने कब पानी की धार के नीचे आ आ के भीग चुका था जिसे उसकी हथेलियां मसल के घबराहट मे बहा चुकी थी। भले ही खत उस दिन पानी मे भीग के गल के बह गया हो। पर उसके एक एक हरुफ उसके दिलो दिमाग की सफे पे पूरी चमक के साथ छप चुके थे। जिन्हे न वक्त गला सका न बिन बहे आंसुओं की धार। आौर आज भी उन पलों की याद उस खत की याद आती है गुलषन साहब की याद आाती है तो फिजा के होठो पे यही साइरा रईसा खुमार का यह षेर रहता है। मुहब्बत गर इबादत है तो इबादत रोज करती हूं वजू कर तेरे खत की तिलावत रोज करती हूं मुकेष इलाहाबादी ...

Tuesday, 8 October 2013

तुम्हारे आने से हंसने लगा है



तुम्हारे आने से हंसने लगा है
उदास था घर चहकने लगा है

तुम्हारी खुशबू से कोना कोना
गुलमोहर सा महकने लगा है

सांझ होते ही उदास हो जाता,
तुझे देख मन मचलने लगा है

रंगत उड़ गयी थी जिसकी अब
वो फलाश फिर दहकने लगा है

बरफ की मानिंद जम गया था  
क़तरा क़तरा पिघलने लगा है

मुकेश इलाहाबादी ---------------

Monday, 7 October 2013

अपने अन्दर डूब रहा हूँ

अपने अन्दर डूब रहा हूँ
सच के मोती ढूंढ  रहा हूँ

राम नाम की मदिरा पी 
सांझ सकारे झूम रहा हूँ

रिश्ते नाते कागजी फूल 
नकली खुशबू सूँघ रहा हूँ

जन्म औ मृत्यु का बंधन
लख लख योनी घूम रहा हूँ

तेरा औ मेरा के चक्कर मे
परम पिता को भूल रहा हूँ

मुकेश इलाहाबादी ---------

अभी तक तेरी याद लिए बैठे हैं

अभी तक तेरी याद लिए बैठे हैं
उदासी  बेहिसाब लिए बैठे हैं

जो ख़त तूने लिखा ही नहीं
उस ख़त का जवाब लिए बैठे हैं

सूख चुका है किताब में लेकिन
तेरा दिया गुलाब लिए बैठे हैं

मुकेश इलाहाबादी --------------