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Friday, 18 January 2019

मेरे ज़ख्मो को बड़े गौर से देख रहा था

मेरे ज़ख्मो को बड़े गौर से देख रहा था
शायद नया ज़ख्म कहाँ दूँ सोच रहा था

तू मेरी दुश्मन है या फिर मेरी जानेजां
बैठा - बैठा इक दिन, यही सोच रहा था 

तू शुबो छत पे धूप सा बिखर गयी थी
जाड़े की दोपहर जब धूप सेंक रहा था 

आज फिर वही अजब इत्तेफ़ाक़ हुआ
तूने मेसज किया जब याद कर रहा था

सालों से  मेरे शहर में बारिश नहीं हुई
मै तेरी यादों में झमाझम भीग रहा था

मुकेश इलाहाबादी --------------------

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