टूटा
ज़र्ज़र पुराना
पुल हूँ मै
जिसके
नीचे कोई नदी
नहीं बहती
हाँ ! सूखी हुई नदी
के निशाँ ज़रूर हैं
दूर तक
आब की नदी तो नहीं
हाँ ! पत्थरों की नदी ज़रूर बहती है
दूर - दूर तक
जिससे
तुम्हारी प्यास न बुझेगी
कतई
मेरे
सीने पे
फ़क़त
तन्हाईयाँ डोलती हैं
इस छोर से उस छोर तक
इस टूटे ज़र्ज़र पुल से
तुम पार भी नहीं उतर सकते
तुम ! लौट जाओ पथिक
मुकेश इलाहाबादी --------
ज़र्ज़र पुराना
पुल हूँ मै
जिसके
नीचे कोई नदी
नहीं बहती
हाँ ! सूखी हुई नदी
के निशाँ ज़रूर हैं
दूर तक
आब की नदी तो नहीं
हाँ ! पत्थरों की नदी ज़रूर बहती है
दूर - दूर तक
जिससे
तुम्हारी प्यास न बुझेगी
कतई
मेरे
सीने पे
फ़क़त
तन्हाईयाँ डोलती हैं
इस छोर से उस छोर तक
इस टूटे ज़र्ज़र पुल से
तुम पार भी नहीं उतर सकते
तुम ! लौट जाओ पथिक
मुकेश इलाहाबादी --------
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