वह
एक नायाब कलाकार था,
उसकी बनाई कुर्शी की घूम पूरे कबीले में थी,
हर नया ओहदेदार उसकी बनाई कुर्शी पे बैठना चाहता था।
वज़ह,
वह कुर्शी ओहदे और ओहदेदार को देख के गढ़ता था।
जिससे उस कुर्शी पे बैठते ही ओहदेदार को अलग सी अनुभूति होती
वो एक नई ऊर्जा, स्फूर्ति , उत्साह से लबालब हो जाता।
और नए ओहदेदार के व्यक्तित्व में भी चार चाँद लग जाते थे।
एक बार तो कबीले के राजा ने खुश हो के उसे काफी बड़ी बख्शीश भी दी थी।
लेकिन -
एक दिन कबीले के लोगों को घोर आश्चर्य और दुःख तब हुआ।
जब कबीले वालों को वो हुनर मंद और नायब कलाकार
अपने ही कारखाने में हज़ारों बनी अधबनी कुर्शियों के बीच मरा पाया ।
उसके हाथ में एक हस्तलिखित परचा था।
"मै मरा नहीं हूँ, दरअसल मैंने जितनी भी कुर्सियां बनाई उन सब पे बैठने के कुछ दिनों बाद ओहदेदार
अहंकारी , निरंकुश और
स्वेच्छा चारी होता आया है, लिहाज़ा मै ऐसी कुर्शी बनाना चाहता था,
जिसमे सत्य अहिंसा त्याग कर्तव्यनिष्ठा न्यायप्रियता
समानता की कीलें और लकड़ियाँ ठुंकी हो और प्रेम स्नेह की कशीदाकारी हो, पर मै ये कर न सका।
लिहाजा,
मै ईश्वर के पास शिकायत और अर्ज़ ले के जा रहा हूँ ,कि मेरे अंदर ऐसा हुनर क्यूँ यही बख्शा -
और अगर नहीं बख्शा तो अगली बार मुझे ये हुनर दे कर ही भेजना,
ताकि मै एक ऐसी कुर्शी बना सकूं। जिसपे बैठ के इंसान इंसान ही रहे
कुर्शी की तरह जड़ न हो जाए - अहंकारी और खुदगर्ज़ न हो जाए -
मुझे विस्वास है मै एक दिन ईश्वर से ये हुनर ले कर ही लौटूंगा।
तब तक के लिए अलविदा दोस्तों"
मुकेश इलाहाबादी -----------------------