मेरे ज़ख्मो को बड़े गौर से देख रहा था
शायद नया ज़ख्म कहाँ दूँ सोच रहा था
तू मेरी दुश्मन है या फिर मेरी जानेजां
बैठा - बैठा इक दिन, यही सोच रहा था
तू शुबो छत पे धूप सा बिखर गयी थी
जाड़े की दोपहर जब धूप सेंक रहा था
आज फिर वही अजब इत्तेफ़ाक़ हुआ
तूने मेसज किया जब याद कर रहा था
सालों से मेरे शहर में बारिश नहीं हुई
मै तेरी यादों में झमाझम भीग रहा था
मुकेश इलाहाबादी --------------------
शायद नया ज़ख्म कहाँ दूँ सोच रहा था
तू मेरी दुश्मन है या फिर मेरी जानेजां
बैठा - बैठा इक दिन, यही सोच रहा था
तू शुबो छत पे धूप सा बिखर गयी थी
जाड़े की दोपहर जब धूप सेंक रहा था
आज फिर वही अजब इत्तेफ़ाक़ हुआ
तूने मेसज किया जब याद कर रहा था
सालों से मेरे शहर में बारिश नहीं हुई
मै तेरी यादों में झमाझम भीग रहा था
मुकेश इलाहाबादी --------------------
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