एक
दिन मैंने कैलेंडर से
वे सारी तरीखें मिटा डाली
जिसमे जिसमे तुम थीं
दिन मैंने कैलेंडर से
वे सारी तरीखें मिटा डाली
जिसमे जिसमे तुम थीं
अब मेरी दीवार बिना कैलेंडर के है
मैंने,
चाहा अपने ज़ेहन से
तुम्हारी सारी खुशबू विदा कर दूँ
मेरे पास अब कोई सुगंध नही है
ऐसे ही एक दिन
मैंने चाहा
'मै' हो जाऊँ तुम्हारे बिन
'मैंने' पाया 'मै' तो कंही भी नही हूँ...... तुम्हारे बिन
सिवाय इक शून्य के
मुकेश इलाहाबादी........
मैंने,
चाहा अपने ज़ेहन से
तुम्हारी सारी खुशबू विदा कर दूँ
मेरे पास अब कोई सुगंध नही है
ऐसे ही एक दिन
मैंने चाहा
'मै' हो जाऊँ तुम्हारे बिन
'मैंने' पाया 'मै' तो कंही भी नही हूँ...... तुम्हारे बिन
सिवाय इक शून्य के
मुकेश इलाहाबादी........
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