आँखे तेरे दीदार को तरसती रहीं
औ रूह तेरे प्यार में सुलगती रही
ग़म उदासी और तन्हाई की बर्फ
अपनी ही आंच में पिघलती रही
शायद रेत् की दीवार थी दरम्याँ
वज़ह शक ओ शुबह दरकती रही
कई सावन बीते जब तुम आये थे
मेरी रातें आज तक महकती रही
सूनी मुंडेर पे एक बुलबुल बैठी के
मुकेश के पे देर तक चहकती रही
मुकेश इलाहाबादी -------------------
औ रूह तेरे प्यार में सुलगती रही
ग़म उदासी और तन्हाई की बर्फ
अपनी ही आंच में पिघलती रही
शायद रेत् की दीवार थी दरम्याँ
वज़ह शक ओ शुबह दरकती रही
कई सावन बीते जब तुम आये थे
मेरी रातें आज तक महकती रही
सूनी मुंडेर पे एक बुलबुल बैठी के
मुकेश के पे देर तक चहकती रही
मुकेश इलाहाबादी -------------------
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