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Saturday, 30 November 2013

लफ़्ज़ों को धारदार कर लूं

लफ़्ज़ों को धारदार कर लूं
कलम को तलवार कर लूं

चुनौतियों से घबराकर क्यूँ
दामन को दागदार कर लूं ?

सोच के दरीचों को खोलकर
अपना  दर हवादार  कर लूं

दिल मैला है तो क्या हुआ ?
पैरहन तो कलफदार कर लूं

मुकेश इलाहाबादी --------------

इस तरफ समन्दर समन्दर है

इस तरफ समन्दर समन्दर है
उधर धूल धक्कड़ औ बवंडर है

जंगे खूंरेज़ी से कैसे बचेगी ज़मी
इधर तैमूर लंग उधर सिकंदर है

आसमान  चूमती थी ये इमारत
वक़्त की मार से आज खंडहर है

दशहत उदासी बेबसी व खामोशी
हर गली कूचे मे बस यही मंज़र है

खुद पी के हलालाल बहा दे गंगा
ज़माने मे अब कंहा कोई शंकर है

मुकेश इलाहाबादी -----------------

Friday, 29 November 2013

जो मौसमी फलों से लदे हैं,

जो मौसमी फलों से लदे हैं,
वे शज़र सिर झुकाये खड़े हैं

रेत  पे खिची लकीर हैं हम
ज़रा सी हवा से मिट गए हैं

था कदमो तले जिन्हे झुकना
घास के तिनके फिर से खड़े हैं

आहिस्ता - 2 लोग जान लेंगे
अभी तो हम शहर मे नये हैं

जला पायेगी हमे हिज्र की धूप
कि तेरी यादों के साये घने हैं

मुकेश इलाहाबादी -------------

Wednesday, 27 November 2013

लब पे सजा लो तो तराना हूँ मै,

लब पे सजा लो तो तराना हूँ मै,
वरना एक पागल दीवाना हूँ मै

हर गली कूचे मे है किस्सा मेरा
शहर के लिये इक फ़साना हूँ मै

रोज़ मिलते हैं मुलाक़ात होती है
फिर भी उसके लिये बेगाना हूँ मै

वक़्त के सांचे मे ढलना न आया
तभी तो बीता हुआ ज़माना हूँ मै

मर्ज़ी है तुम्हारी चाहे जो कह लो
आदतों से फ़क़ीर सूफियाना हूँ मै


मुकेश इलाहाबादी -----------------

Monday, 25 November 2013

चलो आओ काम हम कोई तूफानी करें

चलो आओ काम हम कोई तूफानी करें
हवा मे रंग घोलें मौसम शादमानी करें

लहरा के तेरी चुनरी इन फ़िज़ाओं मे
सुर्ख बादलों का रंग फिर आसमानी करें

तुम चुराओ चैन मेरा औ मै चुराऊँ दिल
आओ एक दूजे से थोड़ी बेईमानी करें

तुम कहो मुझे दीवाना औ मै कहूँ  मगरूर
आओ शीरी बातों के बीच बदज़ुबानी करें

तुम मुझे उकसाओ और मै लूं तेरा बोसा
आओ मुहब्बत मे थोडा छेड़खानी करें

मुकेश इलाहाबादी -----------------------------

Monday, 18 November 2013

अंधेरा सब कुछ लील गया,

अंधेरा सब कुछ लील गया,
परछांई को भी निगल गया

सफ़रे इंतज़ामात मे रह गया
कारवाँ तब तक निकल गया

फितरत उसकी चाँद सी है
सांझ होते ही खिल गया

कुछ तो खौलन पहले से थी
 ज़रा सी आंच पिघल गया

सदियों का जमा हिमखंड था
ज़रा से प्यार में पिघल गया

मुकेश इलाहाबादी ------------

Tuesday, 12 November 2013

जिस्म का ज़र्रा ज़र्रा तपता हुआ लगे

जिस्म का ज़र्रा ज़र्रा तपता हुआ लगे
जाने क्यूँ सब कुछ जलता हुआ लगे

देख कर ख़ाक ही ख़ाक हर सिम्त
आफताब  मुँह चिढ़ाता हुआ लगे

देख आँगन मे बिछी पीली चांदनी
फलक पे महताब ढलता हुआ लगे

देख कर दूर तक ये उड़ता गर्दो गुबार
कारवां मुझे छोड़ के बढ़ता हुआ लगे

जब भी तेरा ग़मज़दा चेहरा याद आये
दूर कंही कोई सितारा टूटता हुआ लगे

मुकेश इलाहाबादी -----------------------

Monday, 11 November 2013

आफताब से कुछ और नही माँगता हूँ

आफताब से कुछ और नही माँगता हूँ
फक़त अपने हिस्से की धुप चाहता हूँ

शाम से ही शराबखाने मे बैठा ज़रूर हूँ
मगर पैमाने मे अपना ग़म ढालता हूँ

रात जब भी चांदनी बरसे है आँगन मे
वज़ूद पे खामोशी की चादर तानता हूँ

मुकेश राह जब से पकड़ी सच की हमने
हो गया हूँ अकेला कारवां में जानता हूँ

मुकेश इलाहाबादी -------------------------

मै पूरी तफसील से तुझे याद करूं

मै पूरी तफसील से तुझे याद करूं
मौसमे तन्हाई को कुछ खाश करूं

अभी यंहा बैठा हूँ फिर वहाँ बैठूंगा
जंहा जंहा भी बैठू तेरी ही बात करूं

दूर तक सिर्फ ज़मी और आसमा हो
फिर तुझसे तंहाई मे मुलाक़ात करूं

तुम गुस्से में और भी हँसी लगती हो
आ आज तुझे थोड़ा सा नाराज़ करूं

होती होगी मुहब्बत आग का दरिया
आओ डूब कर इसे आबे हयात करूं

मुकेश इलाहाबादी ------------------