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Monday, 12 May 2014

कि बेचराग़, बेधुआँ जल रहे हैं हम

कि बेचराग़, बेधुआँ  जल रहे हैं हम
रंग नहीं खुशबू नहीं खिल रहे हैं हम

राह नहीं मंज़िल नहीं हमसफ़र नही
औ बेवज़ह मुद्दतों से चल रहे हैं हम

धूप ही धूप है कुछ इस क़दर राह में
क़तरा  - २ बर्फ सा पिघल रहे हैं हम

हादसों की फेहरिश्त क्या सुनाएँ अब
जान लो किसी तरह संभल रहे हैँ हम

आफ़ताब की तपन ने  है सुखा दिया
वरना इस तालाब के कँवल रहे हैं हम

मुकेश इलाहाबादी ------------------------

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