एक बोर आदमी का रोजनामचा
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Sunday, 18 January 2015
साँझ उतरते ही ज़िंदगी ठहर जाती है
साँझ उतरते ही ज़िंदगी ठहर जाती है
रात होते - होते तन्हाई बिखर जाती है
हर रोज़ तुझे पाने के ख्वाब देखता हूँ
और देखते - देखते रात गुज़र जाती है
तुझसे मिलूं कोई उम्मीद नहीं दिखती
मुकेश जिधर तक मेरी नज़र जाती है
मुकेश इलाहाबादी -------------------
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