Pages

Monday, 28 September 2020

ठीक उसी वक़्त

 ठीक 

उसी वक़्त आज भी 

देखूँगा 

मै 

रोज 

की तरह पृथ्वी को 

पृथ्वी अपनी धुरी पे 

घूमत कर  

ठीक उसी जगह आते हुए 

जहाँ से 

सूरज 

ठीक तुम्हारी खिड़की लांघता हुआ 

अपनी सुरमई किरणे 

तुम्हारे दूधिया गालों पे बिखेर देता है 

और तुम उसकी 

गुनगुनाहट से 

अपनी आँखे मलती हुई 

बालकॉनी पे आ जाती हो 

सुबह का सूरज देखने 

ठीक उसी वक़्त 

मै फिर देखूँगा 

चुपके से 

सूरज और चाँद को 

एक साथ उगे हुए 


मुकेश इलाहाबादी --------


Monday, 21 September 2020

महसूसना

 स्त्री

देखना और
महसूसना चाहती थी
पुरुष
छूना और
महसूसना चाहता था
देखने और छूने के बीच
महसूसना पुल न बन सका
स्त्री और पुरुष के बीच
ये खाई
आज भी मौजूद है
मुकेश इलाहाबादी,,,

सूरज हूँ सांझ समंदर में डूब अँधेरा हो जाऊँगा

 सूरज हूँ सांझ समंदर में डूब अँधेरा हो जाऊँगा

देखना एक दिन मै शहर से लापता हो जाऊँगा
तुम्हारा दिल तुम्हारी ज़िंदगी तुम्हारा फैसला
अभी भी तनहा हूँ थोड़ा और तनहा हो जाऊँगा
मिलने का जी चाहेगा तो ढूंढ लेना आसमा में
हजारों तारों में मै भी इक सितारा हो जाऊँगा
मेरी हर साँस में तुम्हारा ही नाम लिक्खा है
मिटा कर हर हरूफ़ खाली पन्ना हो जाऊँगा
अगर रूहानी ईश्क की प्यास रखते हो मुकेश
चले आना तुम्हारे लिए मै झरना हो जाऊँगा
मुकेश इलाहाबादी -------------------------
Subodh Pandey, Archana Chandra and 6 others
2 Comments

Saturday, 19 September 2020

(एक वार्ता लाप पैंतीस साल बाद अचानक अंतरजाल पे )

 

(एक वार्ता लाप पैंतीस साल बाद अचानक अंतरजाल पे )


- तुम, बहुत मोटी हो गयी हो 

- तुम्हारी भी तो तोंद निकल आयी है 

- हूँ पचास का हो गया हूँ , 

  कुछ तो अंतर् आएगा 

- हूँ ! तो मै भी कहाँ बच्ची रही?

  अगले महीने अड़तालीस हो जाएंगे 

- पर लगता तो नहीं तुम्हे देख के , चेहरे पे 

  वही लुनाई वही मासूमियत 

   (मुस्कराहट सामने वाले के चेहरे पे )

- तुम्हे ऐसा लगता होगा, पर उम्र तो हो ही गयी है 

- हूँ , मेनोपोज़ हो गया तुम्हारा ???

- तुम भी न ?? ये भी कोइ बात है पूछने की ?

- अरे यार तो इसमें शर्माना क्या ??

- पैंतीस साल बाद मिले हो - तो यही बात रह गयी है पूछने की ?

-तो और क्या पूछू? हब्बी कैसे हैं ??

 बच्चे कितने है ?

 बच्चे क्या करते हैं ???

 यही न ? अरे ये सब तो अब पूछते पूछाते रहेंगे 

 अच्छा ये बताओ अभी भी तुम लोगों में कुछ होता है ? आपस में ?

प्यार व्यार ??

- तुम कभी नहीं सुधरोगे - मुझे लगा बूढ़ा गए हो तो कुछ ढंग की बात करोगे 

  पर तुम वैसे के वैसे ही हो 

 कुछ ढंग की बात करनी हो तो ठीक वरना मै ऑफ लाइन हो रही हूँ 

 बहुत काम है 

- अरे यार रुको न ???

- नहीं ! अब बाद में 


हरी लाइट ऑफ हो जाती है 


मुकेश इलाहाबादी ---------------

ऐसा भी नहीं तुझसे मिला नही

 ऐसा भी नहीं तुझसे मिला नही

ख्वाबों को मै झूठा कहता नही
जिससे मिलता हूँ तेरी बात करूँ
मेरे पास कोई और किस्सा नही
तुझसे ही तो मेरी साँसे चलती हैं
कैसे कहू दूँ तू मेरा हिस्सा नही
चंपा नहीं चमेली नहीं गुलाब नहीं
गुलशन में कोई फूल तुम सा नहीं
तेरे जाने के बाद ये घर वीराना हैं
सिवाय मुक्कू के कोइ रहता नहीं
मुकेश इलाहाबादी -------------

ज़िंदगी मुस्कुराई कभी - कभी

 ज़िंदगी मुस्कुराई कभी - कभी 

मुझसे मिलने आई कभी कभी 


आफ़ताब दहकता रहा सफर में 

मेरे सिर छाँह आई कभी -कभी  


तीरगी लिए दिए चलता रहा हूँ 

रोशनी झिलमिलाई कभी-कभी 


उदास नज़्म गाती रही ज़िंदगी 

खुशी से गुनगुनाई कभी - कभी 


करवट बदलते बीत जाती है शब 

आँखों में नींद आयी कभी -कभी 


मुकेश इलाहाबादी ---------------

Thursday, 17 September 2020

कुछ लोग सूरज की तरह होते हैं,

 कुछ

लोग सूरज की तरह
होते हैं, जो सुबह होते ही
मुस्कान की सुरमई धूप
बिखेरते हुए निकल पड़ते हैं
एक लम्बी यात्रा में
सड़क, नदी पहाड़
लांघते हुए चककर लगाते हैं
पूरी धरती का आकाश का
अंतरिक्ष का
भर देते हैं अपने सारे जहान को
जीवन ऊर्जा से
शाम थक डूब जाते हैं
एक गुप्प अँधेरे में
सुबह फिर से निकलने के लिए
एक नए सफर के लिए
वहीँ
कुछ लोग
चाँद की तरह होते हैं
जो सूरज के डूबते ही
सज धज के निकलते हैं
एक प्यारी और ठंडी मुस्कान के साथ
और फिर अपने सितारे साथियों के
साथ ठिठोली करते हुए
रात भर लुटाते हैं
एक शीतल रोशनी
प्यार की
और एक ठंडी ऊर्जा से
रात भर अपनी
मुस्कान बिखेर के
सूरज के निकलने के पहले - पहले
छुप जाते हैं
दिन के आँचल में
शाम तक के लिए
टाटा - बाय बॉय करते हुए
साँझ फिर से निकलने के लिए
पर सच तो ये है
हर इंसान के अंदर
एक सूरज और एक चाँद
रहता है
जो उसे हर दम दौड़ाए रखता है
मौत आने तक
मुकेश इलाहाबादी ---------------

मेरे साथ पूरी क़ायनात मुस्कुराती है

 मेरे साथ पूरी क़ायनात मुस्कुराती है

जब तू आ के मुझसे लिपट जाती है
तेरी ये नीमजदा आँखे चूमता हूँ तो
बादल हँसता है और नदी शर्माती है
इधर उड़ता परिंदा मुंडेर पे आता है
उधर बुलबुल पंचम सुर में गाती है
पहाड़ के सीने में एक नीली झील है
रात चाँद के साथ खिलखिलाती है
तू गुपचुप गुपचुप रहती है तो क्या
तेरी ये आँखे तो मुझसे बतियाती हैं
मुकेश इलाहाबादी -----------------

दिन खरगोश सा भागता है

 -1 -

दिन
खरगोश सा भागता है
रात
कछुए सा रेंगती है
अहर्निश
रहता हूँ "मै "
एक दौड़ में
-2 -
सुबह
सुबह सूरज
उग आता है सिर पे
साँझ
चाँद खिल उठता है
ख्वाबों में
अहर्निश
चक्कर लगाता हूँ
जाने किस सौर मंडल का
हिस्सा हूँ मै ??/
मुकेश इलाहाबादी ----------
Ranjana Shukla, Preety Sriwastawa and 31 others
9 Comments
Like
Comment
Share

वो घर में तो होती पर घर में नहीं रहती

 अक्सर

वो घर में तो होती
पर घर में नहीं रहती
अकेले होते ही
वो चिड़िया बन जाती है
और खिड़की से उड़ के
बादलों को चूम आती है
नीम पे बैठी कोयल के संग
अलाप ले आती है
या फिर
पेड़ के जड़ से फुनगी तक
चुकुर - चुकुर करती
रोयें दार पीठ वाली गिलहरी से
गुपचुप - गुपचुप कर आती है
और कई बार
उड़ती - उड़ती
राह चलती काम वाली से
सुक्खम - दुक्खम कर आती है
ठेले वाले से मोल तोल कर
डेढ़ की चीज़ एक में ले के
बच्चों सा खुश हो लेती है
कई बार मैंने उसे
सूरज के पीछे छुपे चाँद की
तलाश में भी दूर तक उड़ते हुए देखा है
पर वो हर बार निराश हो के
लौट आती है
और थक कर
चिड़िया से फिर
कुछ कुछ उदास
कुछ कुछ खुश
कुछ कुछ शांत
कुछ कुछ अशांत
औरत बन जाती है
सांझ का धुंधलका होने के
ठीक ठीक पहले
मुकेश इलाहाबादी ------

प्रेम कविताएं

 -1-

उसने
लिखी
उम्र भर
प्रेम कविताएं
पर अंत मे
वो मारा गया
एक युद्ध मे
-2-
सैनिक
होने के नाते
वो करता रहा
युद्ध उम्र भर
पर लिखता रहा
प्रेम कविताएं
मरने के ठीक पहले तक
- 3 -
उसने कहा
जब
तक लिखी जाती रहेंगी
प्रेम कविताएं
तब तक
इंसानियत
मर नहीं सकती
मुकेश इलाहाबादी,,,

अब लोग दर्द में / दुःख में रोते नहीं

 यहाँ 

अब लोग 

दर्द में / दुःख में 

रोते नहीं 

पहले की तरह 

बुक्का फाड़ - फाड़ के 

जोर - जोर से 

हिचकियाँ बंधने तक 

या कि बेहोश होने तक 

शायद 

ये लो रोना भूल गए हैं 

या फिर

इनके आँसू सूख के 

नमक के धेले बन गए हैं 

और नमक के धेले बहते नहीं 


यहाँ के लोग 

ऐसा नहीं रोना ही भूले हों 

ये हँसना भी भूल गए हैं 

पहले की तरह अब 

चैला फाड़ या 

बेलौस हँसी नहीं सुनाई देती 

महफ़िलों में 

बैठकों में 

कहवा घरों में 


क्या कोई देव दूत 

इन मासूम लोगों की 

हँसी और रुलाई फिर से 

वापस ला पायेगा ???


या फिर ये मर खप जायेंगे 

यूँ ही 

बिना रोये 

बिना हँसे 

बिना मुस्कुराए 


एक मुर्दा उदासी के साथ 


मुकेश इलाहाबादी -------------





विकल्प

 -1-


एक 

लम्बी 

बहुत लम्बाई लिए 

हुए उदास रास्ता  

जिसके दोनों ओर 

यादों के 

ऊंचे - ऊंचे 

चिनार और देवदार के 

दरख्तों के बीच 

खामोशी की चादर 

ओढ़े चल रहा हूँ 

एक अर्से से 

थक कर 

चूर हो जाने

तक के लिए 


-2-


मेरे 

पास दो ही रास्ते हैं 

एक जो 

तुम्हारी तरफ जाता है 

एक जो तुम्हारी तरफ नहीं जाता

पहले वाले की तरफ 

मै आ नहीं सकता 

दुसरे रास्ते पे 

मै नहीं जाना चाहता 

लिहाज़ा मेरे पास 

एक ही विकल्प बचता है 


अपने ही दर पे 

खड़े रहना 

अनंत काल तक 


या फिर तनहाई के रस्ते पे 

चलते रहना 

अनवरत 


मुकेश इलाहाबादी ----------------




Thursday, 10 September 2020

एक नायाब कलाकार

 वह

एक नायाब कलाकार था,

उसकी बनाई कुर्शी की घूम पूरे कबीले में थी,

हर नया ओहदेदार उसकी बनाई कुर्शी पे बैठना चाहता था। 

वज़ह, 

वह कुर्शी  ओहदे और ओहदेदार को देख के गढ़ता था। 

जिससे उस कुर्शी पे बैठते ही ओहदेदार को अलग सी अनुभूति होती 

वो एक नई ऊर्जा, स्फूर्ति , उत्साह से लबालब हो जाता।

और नए ओहदेदार के व्यक्तित्व में भी चार चाँद लग जाते थे। 

एक बार तो कबीले के राजा ने खुश हो के उसे काफी बड़ी बख्शीश भी दी थी। 

लेकिन -

एक दिन कबीले के लोगों को घोर आश्चर्य और दुःख तब हुआ। 

जब कबीले वालों को वो हुनर मंद और नायब कलाकार 

अपने ही कारखाने में हज़ारों बनी अधबनी कुर्शियों के बीच मरा पाया । 

उसके हाथ में एक हस्तलिखित परचा था। 

"मै मरा नहीं हूँ, दरअसल मैंने जितनी भी कुर्सियां बनाई उन सब पे बैठने के कुछ दिनों बाद ओहदेदार

अहंकारी , निरंकुश और 

स्वेच्छा चारी होता आया है, लिहाज़ा मै ऐसी कुर्शी बनाना चाहता था,

जिसमे सत्य अहिंसा  त्याग कर्तव्यनिष्ठा  न्यायप्रियता 

समानता की कीलें और लकड़ियाँ ठुंकी हो और प्रेम स्नेह की कशीदाकारी हो, पर मै ये कर न सका। 

लिहाजा,

मै ईश्वर के पास शिकायत और अर्ज़ ले के जा रहा हूँ ,कि मेरे अंदर ऐसा हुनर क्यूँ  यही बख्शा -

और अगर नहीं बख्शा तो अगली बार मुझे ये हुनर दे कर ही भेजना,

ताकि मै एक ऐसी कुर्शी बना सकूं।  जिसपे बैठ के इंसान इंसान ही रहे 

कुर्शी की तरह जड़ न हो जाए - अहंकारी और खुदगर्ज़ न हो जाए - 


मुझे विस्वास है मै एक दिन ईश्वर से ये हुनर ले कर ही लौटूंगा। 


तब तक के लिए अलविदा दोस्तों" 


मुकेश इलाहाबादी -----------------------


Wednesday, 9 September 2020

डाल से लेकर टहनी तक हरा न था

 डाल से लेकर टहनी तक हरा न था 

पेड़ के जिस्म पे एक भी पत्ता न था 


अब न फल आते हैं न परिंदे आते हैं 

बूढा शजर हमेशा से तो ऐसा न था 


वो बंद गली का आखिरी मकान था 

लौट आने के सिवा कोइ चारा न था 


उसे खत लिखता भी तो लौट आता 

पास मेरे उसके घर का पता न था 


मैंने तो मासूमियत देख दोस्ती की 

वो इतना चालबाज होगा पता न था 


मुकेश इलाहाबादी ----------------




Tuesday, 8 September 2020

मेरे साथ पूरी क़ायनात मुस्कुराती है

मेरे साथ पूरी क़ायनात मुस्कुराती है 

जब तू आ के मुझसे लिपट जाती है 


तेरी ये नीमजदा आँखे चूमता हूँ तो 

बादल हँसता है और नदी शर्माती है 


इधर उड़ता परिंदा मुंडेर पे आता है 

उधर बुलबुल पंचम सुर में गाती है 


पहाड़ के सीने में एक नीली झील है 

रात चाँद के साथ खिलखिलाती है 


तू गुपचुप गुपचुप रहती है तो क्या 

तेरी ये आँखे तो मुझसे बतियाती हैं 


मुकेश इलाहाबादी -----------------

Monday, 7 September 2020

तुम्हारे चेहरे पे एक खुशी मिश्रित मुस्कराहट

 तुम्हारे

चेहरे पे एक
खुशी मिश्रित मुस्कराहट
देख रहा हूँ
इसकी वजह मुझे मालूम है,,
पर मैं नहीं पूछूंगा
तुम
आज कल किसी के
आकर्षण मे हो
मुझे मालूम है
पर मैं नहीं पूछूँगा
क्यूँ कि
मुझे तुम्हारे चेहरे पे
मुस्कराहट देखने की
चाह है
क्यूँ कि
मैं तुम्हें प्रेम करता हूँ
मुकेश इलाहाबादी,,,

रात मेरी हथेलियों पे दो उजले उजले बादल उतर आए

 रात

मेरी हथेलियों पे
दो उजले उजले बादल
उतर आए
जिन्हें पाकर मैं बहुत खुश था, बादल भी
उजले उजले बादल
मेरी मुट्ठी मे बरसने लगे
मैं भीगने लगा
बादल - बरस के अब
आसमान मे इंद्र धनुष
बन चमक रहे हैं
और मैं
उन उजले - उजले
बादलों को
हाथ हिला के
अभिवादन कर रहा हूं
मुकेश इलाहाबादी,,,,,

कुछ लोग सूरज की तरह होते हैं

 कुछ

लोग सूरज की तरह
होते हैं, जो सुबह होते ही
मुस्कान की सुरमई धूप
बिखेरते हुए निकल पड़ते हैं
एक लम्बी यात्रा में
सड़क, नदी पहाड़
लांघते हुए चककर लगाते हैं
पूरी धरती का आकाश का
अंतरिक्ष का
भर देते हैं अपने सारे जहान को
जीवन ऊर्जा से
शाम थक डूब जाते हैं
एक गुप्प अँधेरे में
सुबह फिर से निकलने के लिए
एक नए सफर के लिए
वहीँ
कुछ लोग
चाँद की तरह होते हैं
जो सूरज के डूबते ही
सज धज के निकलते हैं
एक प्यारी और ठंडी मुस्कान के साथ
और फिर अपने सितारे साथियों के
साथ ठिठोली करते हुए
रात भर लुटाते हैं
एक शीतल रोशनी
प्यार की
और एक ठंडी ऊर्जा से
रात भर अपनी
मुस्कान बिखेर के
सूरज के निकलने के पहले - पहले
छुप जाते हैं
दिन के आँचल में
शाम तक के लिए
टाटा - बाय बॉय करते हुए
साँझ फिर से निकलने के लिए
पर सच तो ये है
हर इंसान के अंदर
एक सूरज और एक चाँद
रहता है
जो उसे हर दम दौड़ाए रखता है
मौत आने तक
मुकेश इलाहाबादी -------------