थोड़ी छाँव और
ज़्यादा धूप में बैठी
बुढ़िया भी
अपने
चार करेले और
दो गड्डी साग न बिकने
पर उतना दुखी नहीं हैं
जितना नगर श्रेष्ठि
नए टेंडर न मिलने पर है
कलुवा
हलवाई की भटटी
सुलगाते हुए अपने
हम उम्र बच्चों को फुदकते हुए
नयी नयी ड्रेस और बस्ते के साथ
स्कूल जाते देख भी उतना दुखी नहीं है
जितना सेठ जी का बेटा
रिमोट वाली गाड़ी न पा के है
प्रधान मंत्री जी
हज़ारों किसान के सूखे से
मर जाने की खबर से
भी उतने दुखी नहीं हैं
जितना कि
मुकेश बाबू आज
कविता न लिख पाने की वज़ह दुखी हैं
शायद ऐसा इसलिए है कि
दुःख,
सिर्फ दुःख होता है
जो सहन शक्ति के समानुपाती
बड़ा और छोटा होता है
मुकेश इलाहाबादी -------
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