इक, लंबी दूरी, साथ - साथ चलने के बाद एहसास हुआ हम तो वहीं के वहीं हैं जहाँ से चले थे पहले भी हम तुम अजनबी थे आज भी अजनबी से हैं
सिर्फ हवा के झोंके खेत खलिहान के दृश्य भीड़ भरे बाजार साथ साथ चलते सूरज - चाँद और हमारे जिस्म के साथ दो समानांतर पटरियों सा हम तय कर रहे थे अपनी - अपनी दूरी
तुम रहो
मै रहूं
और हो
बारिसों का मौसम
तुम रहो
मै रहूँ
तन्हा छत पे
लेटी हो जाड़े क़ी नर्म धुप
अपने दरमियान
तुम रहो
मैं रहूँ
ऊंघती दोपहर के
सूई पटक सन्नाटे में
बतिया रही हो
सिर्फ कुछ फुसफुसाहटे
कि काश ऐसा हो????
तुम रहो
मै रहूं
और हो
बारिसों का मौसम
तुम रहो
मै रहूँ
तन्हा छत पे
लेटी हो जाड़े क़ी नर्म धुप
अपने दरमियान
तुम रहो
मैं रहूँ
ऊंघती दोपहर के
सूई पटक सन्नाटे में
बतिया रही हो
सिर्फ कुछ फुसफुसाहटे
कि काश ऐसा हो????
बला की शोखी है तुम्हारी आँखों में
गज़ब की मदहोशी है तेरी बातों में
तेज़ खंज़र सा चुभ जाता है सीने में
अजब सी धार है तुम्हारी अदाओं में
मुकेश इलाहाबादी -----------------
आज भी
दरवाज़े से सटे
मेरे कान प्रतीक्षारत हैं
तुम्हारे आने की
पदचाप सुनने को
कि, आज भी
खुली हैं मेरी आँखे
तुम्हे देख लेने को जी भर के
बस एक बार
कि,
बस एक बार
तुम्हारे लौट आने की
प्रतीक्षा में
प्रतीक्षारत है मेरा रोम - रोम