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Thursday, 24 November 2016

और बिखर जाता हूँ ख़ुद को समेटते हुए



और बिखर जाता हूँ ख़ुद को समेटते हुए
आँख हो नम जाती है दर्द से , हँसते हुए

तुम्हारे इस चाँद जैसे चेहरे की आँच में
देखे हैं बर्फ ही नहीं पत्थर, पिघलते हुए

कैसे लिक्खूँ तुझको अपने दिल की बात
हाथ लरज़ जाते हैं, तुझे ख़त लिखते हुए

ऐसा भी नहीं तेरे बिन ये रात न कटेगी
काट दूंगा ये तमाम रात तारे गिनते हुए

बस इक ग़ज़ल सुना दे तू आज की रात
मुकेश रात सो जाऊँगा, तुझे  सुनते हुए

मुकेश इलाहाबादी -----------------------

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