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Sunday, 9 February 2014

धड़कने अपने सीने की सुनते हैं दिल थाम के

धड़कने अपने सीने की सुनते हैं दिल थाम के
कि अब ये दिल हमारा है उनके इख्तियार में
मुकेश इलाहाबादी ---------------------------

चाहत और यादों की चादर ओढ़ कर

चाहत और यादों की चादर ओढ़ कर
ज़िंदगी की तमाम सर्द रातें काट दी
मुकेश इलाहाबादी -------------------

राह में हमारी कोई तरुवर नहीं है

राह में हमारी कोई तरुवर नहीं है
कोई साथी कोई हमसफ़र नहीं है

हूँ मुसाफिर जिसकी जुस्तज़ू में
मेरे आने की उसको खबर नहीं है

लोग हैं कि मैखाना लिए बैठे हैं,,
यंहा क़तरा ऐ मय मयस्सर नहीं

फ़क़त दश्त है सहरा है तंहाई है
हम फ़क़ीरों के लिए घर नहीं है

मुहब्बत ही मुहब्बत हो जंहा ??
ऐसा कोई गांव या शहर नहीं है

मुकेश इलाहाबादी ---------------

तन में इत्र लगाए बैठे हैं

तन में इत्र लगाए बैठे हैं
मन मे मैल लिए बैठे हैं
हाथो में गुलाब दिले में
जनाब बबूल उगाए बैठे हैं
हर अदा जिनकी क़ातिल
चेहरा मासूम लिए बैठे हैं
सैकड़ों क़त्ल करके भी
निगाहें मासूम लिए बैठे हैं
दिले दौलत लिए फिरते थे
वही दौलत लुटाए बैठे हैं

मुकेश इलाहाबादी -------

Saturday, 8 February 2014

कानून के सारे पेच ओ ख़म जानते हैं

कानून के सारे पेच ओ ख़म जानते हैं
सज़ा ऐ ज़ुर्म से कैसे बचे हम जानते हैं

सत्ता पे किस तरह रहा जाए काबिज़
शाम दाम दंड भेद सबकुछ  जानते हैं

हर बार नए वादे नए नारे नए शगूफे
राजनीति  की सब तिकड़म जानते हैं

जनता का वोट औ जनता का ही पैसा
उनपे कैसे करें हम हुक़ूमत जानते हैं

अंग्रेज़ चले गए तो क्या अंग्रेज़ी तो है
भाई - २ को कैसे बाटा जाय जानते हैं

मुकेश इलाहाबादी -----------------------


Friday, 7 February 2014

सुना है मैने वसंत आ गया है


सुना है मैने वसंत आ गया है। पेडों पे नये पत्ते बौर और आम्रकुजों मे अमराइंया आ गयी है। कोयलें कभी मुंडेर  पे तो कभी डालियों पे कुहुकने लगी हैं। विरहणियां सजन के बिना एक बार फिर हुमगने लगी हैं। सखियां हाथों मे मेहंदी लगा के झूला झूलने लगी हैं। कवियों के मन मे भावों के नव पल्लव लहलाहाने लगे हैं। हवाएं इठलाने लगी हैं। घटाएं मचलने लगी है। साजिंदे अपने साज सजाने लगे हैं गवइये कभी राग विरह तो कभी राग सयोंग गाते हुए कभी उठान पे तो कभी सम पे आने लगे हैं। हर तरफ लोग हर्षों उल्लस मनाने लगे है। ऐसा ही सब कुछ पढने को मिल रहा है किताबों मे कविताओं मे किस्सों मे कहानियों मे। लिहाजा मै इसी सच को ढूंढता हूं इस भीड भरे और दहशत से सहमे षहर की सडकों मे गलियों मे बाजारों मे खेल के मैदानों मे गावं के खतों मे खलिहानों मे कुजों मे अमराइयों मे। मगर मुझ ऐसां हंसता हुआ खिलखिलाता हुआ गाता हुआ वसंत कही नही मिला।
लिहाजा एक बार फिर उदास मना अपने वीराने मे आ बैठा हूं अपने विचारों के घोडे दौडाने लगा हूं। इतिहास के पन्नो मे वसंत खोजने लगा हूं। उस वसंत त्रतु को जो शीत ऋतू  के प्रस्थान और ग्रीस्म त्रतु के आगमन के संधिं काल मे होती है। जब सारी प्रक्रति नये उल्लस मे होती है। वही वसंत ऋतु जिसका गुणगान हमाने आदि कवियांे से लकेर आधुनिक कविजत तक करते न थकेते थे। वही वसंत त्रतु जिसे मधुरितु, ऋतुराज, कुसुमाकर भी कहा जाता है। जिसे कवि ‘देव’ ने तो कामदेव का शिशु कहा है। जिसे प्रक्रिति विभिन्ना खेल खिलाती रहती है। वही वसंत ऋतु जिसके आगमन का स्वागत भारतीय चेतना ज्ञान और विदया की देवी सरस्वती की अभ्यर्थना करके करती है। और यह अकारण नही था। कारण साफ था। कि जव वसंत आता है तो लगता है मानो पूरी की पूरी प्रकिति पुरुष के साथ केलि कर रही हो। रास रंग मना रही हो। जड ही नही चेतन भी पुलकित से लगते है। मानो कामदेव और रति न्रत्य कर रहे हों। लिहाजा इसी कामदेव को विदया के दवारा ज्ञान के दवारा संतुलित रख के अध्यात्म के नये आयाम को देखने सुनने समझने की भावना रहती थी। पर अब तो काम मुख्य जान पडता है और ज्ञान गौडं।
और ,,, सचमुच वो जमाना था वसंत ऋतु आती थी धरती धानी चुनर ओढ इठलाती रहती थी किसानो के दिल लहलहाती फसलें देख देख के हुलसते रहते थे। हवाऐं मंद मंद सूरज की हल्की हल्की गमक से ठुनकती रहती थी। सखियां इठलाती मचलती नहरों पे पोखरों पे नदियो और तालाब के किनारे ठिठोली करती रहती थी । बूढे किसान हुक्के की गुडगुडाह मे बीते दिनो को अपनी मोतियाबिंदी ऑखों से फिर फिर हरयिाते रहते थे। बूढी औरतें फागुन की तैयारी लोक गीत गाते हुऐ अंगनाई मे मे पापड बडी तोडती रहती थीं। बच्चे बाग बगैचों मे छुपा छुपउवल खेलते हुए कच्चे पक्के फल तोडते मिल जाते थै। यूवा दिल अपने साथी को निहारते हुये मनाते हुए कभी धान के खेतों मे तो कभी गांव के सीवान पे मिलते मिलाते दिख जाते थे। विरहणियां डाकिया को निहरती थी कि पिया नही तो कम से कम पिया को संदेसा तो आता ही होगा। जिसमे वसंत पे नही तो कम से कम फागुन पे आने का वादा तो किया ही होगा। हर तरफ हषों उल्लास का मौसम व माहौल बिखरा होता था।
जाने कब मै अपने विचारों मे डूबता उतराता निकल पडता हूं वो अमराइंयां ढूंडने जो अब फार्म हाउस मे बदल थां जहां गोरियां तो मिली प्रेमी भी मिले हैं पर अब वे फागुन के गीत नही राक गीत गाते हुये मिले। मुनहार की जगह काम का ज्वार मिला।
नदी के किनारे तो मिले पर वो सूने सूने मिलें गांव का पनघट तो मिला पर वो चूडी खनकाती गोरियां और जल के घडे न मिले। गांव भी गलियों मे भी बच्चे तो मिले पर वे अब नेट पे व मोबाइल पे मिले उनका वो निस्छल हुछदंग न मिला। भौजांइयं तो मिली पर उनमे सुघडता तो मिली पर चुहल पन न मिला।

ये सब देखता हूं तो सोचता हूं कि न जाने किन ग्रहों ने इन उत्साहों पे इन पर्वों  पे अपनी वक्र गति डाल दी है कि जमाना न जाने किस विकास की अंधी गली मे दौडने लगा भागने लगा पस्चिम का अंधानुकरण करने लगा अपने पर्वो त्यौहारों को भूल कर वसंतोत्सब की जगह वैलेंटाइन डे लेने लगा है। शहर  के चकाचौंध अंधेरे मे डूब सिर्फ और सिर्फ किताबो मे कविताओं मे नाटक और चित्रपटों मे वसंत का त्यौहार खाजने लगा है। और खुश्क होठों पे जीभ फिरा के प्यास को झूठी तसल्ली देने लगा है।
खैर जो भी हो किताबों मे ही सही कविताओं  मे ही सही पर चलो अभी वसंत  ज़िंदा तो है सांसे तो ले रहा है। और न जाने कब फिर ग्रहों की गति फिर बक्र से मार्गी हो और यह वसंत रितु एक बार फिर से हंसने लगे खिलखिलाने लगे। मुस्कुराने लगे। 
इन्ही कामनाओं के साथ इस वसंत रितु के ऋतु ढेरो शुभकामनाऐं

मंकेश  इलाहाबादी
05.02.2014

बेशक़ ज़ुबान मीठी रख

बेशक़ ज़ुबान मीठी रख
थोड़ा कड़वापन भी रख

घुमा फिरा के मत बोल
तू बातें सीधी साधी रख

है लहज़ा तेरा सर्द बहुत
तबियत में सरगर्मी रख

ख्वाब भले हो ऊंचे -ऊंचे
नज़रे अपनी नीची रख

चहुँ ओर फ़ैली कालिख
चादर अपनी उजली रख

मुकेश इलाहाबादी -----

Thursday, 6 February 2014

सच तो ये है उन्हें भी हमसे मुहब्बत है

सच तो ये है उन्हें भी हमसे मुहब्बत है
ये अलग बात आदतन मगरूर रहते हैं
मुकेश इलाहाबादी ---------------------

आईना भी कह रहा है, खुद को सजाया न करो

आईना भी कह रहा है, खुद को सजाया न करो
बला की सादगी है कंही बेनक़ाब जाया न करो
मुकेश इलाहाबादी --------------------------------

चूम के देखा नही






चूम के देखा नही
छू कर जाना नही

अजनबी सा मिला
हंस कर बोला नही

यार बना फिरता है
हाले दिल पूछा नही

नक़ाब में रहा आया
रू -ब - रू हुआ नही

वह बेवफा था नही
वफ़ा भी किया नही

दी थी आवाज़ हमने
सुन के भी सूना नही

बेरुखी उसकी हमने
किसी से कहा नही

मुकेश इलाहाबादी --

Wednesday, 5 February 2014

सादगी जब खुद ब खुद खड़ी हो जाये क़यामत बन के

सादगी जब खुद ब खुद खड़ी हो जाये क़यामत बन के
भला बताओ फिर हम जाँ बचाने किधर जांए ?????
मुकेश इलाहाबादी ---------------------------------

जलता हुआ लगे झुलसता हुआ लगे

जलता हुआ लगे झुलसता हुआ लगे
जाने क्यूँ ज़माना सुलगता हुआ लगे

न पीता हूँ और न ही मैखाने जाता हूँ
फिर भी ये ये दिल बहकता हुआ लगे

कोई गुल नहीं, कारखाना ऐ इत्र नहीं
फिर क्यूँ सब कुछ महकता हुआ लगे

हौले से तुमने जो मुझको छुआ जैसे
समंदर में सैलाब उमड़ता हुआ लगे

मुकेश हँसता भी है मुस्कुराता भी है
दिल ही दिल में सुबुकता हुआ लगे

मुकेश इलाहाबादी ------------------------

अलग से ---

यूँ तो बारिस में भीगी है सारी ज़मीं,,
फिर क्यूँ दिले शज़र सूखा हुआ लगे

Tuesday, 4 February 2014

अपनी खामोशी पे उसने,सफाई दी

अपनी खामोशी पे उसने,सफाई दी
मै बोलता भी तो क्या हो जाता ??
मुकेश इलाहाबादी --------------------

लब खोल तो दूं मै

लब खोल तो दूं मै चुप रहने का कोई इरादा भी नहीं
बस शर्त इतनी सी है,दोस्त कोई सुनने वाला तो हो
मुकेश इलाहाबादी -----------------------------------

Monday, 3 February 2014

जब जिस्म की नश नश तड़कती है

जब जिस्म की नश नश  तड़कती है
दिन भर की थकान बयाँ  करती है

कोई नस्ल कोई रंग कि कोई जातहो
आँखों की भाषा आँखें ही समझती है

बोझ जब उठा नहीं पाती हैं आब का
बदलियाँ जा के परवत पे बरसती है

वो मेहँदी लगे हाथ पायल वाले पाँव
गोरी के हाथो में चूड़ियाँ खनकती है

चाँद की ये शोखियाँ देख  - देख कर
सागर के दिल में लहरें मचलती है

मुकेश इलाहाबादी --------------------

ख़ुदा जब ख़ुद - ब- ख़ुद मेरे सीने में रहता है

ख़ुदा जब ख़ुद - ब- ख़ुद मेरे सीने में रहता है
ज़रुरत क्या मुझे किसी इबादतगाह जाने की

जानता हूँ कि फैसला होगा उसी के हक़ में ,,
ज़रुरत क्या मुझे किसी गवाहों औ सबूतों की

हर सिम्त क़यामत खुद  ब  ख़ुदगुनुनाती है
चुपचाप सुनता हूँ ज़रुरत क्या कुछ गाने की

खुद ब ख़ुद रूठा है  वो खुद ब खुद ही आयेगा
है ज़रुरत क्या है उसे फिर - फिर मानाने की

जब हर शख्श मशरूफ अपने ग़म से ग़ाफ़िल
ज़रुरत क्या किसी को अपना ग़म सुनाने की

चढ़ते हुए सूरज को ही सब सलाम करते हैं
ये हम डूब कर समझे हैं रवायत ज़माने की

न मुरझाया है  न मुरझायेगा गुले - मुहब्बत
ज़रुरत क्या तुम्हे कागज़ी फूल महकाने की

दोस्त रख भरोसा अपने हुनर और कूबत का
ज़रुरत क्या किसी के सामने हिनहिनाने की

सिवाए मुहब्बत के कोई और सुर न पाओगे
मुकेश गालो तुम इसे ये ग़ज़ल है दीवाने की

मुकेश इलाहाबादी ----------------------------

Saturday, 1 February 2014

ज़रूरी तो नहीं आँसू क़तरा ऐ आब बन के बहें

ज़रूरी तो नहीं आँसू क़तरा ऐ आब बन के बहें
अक्शर ये खामोश निगाहों में भी निहां रहते हैं 
मुकेश इलाहाबादी -------------------------------

दोस्त का घर आना हुआ

दोस्त का घर आना हुआ
मनमयूर का नाचना हुआ

गीला शिकवे कहे सुने गए
रूठे सजन को मानना हुआ

साँसों की हर लय पे थिरक
मुहब्बत का नया तराना हुआ

कलियाँ फिर फिर मुस्कुराईं
भौरों का भी गुनगुनाना हुआ

इक हसीन खवाब देखे हुए
मुकेश कितना ज़माना हुआ

मुकेश इलाहाबादी ----------

अल्फ़ाज़ों के कुछ फूल खिला कर हम क़ातिल हो गए

अल्फ़ाज़ों के कुछ फूल खिला कर हम क़ातिल हो गए
उन्हें क्या कहेंगे जो दामन में अदाओं के तीर लिए बैठे हैं
मुकेश इलाहाबादी -----------------------------------------

चाहत में मुहब्बत की तुम बेवज़ह इधर- उधर भटके

चाहत में मुहब्बत की तुम बेवज़ह इधर- उधर भटके
इक बार हमको शिद्दत से आवाज़ तो दिया होता ,,,,,,,,,,

मुकेश इलाहाबादी -------------------------------------------

सुबह से ज़िंदगी उदासी लिए बैठी है

सुबह से ज़िंदगी उदासी लिए बैठी है
मौसमे वस्ल की इंतज़ारी लिए बैठी है

शब् भर चराग संग संग खुद भी जली
रात जागी आँखें खुमारी लिए बैठी है

हुस्न और मासूमियत की सजा पाकर
अँधेरे में अपनी बेगुनाही लिए बैठी है

भूल गया सूरज जिसे दिल में उगाया
याद में वो रात अंधियारी लिए बैठी है

मुकेश इलाहाबादी ----------------------