ये सच है - तुम जितना तफसील से और शिद्दत से मेरे बारे में सोचती हो शायद मै उतना नहीं सोच पाता ऑफिस की आपा धापी में या कि दोस्तों की महफ़िल में कहकहे लगाते हुए, पर ये ज़रूर है जब कभी मौक़ा मिलता है कुछ भी सोचने का चाहे वो ऑफिस जाते वक़्त का हो या कि रात के खाना खाने के बाद तफसील से सिगरते पीने का वक़्त हो या कि सुबह शेविंग करने का वक़्त हो तब तुम आस पास फ़ैली धुप सा या की, खुशबू सा या की हवा सा या की एक कोमल एहसास सा ज़ेहन में उतर आती हो और मुझे कभी उदास हो के तो कभी झटके से तुम्हारे ख्यालों से निकल के रोज़ मर्रा के कामो में लगा जाना पड़ता है सच - मै तुम्हे तुम्हारी तरह शिद्दत से याद नहीं कर पाता इस बात का गुनाहगार हूँ
दर्द मीठा मीठा जगाए रखते हैं, तेरे दिए ज़ख्म भी हसीन रहते हैं जब जब भी हम कांटो सा उगते हैं आप भी फूलों सा खिला करते हैं मुकेश इलाहाबादी ---------------
हया उसकी चुनरी, हया उसका जोबन, हया उसकी आबरू इशारा के सिवा वो कैसे कह देती ?'उसे तुमसे मुहब्ब्हत है मुकेश इलाहाबादी -----------------------------------------------
पहले जी भर के लूटते हैं, फिर उदासी का शबब पूछते हैं न इज्ज़त, न दौलत महफूज़ गली गली लुटेरे घूमते हैं मैखाना बन गया है शहर हर तरफ रिंद झूमते हैं खिलने के पहले ही भौरे कलियों का मुह चूमते हैं
दूर छितिज़ में देखता हूँ रोज़ कई सितारे टूटते हैं मुकेश इलाहाबादी --------------
फलक पे ये जो कहकशां है ? सितारों ने मिल के बनाया है हार है खूबसूरत सा,पहन लो अच्छी लगोगी -------- खिला है चाँद देखो, गोल बिंदी सा सजा लो माथे पे तुम और भी अच्छी लगोगी -------- खिले हैं कुछ मोगरा के फूल मेरे सहन में सजा लो बालों में की तुम और ----- भी महकने लगोगी ये जो खुछ ख्वाब हैं मेरे मासूम से पूरे हो जाएँ --- तो --- सोचता हूँ फिर तुम और कितनी अच्छी लगोगी