कदम न बढ़ाओ तो सदियों का है
वैसे चंद कदमो का ही फासला है
इक मुलाकात में ही अपने से लगे
शायद जन्मो- जन्मो का रिस्ता है
तुम्हारा चेहरा ताज़ा खिला गुलाब
और जिस्म चन्दन सा महकता है
जिस्म के खंडहर में तेरी यादों का
कबूतर गुटरगूँ - गुटरगूँ करता है
दरिया बर्फ हो रहे इस दिसम्बर में
फिर मेरे सीने में क्या पिघलता है
मुकेश इलाहाबादी ---------------