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Wednesday, 19 April 2017

कई बार ऐसा लगता है

कई बार ऐसा लगता है

मेरे अंदर एक सुप्त ज्वालामुखी है
जो फट पड़ना चाहता है
जोर से गर्जन - तर्ज़न करता हुआ
सब कुछ बहाता हुआ ले जाये
अपने तप्त और खौलते लावे के साथ
शेष कुछ भी न बचे
कुछ भी नहीं
सिवाय
दूर तक बहते हुए लाल तप्त लावा के

कई बार ऐसा भी लगता है
मेरे अंदर इक समंदर है
ठहरा हुआ (ऊपर - ऊपर )
अंदर तमाम लहरें हैं
वे लहरें जो चाँद के उगने पे ठांठे मारती हैं
हरहराती हैं,
चाँद को छूना चाहती हैं,
मगर  हर बार नाकामयाब हो कर
शांत हो कर फिर बहने लगती हैं

कई बार ऐसा भी लगता है
मेरे अंदर भी
इक हिमालय उग आया है
बर्फ सा ठंडा
रूई सा सफ़ेद
तमाम खाईयों, नदियों, झरनो और जंगलों के साथ
जो शांत देख रहा है
देख रहा है
सूरज को जलते हुए
चाँद को चलते हुए
धरती को घुमते हुए
अपने अंदर,
यहाँ तक कि,
पूरी क़ायनात को देखता हूँ अपने अंदर

कई बार मुझे ऐसा भी लगता है

मुकेश इलाहाबादी --------------------- 




मुकेश इलाहाबादी ----------------------

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