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Tuesday, 28 April 2020

जो इक बार दिल के अंदर आ गया जा नहीं सकता

जो इक बार दिल के अंदर आ गया जा नहीं सकता
मै अपने जिगर में एग्जिट का दरवाज़ा नहीं रखता

अब तो मुद्दत से आदत हो गयी है ख़ामोश रहने की
कोई ख़ास वजह न हो तो मै मुस्कुराया नहीं करता

खाक भी दे जाए कोई खुशी से तो रखता हूँ खुशी से
बस एहसासन ही तो है जो मै किसी का नहीं रखता

जो अपने हैं अपनों के लिए तो हाज़िर ही रहता हूँ मै
मुकेश गैरों का भी दिल मै कभी दुखाया नहीं करता

मुकेश इलाहाबादी --------------------------------

कभी झरने सा बहते हो

कभी झरने सा बहते हो तो कभी बादल सा बरसते हो
तन बदन भिगो देते हो जब भी मुस्कुराते हो हँसते हो

यूँ तो तुमसे बात करो तो बातों का खज़ाना रखते हो
बात मुहब्बत की आये तो मुस्कुराते हो चुप रहते हो

जब भी मिलते हो सारे जहाँ की खबर सुनाते हो तुम
तुम्हारे दिल में क्या है बस यही बात छुपाये रखते हो

मुकेश इलाहाबादी -------------------------------

मै नदी के बारे में सोचता हूँ

मै
नदी के बारे में
सोचता हूँ
मेरे अंदर एक
नदी बहने लगती है
मै बादलों के बारे में
सोचता हूँ
मेरे अंदर
कुछ रिमझिम - रिमझिम सा
बरसने लगता है
मै फूल के बारे में सोचता हूँ
मेरे अंदर कुछ खिलने
और महकने लगता है
मै
तुम्हारे बारे में सोचता हूँ
मेरे अंदर नदी बहने लगती है
बादल बरसने लगता है
एक फूल खिलने और
महकने लगता है
कहीं तुम
पूरी की पूरी पृकृति तो नहीं हो ??
क्यूँ ?? मेरी सुमी,
मुकेश इलाहाबादी ---------

न कोई सूरज जलता है


कोई सूरज जलता है
मेरे साथ
न कोई
चाँद चलता है/ मेरे साथ
न कोई फूल
खिलता है मेरे साथ
यहाँ तक कि
तुम भी तो नहीं हो / मेरे साथ
मुकेश इलाहाबादी -------

Monday, 20 April 2020

रात हुई रात ने चाँदनी ओढ़ ली

रात हुई रात ने चाँदनी ओढ़ ली
मैंने भी फिर से उदासी ओढ़ ली
वो आयी थी अपनी खुशी बताने
चेहरे पे मैंने झूठी हँसी ओढ़ ली
चाँद छुप गया सितारे बुझ गए
मजबूरन मैंने तीरगी ओढ़ ली
और भी क़ातिल हो गया चाँद
जब से उसने सादगी ओढ़ ली
मुकेश इलाहाबादी ------------

दोनों में खूब यारी है खूब बातें होती हैं

दोनों में खूब यारी है खूब बातें होती हैं
मेरी तनहाई होती है तेरी यादें होती हैं

बीते लम्हे आँखों - आँखों में जीती हैं
फिर लम्बी ख़ामोशी औ आहें होती हैं

सीले - सीले दिन भीगी -भीगी सांझ
मत पूछो  कैसी हिज़्र की रातें होती है

मै समझूँ कि तू है मेरे पहलू में पर
आँखें खोलूं रीती -रीती बाहें होती हैं

मुकेश इलाहाबादी ---------------------

Sunday, 12 April 2020

हमको ये भी सलीका नहीं आता

हमको ये भी सलीका नहीं आता
कि मुहब्बत में लड़ा नहीं जाता

कोई सज - संवर के आये मिलने
झूठी सही तारीफ़ है किया जाता

जिस शख्स को मुहब्बत नही तो
हाले -दिल उस्से कहा नहीं जाता

चल आ खुली हवा में घूम आयें
शाम से ही शराब नहीं पिया जाता

मुकेश और भी बहुत से काम हैं
सिर्फ शायरी ही नहीं कहा जाता

मुकेश इलाहाबादी -------------

Wednesday, 8 April 2020

दूसरा दिन लॉक डाउन का दूसरा दिन ---------------------------------------

जो
अपने घरों में
राशन - पानी पर्याप्त मात्रा में भर चुके हैं
वे संपन्न लोग खुश हैं फिलहाल
उनके लिए लॉक डाउन एक उत्सव सा बन के आया है
महिलाऐं नए नए पकवान बना रही हैं
छोटे बच्चे टी वी में मस्त हैं
किशोर मोबाइल पे
पुरुष कभी न्यूज़ पे तो कभी
आस पड़ोस में मित्रों से बहस  का रस ले रहे
बूढ़े अपनी बीमारी को ले थोड़ा चिंतित ज़रूर हैं
पर बच्चों को सामने देख संतुष्ट हैं

चिंतित हैं
परेशां हैं तो सिर्फ
रस्ते में फंसे मुसाफिर
गरीब जिनके पास खाने को नहीं
या डॉक्टर - पुलिस व सुरक्षा कर्मी
सर्कार के बड़े नेता व अफसर

उधर
विषाणु  इटली / जापान / अमेरिका समेत
लगभग आधी से ज़्यादा दुनिया में
लाशों के ढेर लगा के
लाखों को मौत के नज़दीक ला के
राक्षस का अट्ठहास कर रहा है
जिसकी दस्तक भारत में भी
हर क्षण बढ़ती जा रही है

यहाँ भी क्या कहर बरसाएगा
कहा नहीं जा सकता
फिर भी कुछ बुद्धिजीवियों / समझदारों / दूरदर्शियों
को छोड़ सब के लिए लॉक डाउन एक सामान्य कर्फ्यू से
ज़्यादा नहीं लग रहा

हे ईश्वर ! रहम करना
सब की रक्षा करना

मुकेश इलाहाबादी -----------------

लॉक डाउन - पहला दिन ------------------------



मात्र
एक विषाणु के ख़ौफ़ से 
सारे बाजार
सारे रास्ते बंद हो गए
अनवरत
चलने वाली रेलगाड़ी के पहिये
रुक गए
सड़कों को ज़िंदा रखने वाले
हॉर्न बजाते ट्रकों के पहिये
चरमरा कर रुक गए
घर और गंतव्य को जाने वाले यात्री
जहाँ के तहाँ रह गए
घड़घाती मशीने बंद हो गईं
ऑफिस में ताले लग गए
जनता हैरान थी
खौफ में आ चुकी हैं

देख देख कर,
हॉस्पिटल्स में
मरीज़ों की बढ़ती संख्या को
तड़प तड़प के मरते लोगों को
हर इंसान डर चूका है
एक छोटे से विषाणु के हमले से
सिवाय सुरक्षा कर्मियों
एम्बुलेंस की सांय सांय आवाज़ के
नर्सो , डॉक्टर्स के
पुलिस कर्मियों और छिट पुट लोगों के
सड़कें सन्नाटी हो गयी हैं
सिर्फ
आवारा कुत्ते
और आवारा जानवर
पागल या भिखारियों से ही
सड़कें आबाद हैं
लोग घरों में क़ैद हो चुके हैं
टी वी और मोबाइल में कोरोना का अपडेट लेते हुए
बच्चे ज़रूर खुश हैं
स्कूल की असमय छुट्टी से
महिलाऐं किचेन और दुसरे कमरों के बीच डोल रही हैं
सभी को बाहर न जाने के निर्देश देते हुए
बुज़ुर्ग अपनी बीमारी से तो चिंतित थे ही
इस महामारी में अपना भविष्य अंधकार देखने लगे हैं

हर तरफ अजीब सा मंज़र है
कुछ भी समझ नहीं आ रहा

ईश्वर इंसानियत को इस महामारी से शीघ्र निजात दिलाओ

मुकेश इलाहाबादी -------------------------

Monday, 6 April 2020

मेरे लॉक् डाउन का 17 वां दिन

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अभिशाप
ही सही जब हमारी
बहिर्यात्रा को कुछ दिनों के लिए
विराम लग ही गया है तो
तो आइये हम
अब कुछ कदम
अंतर्यात्रा की और बढ़ाएं
पूजा की स्थान पे
या बुक सेल्फ में वर्षों से रखी
पुस्तकों को उल्टे पलटें
या अपने मन के पन्नो को पलटें तो अवश्य जानेंगे
की
संसार
का सार "वेदों" में
वेदों का सार "उपनिषदों " में
उपनिषदों का सार "ब्रह्म सूत्र " में
ब्रह्म सूत्र का सार "भगवत गीता " में है
और तब हम ये भी जानेंगे
सारा महाभारत हमारे ही अंदर है
द्रौपदी - माया
पंचेंद्रिया - पांच पांडव
सौ कौरव - कु -प्रवृतियां
धराष्ट्र - अज्ञान
सृंजय - विवेक
जड़ चेतन के द्वैत को जानने वाला - द्रोणाचार्य (गुरु)
भ्रम और धृण प्रतिज्ञा - भीष्म
शरीर - (कुरु ) क्षेत्र
और
परमात्मा - क्षेत्रज्ञ है
और जिस दिन हम ये सब जान लेते हैं
उस दिन हम अपनी मंज़िल पे पंहुच जाते हैं
तब यात्रा भी - पड़ाव सी लगती है
हर पड़ाव भी - यात्रा का आनंद देती है
फिर कोई लॉक डाउन नहीं होता
मन - बुद्धि - अज्ञान के सभी
लॉक खुल चुके होते हैं
तब माटी के दिए नहीं
आत्मा का दिया जलता है
ज्ञान के तेल से
मुकेश इलाहाबादी ----------------------

मेरे लॉक डाउन का सोलहवां दिन --------

घर
का कोना कोना मुश्कुरा रहा है
सोफे और अलमारी के पीछे की
छिपी हुई दीवारें भी खिलखिला रही हैं
बहुत दिनों बाद अपने घर के
मालिक मालिकिन के हाथों का स्पर्श पा के
वर्ना तो काम वाली बाई या नौकरों के हाथों
बस झाड़ पोछ दिए जाते थे
कभी हलके से तो कभी बेदर्दी से
और अब तो
बॉलकनी और छत पे
बहुत दिनों से उदास गमले का पौधा भी
खुश है अपनी निराई गुड़ाई पा के
बुक सेल्फ की किताबें भी
कह रही हैं
चलो तुम्हे मेरी याद तो आई
वर्ना बुक फेयर से खरीद के लाने के बाद
से ही हमें भूल गए थे
जैसे कोइ राजा या बादशाह भूल जाता था
नई पटरानी को महल में लाने के दो चार दिनों बाद
बूढ़ी माँ खुश है
चलो किसी बहाने बेटे को दिखा तो
कि उसकी माँ का मोतिया बिन्द बढ़ गया है
और कहा कि "लॉक डाउन ख़त्म हो तो ऑपरेशन करा दूँगा "
बच्चे खुश हैं अपने माँ बाप को अपने साथ पा के
हाँ ! मै भी खुश हूँ
भागते दौड़ते रहने के बाद एका - एक ठहर जाने से
कुछ आराम पा जाने से
हाँ ! ये अलग बात
उदास हो जाता हूँ सोच कर
उन गरीबों के बारे में जिनके पास इस लॉक डाउन में
खाने को भोजन न होगा
दिन रात मौत हथेली पे लिए
विषाणु से लड़ते डॉक्टर्स
अपनी ड्यूटी निभाते सुरक्षा कर्म
और एसेंसिअल सर्विसेज वालों के बारे में
तो उदास हो जाता हूँ
और क्षोभ से भर जाता हूँ
जब कुछ सिरफिरे इस आपदा को भी
मज़हबी रंग देने पे तुले हैं
और मानवता के दुश्मन बने हैं
और और भी बहुत कुछ सोचता हूँ
और सोचता हूँ ये लॉक डाउन
हमें एक नए सिरे से सोचने पे मज़बूर करेगा
या इस विषाणु से कोरोना से जंग जीतने के बाद
एक बार फिर उसी अँधेरे के जंगल में गुम हो जाएँगे
खैर ! फिर भी हम आज अपने प्रधानमंत्री जी के
आवाहन पे "तमसो माँ ज्योतिर्गमय " के भाव को
मन में रखते हुए इस जीवाणू को दूर भागने के लिए
रात्रि 9 बजे 9 मिनट के लिए दिए की या मोमबत्ती की रोशनी करें
सर्वे भवन्तु सुखिनः - सर्वे भवन्तु निरामयः
मुकेश इलाहाबादी ----------------

लॉक डाउन का पन्द्रहवां दिन ---------------------------------


प्रकृति
की एक हल्की सी मार ने
मानव को याद दिला दिया
मानव की औकात
और
याद दिला दिया
कि
आसमान नीला भी होता है
नदी,
निर्मल भी होती है
धरती पीली नहीं हरी होती है
ये धरती
सिर्फ हमारी ही नहीं
हारिल चिड़िया
और हरे तोते को भी
हमारी मुंडेर पे
पेड़ों पे चहकने का, अधिकार है
जानवरों को भी जीने का हक़ है
और ,,
सिर्फ भागना ही nahi
ठहरने का भी नाम जीवन होता है
मुकेश इलाहाबादी -------------------