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Sunday, 31 January 2016

यूँ बेवज़ह फिरा न करो

यूँ  बेवज़ह फिरा न करो
सबसे तुम मिला न करो
लोग मसल देंगे, तुमको
फूल सा यूँ खिला न करो
इस राह में बहुत कांटे हैं
यूँ नंगे पाँव चला न करो
बेवज़ह बदनाम कर देंगे
बात बेबात हंसा न करो
बातोँ का जादूगर है, तुम  
मुकेश से मिला न करो

मुकेश इलाहाबादी --------

Friday, 29 January 2016

रेगिस्तान


सुमी,
तुमने कभी रेगिस्तान देखा है ?
रेत ही रेत।
रेत के सिवा कुछ भी नही।
रेत, समझती हो न ?
पत्थर, जो कभी चटटान की तरह खडा रहता है, सदियों सदियों तक, पर धीरे धीरे आफताब की तपिश और बारिश व तूफान से टूट - टूट कर रेजा - रेजा होकर बिखर जाता है। तब वही पत्थर रेत का ढेर कहलाता है, और जब पूरा का पूरा पहाड़ रेजा - रेजा बिखर जाता है, तो वह रेगिस्तान कहलाता है।

उसी रेगिस्तान को कभी गौर से देखना, जो दिन में आग सा दहकता और रात में बर्फ सा ठंड़ा होता है। जिसके सीने पर मीलों तक सन्नाटा पसरा रहता है, मौत सा गहरा सन्नाटा। जिसमें साथ देने के लिये पहाड़ों कि तरह चीड़ व चिनार के दरख्त नही होते। खूबसूरत लहलहाते फूल के गुच्छे नही होते। दिल की गहराइयों तक उतर जाने वाले ठंडे़ पानी के चष्में नही होते। झील व कलकल करती नदियां नही होती।
वहां जंगल में नाचने वाले मोर और कूकने वाली कोयल भी नही होती।
शेर व चीता जैसे चिंघाड़ने वाले जानवर भी नही होते। यहां तक कि मासूस शावक व फुदकती हुयी गिलहरी भी नही होती।
और ,,,,,, न ही होती है मीलों तक एक के पीछे एक कतार से चलने वाली चींटियां।

ऐसा ही एक रेगिस्तान मेरे अंदर भी फैेला है। जिसमें हरियाली के नाम पर छोटी - छोटी अपने आप उग आने वाली कंटीली झाड़ियां है या फिर अक्सर और दूर दूर पर दो दो चार चार की संख्या में खुरदुरे तने वाले ताड़ या कहो खजूर के पेड़ होते है। जिनकी जड़ों में पानी देने के लिये कोई नहर या झरना नही बहता। खाद व पानी देने के लिये कोई इंसान नही होता। फिर भी ये शान से और पूरी अलमस्ती से खड़े रहते है। बिना किसी शिकवा शिकायत के अपने उपर नुकीली पत्तियों का छाता सा लगाये।
जानती हो। एसे बीराने मरुस्थल में ये दरख्त कैसे जिंदा रहते हैं।
तो सुनो !
जब कभी कोई बदरिया अपने ऑचल के सारे जल को किसी पहाड़ या तराई पे बरसा के या कहो लुटा के फिर से सागर की ओर जा रही होती है। और उसका रहा सहा जलकण सूरज भी सूख चुका होता है। उसी छूंछे बादलों से ये पेड़ सूरज की रोशनी से ही कुछ जल चुरा लेते हैं। और फिर शान से जिंदा ही नही रहते बल्कि अपने अंदर भी मीठा - मीठा जीवन रस पैदा करते और संजोते रहते हैं।
यही रस रात भर ऑसू की तरह बहते रहते हैं, चुपके चुपके धीरे धीरे ताकि किसी को एहसास न ही उनकी बीरानी का उनकी तंहाई का। लेकिन जमाने वाले उसे भी हंड़िया में बूंद - बूंद भर लेते हैं, और सुबह पीते हैं जिसे ताड़ी कहते हैं। और जानती हो ? उस ताड़ी में हल्का - हल्का मीठा - मीठा सा नशा  होता है। जो धूप चढ़ने के साथ साथ और भी ज्यादा बढ़ता जाता है। इसके अलावा ये दरख्त उसी जल कणों से खजूर जैसे मीठे फल भी उगा लेते हैं। ये सीधे पर थोडे़ से तिरछे खड़े होकर किसी थके व तपे मुसाफिर को घनी छांह भले न दे पाते हों पर वे ताड़ी जैसा नषीला पेय और खजूर सा मीठा अम्रततुल्य फल जरुर देते हैं जो इस रेगिस्तान के मुसाफिरों के लिये वरदान है।
बस इसी तरह मै भी अपनी महबूबा और चाहने वालों से दूर चाहे कितनी दूर रहूं। पर उनकी यादों और फोन कॉलों से प्रेमरस खींचता रहता हूं और जिंदा रहता हूं।
लिहाजा मेरी बातों को ताड़ी और कविताओं को खजूर जानो।
बाकी तो एक पहाड़ हूं जो टूट - टूट कर रेजा - रेजा बिखर चुका है किसी रेगिस्तान की तरह।

मुकेश इलाहबदी --------------------------------------

Thursday, 28 January 2016

तुम जहाँ कहीं भी हो,

जब,
रिश्तों के
ताने बाने बिखर हों
ज़िंदगी
महज़ तनहाई
और सुबहो शाम की
आवारगी रह गयी हो
आफ़ताब
दूर कहीं उफ़ुक पे
मुँह छुपा
सिसक रहा हो
ऐसे वक़्त मे
मेरी अंजुरी में
इक चाँद उगा
जिसमे
चंदन की खुशबू
और रूहानी ठंडक थी
जिसे पाकर मै
बहुत खुश था
चाँद भी मेरी अंजुरी में
खुश था
मै अंजुरी संभाले संभाले
ज़ीस्त के ऊबड़ खाबड़ रास्ते में
चला जा रहा था
चला जा रहा था
न जाने कब
दहकते आसमान से
एक बाज ने झपट्टा मारा
और मेरी हथेली से
मेरे चाँद को ले कर
उड़ गया
दूर गगन में न जाने कहाँ
तब से भटक रहा हूँ
इस बियाबान में
अपने चाँद के लिए

( सुमी , तुम जहाँ कहीं भी हो,
खबर करना, मै तुम्हे उस बाज़
के पंजो से छुड़ाने आऊंगा ज़रूर
ज़रूर - एक दिन, सुन रही हो न मेरे सुमी )

मुकेश इलाहबदी -------------------------

काश कोई सन्नाटा बाँट लेता

काश कोई सन्नाटा बाँट लेता
मेरा दर्द मेरा दुखड़ा बाँट लेता

कुछ देर को  हंस लेता मै  भी
एक  आध लतीफा  बाँट लेता

कब से अँधेरे मे बैठा हूँ, काश
कोई,ये घना अँधेरा बाँट लेता

इंसां के बस में नहीं था वरना
चाँद - तारे आसमा बाँट लेता

ज़माने में कोई भूखा न रहता
गर इंसान निवाला बाँट लेता

सिर्फ इक मसीहा था, मुकेश
वो अकेला क्या -२ बाँट लेता

मुकेश इलाहाबादी -------------

'सूफ़िया'

जब, रिश्तों के ताने बाने बिखर रहे हों ज़िंदगी महज़ भाग दौड़ रह गयी हो आफ़ताब दूर कहीं उफ़ुक पे मुँह छुपा सिसक रहा हो ऐसे वक़्त में भी कुछ लोग दिए सा जल कर दूसरों के लिए आफ़ताब बनते हैं खुद फूल सा खिलते हैं खुशबू बांटते हैं ऐसी ही एक खुशबू एक आफताब जिसमे सूरज सी रोशनी और चाँद सी रूहानी ठंडक और ख़ूबसूरती है जिसे ज़माना 'सूफ़िया' कहता है जिसका नाम ही नहीं तबियत भी 'सूफ़ियाना ' है अभिनय और मॉडलिंग में आसमान छुआ है आज उसी का जन्म दिन ज़माना मना रहा है ऐसे प्यारे दोस्त को जन्म दिन की ढेरों ' शुभकामनाएँ ' ढेरों बधाइयाँ खुदा करे हमारा ये दोस्त ये गौरव सालों साल जब तक कि ये फ़लक पे महफूज़ हैं ज़मीन अपनी धूरी पे नाच रही है तब तक इस दोस्त की सूफ़िया की हंसी क़ायम रहे वे सदा ज़माने को अपने कामो से अपनी मुहब्बत से रौशन करती रहें - ढेरों ढेरों ढेरों बधाइयाँ - शुभकामनाएँ राजीव श्रीवास्तव -----------------------

Wednesday, 27 January 2016

जब तक मै रहूंगा ‘आदम’ और तुम ‘ईव’

सुमी,
ये तो सच है
जब तक मै रहूंगा ‘आदम’
और तुम ‘ईव’
तब तक हम खाते रहेंगे ‘सेब’
भोगते रहेंगे नर्क
इससे तो बेहतर है
मै बन जाउं जंगल
घना ओर बियाबान
तुम बहो उसमे
नदी सा हौले - हौले
या फिर मै
टंग जाउं आसमान मे
चॉद सा
और तुम बनो
मीठे पानी की झील
सांझ होते ही मै
उतर आउं जिसमे
चुपके से,
सुबह होते ही फिर
टंग जाउूं आसमान मे
या तो,
ऐसा करते हैं
मै बन जाता हूं आंगन
जिसमे तुम उग आओ
तुलसी बन के
या फिर तुम
बन जाओ
धरती और मै
बन जाउं बादल
और तुझसे मिलने आउं
सावन भादों मे
झम झमा झम झम

मुकेश इलाहाबादी ...



Tuesday, 26 January 2016

नजरिया - अपना अपना

नजरिया - अपना अपना

एक तितली
निगाह में थी
फूल के
वो आयी,
बैठी भी
फिर
उड़ गयी

(तितलियाँ एक फूल पे
कब बैठीं ?)


कली देख
भौंरा खुश हुआ
कई चक्क्र लगाए
कली मुस्कुराई
इठलाई
भौंरे के बैठते ही
खिल के फूल बनी
हवा के संग संग डोलने लगी
अभी वह खुश भी न हो पाई थी
भौंरा उड़ चूका था
एक और
मुस्कुराती कली की और

(भौंरे कब किसे कली या फूल के हुए हैं ?)

मुकेश इलाहबदी ----------

Wednesday, 20 January 2016

नींद घिर आयी आँखों मे

नींद घिर आयी आँखों मे
खाब हुए स्याही आँखों मे
न ढूंढो हीरे मोती, ढूंढ लो 
खारा पानी मेरी आँखों में
पारा  हुआ  काजल हूँ  मै
लगा लो अपनी आँखों में  
घुल जाऊँ नमक बन, जो
सागर है तुम्हारी आखों में
डूब जाने दो मुझको, तुम
इन छलछलाती आँखों में  

मुकेश इलाहाबादी -------

ज़ुल्फ़ों का काँधे पे बिखरना भी खबर बन जाती है

ज़ुल्फ़ों का काँधे पे बिखरना भी खबर बन जाती है
तेरा यूँ रह रह के मुस्कुराना भी खबर बन जाती है
सोच तो मेरे महबूब अंजामे मुलाकात क्या होगा ?
जिस शहर में तेरा सांस लेना भी खबर बन जाती है
मुकेश इलाहाबादी -----------------------------------

तुम आते हो तो आता है वसंत

तुम आते हो तो आता है वसंत
वर्ना जाने कहाँ रहता है वसंत
ढूंढता फिरूँ बागों में  बहारों में
तुम बिन छुपा रहता  है वसंत
कोयल  की  कुहू  मोर की पिऊ
कई कई रागों मे गाता है वसंत
गेंदा, डहलिया और सूरजमुखी
सभी दिशाएँ महकाता है वसंत
देखो तुम रूठ के न जाओ प्रिये
तुम्ही से, मिलने आता है वसंत

मुकेश इलाहाबादी ----------------

Tuesday, 19 January 2016

लड़े जा रहे हैं

लड़े जा रहे हैं
मरे जा रहे हैं

धर्म को ले के
कटे जा रहे हैं

भेड़ की तरह
चले जा रहे हैं

ज़िंदगी है बस    
जिए जा रहे हैं

देख हम क्या?
किये जा रहे हैं

मुकेश इलाहाबादी --

Monday, 18 January 2016

रेत् का जिस्म है बिखर जाऊँगा

रेत् का जिस्म है बिखर जाऊँगा
गर तू छू ले तो,मै संवर जाऊँगा
तू ही मंज़िल  तू  ही रास्ता मेरा
तुमसे बिछड़ के किधर जाऊँगा
तू गुलशन में फूल सा खिला कर
मै, भौंरा  बन  कर उधर आऊंगा
तेरा साथ तेरा लम्स, मेरी साँसें
तुझसे बिछड़ा तो मै मर जाऊँगा
वक़्त तो कह रहा है, चले जाओ
तू कहे तो उम्र भर को ठहर जाऊं

मुकेश इलाहाबादी --------------

Friday, 15 January 2016

जेब में अपना पता


हिदायत
---------
इसके पहले कि,
शहर आप को भूल जाए
या आपका  रास्ता ही
बदल जाए
या कि आप की
स्मृति ही लोप हो जाए
या फिर
आप दंगा
या किसी घटना का
शिकार हो जाएँ
या कि घर और मोहल्ला
आप को भूल जाए
आप अपने जेब में
आप,
अपना पता रख के
घर के बाहर जाएं
भले  ही आप
चश्मा , घड़ी
मोबाइल ,पर्स
घर पे भूल जाएं
पर जेब में अपना
पता ज़रूर ले कर बाहर जाएं

मुकेश इलाहाबादी ---

Thursday, 14 January 2016

तू ज़रा आईना तो देख कमाल हुआ जाता है

तू ज़रा आईना तो देख कमाल हुआ जाता है
तबस्सुम तेरे चेहरे का गुलाब हुआ जाता है
अब तू ख़त लिखे या न लिखे,ग़म नही,तेरा 
ये तबस्सुम ही ख़त का जवाब हुआ जाता है 

मुकेश इलाहाबादी -----------------------------

ज़िंदगी अपनी बरबाद हुई जाती है

ज़िंदगी अपनी बरबाद हुई जाती है
बिन तारों का आकाश हुई  जाती है 
चले आओ, दिन  रहे  मुलाक़ात  हो
साँझ के बाद, अब रात हुई जाती है
पढ़ लो अपने नाम की ग़ज़ल, वर्ना
ज़ीस्त बिन पढ़ी किताब हुई जाती है 
तुम्हारे साथ हक़ीक़त है ज़िन्दगी
वरना  ज़िंदगी ख्वाब हुई जाती है
मुकेश इलाहाबादी -------------------




तू ग़ज़ल है और बहर में तो है

पहलू में न सही नज़र में तो है
मेरी न सही मेरे शहर में तो है

तू खामोश रह, कोई बात नहीं
शुकूं है मेरे संग सफर में तो है

माना समंदर नहीं दरिया नहीं
पर, नाव अपनी नहर में तो है

अनजान राहों में रास्ता भूले ?
बेहतर, तू अपनी डगर में तो हैं

गुमशुदी की ज़िंदगी से अच्छा
तू आज बदनाम खबर में तो है

मुकेश इलाहाबादी -----------

Tuesday, 12 January 2016

सुबह हुई तुम्हारे शहर में, शाम हुई

सुबह हुई तुम्हारे शहर में, शाम हुई
ज़िंदगी तुम्हारे शहर में  तमाम हुई
इक परदे  ने  बचा  रखी थी इज़्ज़त
ज़रा  हवा  चली, इज़्ज़त तमाम हुई
इतने कारखाने, इमारते बन गयी हैं
शहर  में  अब  ताज़ी  हवा हराम हुई
फुर्सत व तसल्ली से तुमसे मिला हूँ
बाकी सभी से सिर्फ दुआ सलाम हुई
ज़िंदगी सिर्फ भाग - दौड़  ही गयी है
मुकेश  रातों  की  नींद  भी हराम हुई  

मुकेश इलाहाबादी --------------------

Monday, 11 January 2016

अबोला

होती है
जब,
हमारे तुम्हारे बीच
अनबन
और पसरा रहता है
अबोला  
बहुत  देर तक
तब,
बतियाती रहती है
मुझसे  
तुम्हरी
चूड़ी की
खन-खन
बर्तन की
ठन  - ठन,
अधिकार
प्यार और
गुस्से से भरी
तुम्हारी खामोशी

मुकेश इलाहाबादी --------

Sunday, 10 January 2016

वह पत्थर की मुर्ती थी।

सुना तो यह गया है, वह पत्थर की देवी थी।  पत्थर की मूर्ति। संगमरमर का तराशा हुआ बदन। एक - एक नैन नक्श, बेहद खूबसूरती से तराशे हुए। मीन जैसी ऑखें ,सुराहीदार गर्दन, सेब से गाल। गुलाब से भी गुलाबी होठ। पतली कमर। बेहद खूबसूरत देह यष्टि। जो भी देखता उस पत्थर की मूरत को देखता ही रह जाता। लोग उस मूरत की तारीफ करते नही अघाते थे। सभी उसकी खूबसूरती के कद्रदान थे। कोई ग़ज़ल लिखता कोई कविता लिखता। मगर इससे क्या। . .. ? वह तो एक मूर्ति भर थी। पत्थर की मूर्ति। 
सुना तो यह भी गया था, कि वह हमेसा से पत्थर की मुर्ति नही थी। बहुत दिनो पहले तक वह भी एक हाड मॉस की स्त्री थी। बिलकुल आम औरतों जैसी। यह अलग बात वह जब हंसती तो फूल झरते। बोलती तो लगता जलतरंग बज उठे हों। चलती तो लगता धरती अपनी लय मे थिरक रही हों।
उसके अंदर भी हाड मासॅ का दिल धडकता था। वह भी अपनी सहेलियों संग सावन मे झूला झूला करती थी। उसके अंदर भी जज्बात हुआ करते थे। वह भी तमाम स्त्रियों सा ख्वाब देखा करती थी।
वह भी सपने मे घोडा और राजकुमार देखा करती ।
और ------  एक दिन उसका यह सपना सच भी हुआ ।
उसके गांव मे एक मुसाफिर आया। बडे बडे बाल, चौडे कंधे। उभरी हुयी पसलियां । आवाज मे जादू , वह उसके सम्मोहन मे आगयी। वह उसके प्रेम मे हो गयी।
अगर पुरुष यानी वह मुसाफिर कहता तो वह। गुडिया बन जाती और उसके लिये कठपुतली सा नाचती रहती। अगर पुरुष कहता तो वह सारंगी बन जाती, सात सुरों मे बजती। अगर पुरुष कह देता तो वह नदी बन जाती, पुरुष उसमे छपक छंइयां करता।
और पुरुष कहता तो वह फूल बन जाती और देर तक महकती रहती। गरज ये की वह पुरुष को परमात्मा मान चुकी थी,खुद को दासी।
पर एक दिन हुआ यूं कि। खेल - खेल मे स्त्री पुरुष के कहने से फूल बनी और पुरुष भौंरा। और तब भौंरे ने उसने फूल को सारा रस ले लिया और फिर खुल गगन मे उड चला न वापस आने के लिये। इधर स्त्री फूल बन के उसका इंतजार ही करती रही।  इंतजार ही करती रही। और जब उसने दोबारा स्त्री बनना चाहा तो वह स्त्री तो बनी पर रस न होने से वह पत्थर की स्त्री बन गयी। और तब से वह पत्थर की ही थी।
मगर  उस पत्थर की मुर्ती मे भी इतना आकर्षण था कि जो भी देखता मंत्रमुग्ध हो जाता। जो भी देखता उसे देखता रहा जाता। लोग उसे देखने के लिये दूर दूर से आते, देखते और तारीफ करते।
और एक दिन दूर देश के एक कला परखी ने जब उस पत्थर की स्त्री के बारे मे सुना तो उससे रहा न गया।
उस कला के पारखी ने उसे देखने की ठानी। उसने अपने घोड़े की जीन कसी।  अपनी पीठ पे अपनी असबाब बांधे और चल दिया उस पत्थर की देवी को देखने । उस कद्रदान ने तमाम नदी नाले पार किये। तमाम शहर , कस्बों और जंगलात से गुजरा और पता लगाते-  लगाते एक दिन उस पत्थर की मूर्ति  के गांव पहुच ही गया।
उस कला के कद्रदान ने जब उसे देखा तो देखता ही रह गया उस पत्थर की स्त्री को।उसकी आँखें फटी की फटी रह गयीं। कद्रदान उसे जितना देखता उठी ही उसकी इच्छा बलवती होती जाती और वह उसे देखता रहता देखता रहता।  देखते देखते क़द्रदान को उस पत्थर के मूर्ति से प्यार हो गया वह  प्रेम मे पड गया, बुरी तरह से, वह उसकी अभ्यर्थना करने लगा। पर इससे उस स्त्री पे क्या फर्क पडना था। वह तो पत्थर की थी।
लोग उस कद्रदान पे हंसते, उसे पागल कहते , फब्तियाँ कसते कहते अरे कभी कोई पत्थर की मूर्ति ने भी किसी से प्रेम किया है ? पर, वह कददान तो जैसे उस पत्थर की देवी के लिए पागल हो गया था । वह दिन रात उस मूर्ती की पूजा करता अर्भ्यथना करता उसके सामने गिडगिडाता। उससे प्रेम की भीख मांगता, उसके लिये कविता लिखता चित्र बनाता गीत गाता। पूजा करता। और कभी कभी तो उसके कदमो पे सिर रखकर खूब और खूब रोता।
और यह सिलसिला दिनो नही सालों साल चलता रहा।
आखिर उस कद्रदान का प्रेम रंगलाया। पत्थर की मूर्ति जीती जागती स्त्री में तब्दील हो गयी थी।
यह देख कर वह कद्रदान बहुत खुश हुआ, स्त्री भी एक बार फिर खुश हुई।
वह एक बार फिर कठपुतली बनी, सारंगी बनी नदी बनी फूल बनी अपने इस नए क़द्रदान के लिए।  और एक दिन फिर वह फूल बनी।  जिसे   कद्रदान सूंघ सकता था। अपने हथेलियेां के बीच ले के महसूस कर सकता था। उसकी कोमलता को , उसकी ख़ूबसूरती को।  
जिसे वह कद्रदान अपनी हथेलियों के बीच  आहिस्ता से लेकर उसकी महक को अपने नथूनों मे भर के खुश हो रहा था। अब वह खुशी से झूम रहा था नाच रहा था। हंस रहा था मुस्कुरा रहा था। वह मुर्ति भी उसके हाथों फूल सा खिल के महक के खुश थी। पर वह अपनी खुषी मे पागल कद्रदान यह भूल गया कि अगर उसने अपने अंजुरी को मुठठी मे तब्दील कर लिया या जोर से बंद किया तो फूल की पंखडियां बिखर जायेंगी आैंर फिर फूल फूल न रह जायेगा। पर उस कद्रदान ने ऐसा ही किया। नतीजा। फूल की पंखडियां हथेली मे बहुत ज्यादा मसले जाने से टूट गयीं और बिखर गयीं। अब वह फूल फल न रहा। एक सुगंध भर रहा गयी।
कद्रदान को जब होष आया तब तक बहुत देर हो चुकी थी। उसके सामने अब न तो वह पत्थर की मुर्ति थी और न उसकी अंजुरी मे फूल थे जो उस मुर्ती के तब्दील होने से बने थे।

कहानी यहीं समाप्त हो जाती है।
पर कहने वाले यह कहते हैं कि। वह कद्रदान आज भी।फूलों की उस खूबसूरत वादी की पहाड़ी चटटानों पे सिर पटकता है और जोर - जोर रोता हुआ भटकता हैं कि शायद  उस खूबसूरत सुगंध वाला फूल या यूं कहो की वह स्त्री जो पत्थर की मूर्ति थी। जो उससे नाराज हो के फिर से पत्थर बन गयी है एक दिन फिर मूर्ति बनेगी और फिर उसके प्रेम से फूल बन के खिलेगी।
पर इस बार वह अपनी अंजुरी को कस के नही भींचेगा । पंखुरियों को नही बिखरने देगा।


मुकेश इलाहाबादी -------------------

Thursday, 7 January 2016

दूर बहुत दूर तक देखती हुई आँखें

दूर बहुत दूर  तक देखती हुई आँखें
हर वक़्त तुमको खोजती हुई आँखें

सारा ज़माना कहता है,मै नशे में हूँ
उन्हें क्या पता दर्द में डूबी हुई आँखें

दरिया ऐ ईश्क बहा करता था जहाँ
फक़त रेत् ही रेत् की नदी हुई आँखें

जिस्म बुत में तब्दील हो गया,और
ज़माना देख कैसे पथरीली हुई आँखें

जाओ, सब को बता दो दुनिया वालों
ये हैं सिर्फ तुमको सोचती हुई आँखें

जहां कहीं भी हो वहीें से देख मुकेश
यारके इंतज़ार में लरज़ती हुई आँखें

मुकेश इलाहाबादी -----------------

दरअसल जब औरत


एक
---------

दरअसल
जब
औरत
घिस घिस कर
चमका रही होती है
बर्तन
तब
दरअसल
वह खुद को घिसकर
चमका रही होती है
बर्तन को

दो
--------

दरअसल
जब
औरत
झाड़ू से
बुहारती रही होती है 
घर के सारे
कमरे, बरामदे
छत, और दीवारें
और झाड़न ले कर
निकलती है
कोने अतरे के जालों को
तब वह सिर्फ
घर के जाले और
कूड़े नहीं बुहार रही होती है
वह इनके साथ
घर के दुःख दलिद्दर
को भी बुहार रही होती है

मुकेश इलाहबदी ---------

Wednesday, 6 January 2016

कुछ देर चुप रहें और सुने

आओ
कुछ देर
चुप रहें
और सुने
उन शब्दों को
जिसे कहा है
तुम्हारी खामोशी ने
मेरे मौन से

महसूसें
उस
सात्विक स्पर्श को
जो परे है
वासना से
स्त्री - पुरुष के भेद से
पाप -पुण्य से
घृणा और द्वेष से

और कुछ देर
हो जाएं 'हम'
मैं और तुम से
परे हो के 

आओ कुछ देर .....

मुकेश इलाहाबादी -----

अभी भी तुम बची हो

अभी भी
तुम बची हो
डायरी के
पीले पड़ते पन्नो में
पूरा का पूरा

बची है
अभी भी
तुम्हरी खुशबू
पूरी की पूरी
डायरी के पन्नो
के बीच रखे
सूखे गुलाब में


अभी भी बची हो
तुम
पूरा का पूरा
मेरे ज़ेहन में

और बची रहोगी
जब तक कि
बचा हूँ - मै

मेरे दोस्त

मुकेश इलाहाबादी --

गलतफहमी की नागफनी

सम्बन्धो की
सोंधी और नर्म
ज़मीन पे
गलतफहमी की
नागफनी
उगे और उग कर
उसके,
कोमल तन बदन
को छलनी करे
इसके लिए 
वह
खिलखिलाना चाह कर भी
मुस्कुरा के रह जाती है
और मुस्कुराने के वक़्त
सिर झुका के
खामोशी से
गुज़र जाती है
उस खूबसूरत पल से
दूर बहुत दूर 

मुकेश इलाहाबादी --
सपने,
न होते तो
तुमसे
मिलना भी न होता

मुकेश इलाहाबादी ---

छत पे सुहब -शाम न टहला करो


छत पे सुहब -शाम न टहला  करो
अपने बालों को न यूँ  बिखेरा करो
चैन उड़ जाता है ज़माने वालों का
इस अदा से तो न मुस्कुराया करो
रोज़ रोज़ कहते हो पर आते नहीं
अगर वादा करते हो,निभाया करो
पिघल जाऊंगा मोम का जिस्म है
आतिशे हिज़्र में न झुलसाया  करो 
सुना है अकेले में तुम गुनगुनाते हो
कभी तो  हमारी  ग़ज़ल गाया करो

मुकेश इलाहाबादी -------------------

Tuesday, 5 January 2016

खामोश दरिया बहता है

ये जो
खामोश दरिया बहता है
अपने दरम्यां
उसपे 
कोई पुल
बने भी तो कैसे
क्यूँ कि
तुम इशारा नहीं समझते
और मै
कहना नहीं जानता

मुकेश इलाहाबादी ----

Monday, 4 January 2016

इन दिनो

इन दिनो
कुछ भी
हो सकता है ?
धरती हिल सकती है
आसमान फट सकता है
पहाड गिर सकता है
यहां तक कि
सूरज के घर
अंधेरा भी हो सकता है।

इन दिनो
दाल सब्जी
और घास फूस के दाम
आसमान छू सकते हैं
और जनता को इसे
आर्थिक विकास का
सामान्य नियम
या अंर्तराष्ट्रीय समस्या
कह के समझाया जा सकता है

इन दिनो
कहीं भी कभी भी
दंगा हो सकता है
या फिर इन दिनो 
कोई भी फसादी अबदादी
मजहब के नाम मे
दुनिया हिला सकता है

इन दिनो
कोई भी साधू महात्मा
या प्रवचन देने वाला पाखंडी
हो सकता है
कोई भी नेता, अफसर और व्यापारी
भ्रष्टाचार मे लिप्त पाया जा सकता है
इन दिनो

इन दिनो
होने को कुछ भी
हो सकता है
इन दिनो ये भी
हो सकता है
आप घर से निकलें
और बम फट जाये और
फिर आप वापस घर न जा पायें
बेटी घर से निकले
और बलात्कार का शिकार हो जाये

इस लिये बेहतर यही है
इन दिनो
घर पे बैठा जाये
चाय की चुस्कियों के साथ
चैनल बदल बदल के न्यूज देखा जाये
और आज के हालात पे चर्चा किया जाये

क्योंकी इन दिनो कहीं भी कुछ भी हो सकता है


इन दिनो
आदमी चॉद पे जा रहा है
कल मंगल पे जा रहा  है
ब्रम्हाण्ड का का सिर
फोडने के तैयारी कर रहा है
इन दिनो आदमी
विकास कर रहा है
इन दिनो
आदमी आदमी को खा रहा है
इन दिनो

इन दिनो
वक्त कर रहा है वार
चाबुक से पीठ पे
और मै सह रहा हूं चुपचाप
इन दिनो

इन दिनो
हर कोई चिल्ला रहा है
भाग रहा है
दौड रहा है
बेतहासा इन दिनो

सांवली कजरारी रात थी


तुमसे
मुलाकत की
वो सांवली कजरारी रात थी
जब तुम 
किसी बात पे
खिलखिला के हँसी थी
और
झर झर झरे थे
हरश्रृंगार,
टोकरा भर के
जिन्हे मैंने
अपनी अंजुरी में समेट
उछाल दिया था
अनंत आकाश में
और यह आकाश
सुरमई और सुर्ख
जिसमे
उग आये थे तमाम
चमकते सितारे
और ,,,,  उनके बीच एक चाँद
जो मेरी मुठ्ठी में था उस रात
मुस्कुराता हुआ
महकता हुआ
हरश्रृंगार की तरह

(सुमी , याद है न तुम्हे ये सब - सच सच बताना )

मुकेश इलाहाबादी -------------------------------

मुकेश इलाहाबादी ------

Friday, 1 January 2016

भले फासला बना के चलो


भले फासला बना के चलो
पर तुम साथ हमारे चलो

स्याह रात, रास्ता तवील
वक़्त कटे,गीत गाते चलो

इतनी चुप्पी अच्छी नहीं
किस्सा कोई सुनाते चलो

पहाड़, जंगल या खाई हो
रास्ता नया बनाते  चलो 

देखो ! महताब छुप गया
नक़ाब तुम उठा के चलो

मुकेश इलाहाबादी ------

सुबह की धूप गुनगुनी लगी


सुबह की धूप  गुनगुनी लगी
सूरज तेरी ये अदा भली लगी
फ़लक पे बाज उड़ता देख कर
फ़ाख्ता बेचारी डरी डरी लगी
टके सेर खाजा टेक शेर भाजी
तेरी नगरी अंधेर नगरी लगी
अपने पाप जा के कहाँ धोऊँ?
राम तेरी गंगा भी मैली लगी
चाँद सा चेहरा और खुले गेसू
मुझे तुम्हारी सूरत भली लगी
मुकेश इलाहाबादी -------------

तुमसे बेहतर मिला नहीं

तुमसे बेहतर मिला नहीं
मैंने भी कहीं तलाशा नहीं

मै भी तो चुप ही रहा और
तुमने भी कुछ कहा  नहीं

मैंने सोचा एक ख़त लिखूं
कुछ सोच कर लिखा नहीं

ग़ज़ल औ नग्मों के सिवा 
मेरे पास कोई तोहफा नहीं

एक बार मिल कर देखो तो
मै  शख्श  इतना बुरा नहीं

मुकेश इलाहाबादी ----------