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Wednesday, 28 January 2015

सोचता हूं सुबह के अलसाये सूरज को उतार कर

सोचता हूं
सुबह के
अलसाये सूरज को
उतार कर
सजा दूं तुम्हारे माथे पे
गोल बिन्दी सा
और दे दूं एक
प्यारा सा चुम्बन
मगर तुम
मेरी फैली हुयी
आतुर बाहों को
जो तुम्हे एक बार फिर से
अपने मे समेट लेना चाहती हैं
छुडा कर, यह कहते हुये
चल दोगी कि
‘अब छोडो भी देर हो रही है
बच्चों को जगा के तैयार कर के
स्कूल भेजना है,
नास्ता तैयार करना है
माताजी को चाय भी तो देना है
और घर के ढेरों काम भी हैं
तुम्हे तो नही पर मुझे तो ढेरों काम हैं’
यह सुन मै एक बार फिर
लिहाफ ओढ़ के सो जाउंगा
खयालों मे खो जाउंगा कि
थोडी देर बाद जब तुम फिर
अखबार और चाय ले के आओगी
तब एक बार फिर मै तुम्हे बाहों मे लेकर
प्यारा सा चुम्बन ले लूंगा और तब
तुम्हारा चेहरा एक बार फिर
गुलाबी हो जायेगा
सुबह के खिले सूरज सा

मुकेश इलाहाबादी ...

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