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Friday, 28 November 2014

हर धुन पे कोई गा सके वो गान नही हूं

हर धुन पे कोई गा सके वो गान नही हूं
हर साज पे बजा ले मै वो राग नही हूं

खिलता हूं फूल सा अपने महबूब के लिये
कोई भी सजा ले बालों में वो हार नही हूं

ज़माने भर की दास्तां छपी है रुह मे मेरी
हर कोई पढ़ले मुझे मै वो अखबार नही हूं

हजारों ज़ख्म खाये हैं जमाने से हमने पर
तमाम ग़म ले कर भी मै अश्कबार नही हूं

मुकेश उम्रभर जोडा किये टूटे दिल हमने
जिस्मों जॉ पे वार करे वो तलवार नही हूं

मुकेश इलाहाबादी --------------------------
 

Thursday, 27 November 2014

आसमाँ पे अपने ख्वाब लिखूंगा

आसमाँ पे अपने ख्वाब लिखूंगा
बादल से मांग के आब लिखूंगा

दहकते हुये दिल की ज़मीन पर
हिज्र की रात व बरसात लिखूंगा

मांगके आबनूसी गेसुओं से स्याही
पलकों पे प्यार का जवाब लिखूंगा

ये फूलों सा बदन, झरने सी हंसी
तेरी हर अदा लाजावाब लिखूंगा

मुकेश ग़जल मे मै अपनी तुम्हे
ज़मीं  पे खिला महताब लिखूंगा

मुकेश इलाहाबादी ---------------

Tuesday, 25 November 2014

हथेली पे चाँद उतर आने दो

हथेली पे चाँद उतर आने दो
ख़्वाब हकीकत हो जाने दो
रात को शमा की ज़रुरत है
अपना घूंघट तो हटाने दो
ये दो जिस्म दो किनारे हैं
मुहब्बत का पुल बनाने दो
ईश्क में दूरियां अच्छी नहीं
कुछ और नज़दीक आने दो
मेरे पहलू में दो पल बैठ के  
मुकेश को भी मुस्कुराने दो
 
मुकेश इलाहाबादी ---------









तुमको मुझसा न मिला



तुमको मुझसा न मिला
मुझको बावफा न मिला

शबें हिज्र ग़मज़दा रहीं
चॉद चमकता न मिला

बाद मेे तुझको ढूँढा बहुत
तेरा अता - पता न मिला

इबादत मे  ही  कमी थी
मुझे मेरा खुदा न मिला

पूरा मेला घूम आये पर
कोई तुम जैसा न मिला

मुकेश इलाहाबादी .....








Monday, 24 November 2014

कई - कई मुखैटे लगा लेता हूं मै

कई - कई  मुखैटे लगा लेता हूं मै
रोज अनकों किरदार निभाता हूं मै

घर में पिता पति भाई व बेटा हूं तो
ऑफिस मे नौकर बना रहता हूं मै

सांझ घर वापस आउं इसके पहले ही
इक झूठी मुस्कान चिपका लेता हूं मै

बेटा मुझसे खिलौना मॉगे इसके पहलेे
उसे नये बहाने से बहला देता हूं मै

पत्नी राशन लाने के लिये कहती है
बडी बेचारगी से उसे  निहारता हूं मै    

अपने शहर में इक शरीफ इन्सांन हूँ
महफिलों मैं शायर बन जाता हूं मै

आइने में जब अपने को देखता हूं तो
खुद को इक जोकर नजर आता हूं मै

मुकेश इलाहाबादी ----------------------






हम घर फूंक आये, भले सिंकदर तो नही

हम घर फूंक आये, भले सिंकदर तो नही
येे मेरी मस्ती है, मै कोई कलंदर तो नही
मै दरिया हूँ मेरी मौज़ों से तुम खेलो ज़रा
डूबने से मत डरो मै कोई समंदर तो नहीं
मुकेश इलाहाबादी --------------------------

Sunday, 23 November 2014

जिस्मो जॉ के क़रीब लगता है

जिस्मो जॉ के क़रीब लगता है
ग़म भी मुझे अज़ीज लगता है

इतनी नफरतें पायी हैं हमने कि
लफजे़ मुहब्बत अजीब लगता है
 
यूँ तो हर कोई दौलतमंद मिलेगा
दिलसे हर शख्श ग़रीब लगता है

चॉद बादल की बाहों मे छुप गया  
मुझको ये बादल रक़ीब लगता है

ये बेरुखी बेवफाई और तन्हाइयां
ये अंधेरा ही मेरा नसीब लगता है

मुकेश इलाहाबादी --------------------

Friday, 21 November 2014

जिन्दगी मेेरे दर पे सराब रख गयी

जिन्दगी मेेरे दर पे सराब रख गयी
रात मेरे सिरहाने ख्वाब रख गयी

लिखा था ख़त, मैने बडी उम्मीद से
खाली स़फ़े का वह जवाब रख गयी

जब मैने उससे जवाब के लिये कहा
किताब में छुपा के गुलाब रख गयी

मुंडेर पे बैठी कोयल थी वो,उड गयी
ऑखों को गंगा और चनाब दे गयी

फिर मैने उससे बेरुखी की बात की
तमाम मुलाका़तों का हिसाब दे गयी

मुकेश इलाहाबादी --------------------

Thursday, 20 November 2014

अभी प्रातः सुन्दरी अंगडांइयां ले रही थी


अभी प्रातः सुन्दरी अंगडांइयां ले रही थी कि ऑख खुल गयी। खिडकी के बाहर झांक के देखा, बाहर उजाला अपने पंख फडफडा रहा था। सडक पे कार मोटरों की आमदरफत शुरु हो चुकी थी। पक्षियों का झुडं का झुड अपने अपने नीड छोड के  दाना दुनका की तलाश में चहचहाते हुए निकल चुके था। चौकीदार अपना डंडा एक दो बार फिर से सडक पे यूं ही फटकार के चाय की गुमटी पे बैठ चुका था। चाय वाला दुआ सलाम करके फिर से अपनी भटटी को गरम करने में लग चुका था। भटटी सुलगने के पहले ढेर सारा धुंुआ उगल रही थी। सडक का आवारा कुत्ता रात भर भोंक कर वहीं किनारे अपनी पुछं पीछे दबा के और अगली दो टांगों के बीच अपनी मुॅह रख के सो चुका था। पेड पे पत्तियां धीरे धीरे डोल रही थीं जबकि कुछ पेड बिलकुल समाधिस्थ सा खडे थे। कलियां खिलने की तैयारी में थीं कुछ तो खिल के मुस्कुरा भी रहीं थीं जबकि रातरानी अपने आंचल से ढेर सारे फूल गिरा के माहौल का महमहा चुकी थी जिसकी खुशबू खिडकी से आ आ कर ताजगी दे रही थी। इसी ताजगी ने बिस्तर छोडने पे मजबूर कर दिया और मै एक और व्यस्त व तनाव भरे दिन की तैयारी में जुट गया।
रोज या स्नान ध्यान और नास्ते के बाद लैपटाप पे बैठा हूं। रात जो रचना लिखी थी उसे एक बार फिर से पढूंगा और एक दूसरी रचना जो परसों लिखी थी उसे नेट पे पोस्ट करुंगा।

बदन मेरा भी रात भर सुलगता रहा

बदन मेरा भी रात भर सुलगता रहा
और चॉद मेरी बाहों में पिघलता रहा

बस इक बार मिला था उस फूल से
बाद उसके मै उम्र भर महकता रहा

यूं तो मेरी कम बोलने की आदत है
मिल के उससे देर तक चहकता रहा

मैने शराब पी नही, फिर भी जाने क्यूं
उसके घर से निकल के बहकता रहा

मुकेश ज़िंदगी कट गयी स्याह रात में
इक उम्मीद का सितारा चमकता रहा

मुकेश इलाहाबादी -------------------------

Wednesday, 19 November 2014

ईश्क के सिवा काम नही

ईश्क के सिवा काम नही
कहीं भी चैनो आराम नही


लोग मुझे कम जानते हैं
पर मै कोई गु़मनाम नही

अंधेरे से अपनी यारी है
रोशनी का इंतजाम नही

उस शख्स से प्यार किया
जिससे दुआ सलाम नही

हथेली पे तो धूप लिखी है
मेरी लिये काई शाम नही

मुकेश इलाहाबादी -------

कभी सुख तो कभी दुख लाती हैं जिंदगी

कभी सुख तो कभी दुख लाती हैं जिंदगी
जाने क्या क्या येे रंग दिखाती है जिंदगी

कभी दूर तक धूप ही धूप के मंजर मिलेगें
कभी तो ये ठंडी छांव में सुलाती हैं ज़िंदगी

पहले तो अपने जाल में फंसाती है सबको
फिर हमारी मजबूरी पे मुस्काती है जिंदगी

उम्र गुजर जाती है सुलझाने में इसको पै
हर रोज नये तरीके से उलझाती हैं जिंदगी

मुकेश ज़िदगी के कीचड से उबर गये तोे
कंवल के फूल सा खिल जाती है जिंदगी

मुकेश इलाहाबादी -------------------------

Saturday, 15 November 2014

फितरत ए गुल लेकर पत्थर पे खिल नहीं सकता

फितरत ए गुल लेकर पत्थर पे खिल नहीं सकता
मै दरिया की रवानी हूं आग से मिल नहीं सकता

तुम मुझको पत्तियों पे गिरी ओस की बूंद समझो
धूप ने ग़र सोख लिया, दोबारा मिल नही सकता

आखिरी मुसाफिर के जाने तक यहीं गडा रहूंगा
मै मील का पत्थर हूं, यहां से हिल नही सकता

ये जरुरी तो नही हरबार मतलब से मिला जाये
क्या बेगैर काम के कोई मिल-जुल नही सकता

तुम्हारी इस खूं आलूदा खंजर सी जु़बां से मुकेश
अपने ज़ख्मी दिल को हरगिज सिल नही सकता

मुकेश इलाहाबादी ................................................

Friday, 14 November 2014

सुलग रहे हैं हम अपने ही अलाव में

सुलग रहे हैं हम अपने ही अलाव में
या कि बह रहे हैं वक्त के बहाव में
ड़ालियां फूलों के बोझ सेतो नहीं पर
झुक रही रही हैं ये हवा के दबाव में
देखकर ज़्ामाने की रईसी लगता है
बीत रही है ज़िदगी कितने अभाव में
सफरे जिंदगी का लुत्फ ही न लिया
रास्ता कटगया यादों के रखरखाव में
डूबने से हरगिज डरता नही है मुकेश
छोड दिया खुद को चढते दरियाव में
मुकेश इलाहाबादी ........................

Thursday, 13 November 2014

आईना तो सच दिखा रहा था

आईना तो
सच दिखा रहा था
जाला,
हमारी ही आखों में था

दुनिया जिसे
बेदाग़ समझती रही
धब्बा,
उसी केे दामन में था

वो बहुत पहले की बात है
जब लोग
दो रोटी और दो लंगोटी में
खुश रहा करते थे

तुम
ये जो राजपथ देखते हो
कभी वहां पगडंडी
हुआ करती थी
और एक
छांवदार पेड भी हुआ करता था

ये तब की बात है
जब लोग
धन में नही धर्म में
आस्था रखा करते थे

खैर छोडो मुकेश बाबू
इन बातों से क्या फायदा
आओ काम की बातें करें
या फिर
क्रिकेट, मौसम या सटटाबाजार
पे तजकरा करें

मुकेश इलाहाबादी ...............

ऐ ज़माना तुझे आजमा लिया

ऐ ज़माना तुझे आजमा लिया
तजरबा भी बहुत कमा लिया
फूलों से एहसास ले कर मैंने
काँटों से रिश्ता निभा लिया
तुम कहते हो आँसू मोती हैं,,
लो,पलकों पे मैंने सजा लिया
मुझे भटकने का गिला नहीं
आखिर मंज़िल तो पा लिया
ज़िंदगी कब तक रूठी रहती
मुकेश मैंने  उसे मना लिया

मुकेश इलाहाबादी --------

Monday, 10 November 2014

यादों की जुगनू चमकते रहे

रात भर मै यूँ ही बहता रहा
खाब की नदी में तैरता रहा

यादों की जुगनू चमकते रहे
देर तक उन्हें ही तकता रहा

चाँद,सितारें,आसमाँ चुप थे
पपीहा देर तक बोलता रहा

अँधेरे में उँकड़ू बैठ कर मै
तेरे बारे में ही सोचता रहा

कोई नहीं था बोलने वाला
अपनी ही साँसे सुनता रहा

मुकेश इलाहाबादी -------

Saturday, 8 November 2014

तुम्हारे बदन की रातरानी खुशबू अच्छी लगी

तुम्हारे बदन की रातरानी खुशबू अच्छी लगी
सांवली रात चांदनी के लिबास में भली लगी

तितलियों के पंख सी झपकती तुम्हारी पलकें
रुप के महकते गुलशन में बेफिक्र उडती लगीं

जब तुम अपने बाल लहरा के चलती हो सच
तुम छलछलाती बलखाती इठलाती नदी लगीं

कभी खामोशी कभी गुस्सा कभी खिलखिलाना
तुम्हारी हर शोखियां और अदाएं प्यारी लगीं

सादगी, मासूम हंसी व अपनी प्यारी बातों से
तुम मुझे आसमान से उतरी कोई परी लगाी


मुकेश इलाहाबादी ------------------------
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Friday, 7 November 2014

तुम्हारे पास भी कोई आईना नहीं है

तुम्हारे पास भी कोई आईना नहीं है
और मेरे पास सच का पैमाना नहीं है

तमाम उम्र गुज़र गयी तुझे ढूंढने में
तुम्हारे दर से कहीं और जाना नहीं है

तुझसे दिल मिल गया तो बता दिया
सबको अपनी दास्ताँ सुनाना नहीं है

तेरे मासूम चेहरे की रोशनी ही बहुत
मुझे कोई और चराग़ जलाना नहीं है

किसी से भी पूछ कर देख लेना मुकेश
शहर में हम जैसा कोई दीवाना नहीं है

मुकेश इलाहाबादी -----------------------

Wednesday, 5 November 2014

एक और हंसी रात होगी

एक और हंसी रात होगी
चाँद तारों की बारात होगी

आज फिर दिन पिघलेगा
आज फिर बरसात होगी

लम्हा - लम्हा मुस्कुराएगा
जब तुमसे मुलाक़ात होगी

ये दूरियां सब मिट जाएंगी
दिल से दिल की बात होगी

हर सिम्त फूल महकेंगे,औ
खिली खिली क़ायनात होगी

मुकेश इलाहाबादी ------------

Tuesday, 4 November 2014

डूबती आखों में सवाल ज़िंदगी का

डूबती  आखों  में सवाल ज़िंदगी का
नशीली आखों में सवाल ज़िंदगी का

मिला नहीं माक़ूल जवाब ज़िंदगी का
मिलना बिछड़ना अंजाम ज़िंदगी का

ज़माने वाले समंदर लिए फिरते हैं
यहां खाली रह गया जाम ज़िंदगी का

लगाया है जब से दिल तुमसे मुकेश
रातों - दिन जागना काम ज़िंदगी का

मुकेश इलाहाबादी -----------------
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Monday, 3 November 2014

आज भी मै,तेरी झील सी आँखों का तलबगार हूँ,

आज भी मै,तेरी झील सी आँखों का तलबगार हूँ,
ये देख समंदर लौट गया मेरी दहलीज पे आकर
मुकेश इलाहाबादी ---------------------------------

मुसलसल बारीसे ग़म थमती नहीं

मुसलसल बारीसे ग़म थमती नहीं
ज़िंदगी मेरी इक ठाँव रुकती नहीं 

लब तो उसके कंपकंपाते हैं, मगर
अपने होठों से कुछ वो कहती नहीं
 
जी तो चाहे है ख़त उसे इक लिखूं
उँगलियाँ थरथराती हैं चलती नहीं 
 
एहसास की छछलाती नदी थी,जो
बर्फ सी जम गयी, अब बहती नहीं
 
कि ज़िंदगी अपनी ज़िद पे अड़ी है
लाख कहा पर वो  मेरी सुनती नहीं

मुकेश इलाहाबादी -----------------