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Tuesday, 30 September 2014

माना दीवारें बतियाती नहीं


दीवारें धूप छाँह झेलती तो हैं 
हमारा दुःख दर्द सुनती तो हैं
सीढ़ियां मंज़िल नहीं होती
मगर उम्मीदे मंज़िल तो हैं
तसव्वुर से जी नहीं भरता
ख्वाब से रातें कटती तो हैं
चाहे कितनी भी लम्बी हो
शब -ऐ -हिज़्र कटती तो है
लोग मसल देते हैं फिर भी
कलियाँ रोज़ खिलती तो हैं

मुकेश इलाहाबादी -----------

दुनिया ने जीने न दिया

दुनिया ने जीने न दिया
प्यार ने मरने न दिया

दरिया में पानी कम था
उसने भी डूबने न दिया

अज़नबियत हावी रही
हया ने बोलने न दिया

रास्ते की दुश्वारियों ने
तुझ तक आने न दिया

फ़लक़ ने तो बुलाया था
कफ़स ने उड़ने न दिया

मुकेश इलाहाबादी ----

Monday, 29 September 2014

दिल हवेली जिस्म गुम्बद है

दिल हवेली जिस्म  गुम्बद है
अब तो  यहां सिर्फ खंडहर है
फक्त घुप्प अन्धेरा मिलेगा
बाकी चमगादड़ व कबूतर हैं
जहां रौनक हुआ करती थी
वहाँ अब उदासी के मंज़र है
कभी हमारा भी ज़माना था
ये बात इतिहास में भी दर्ज़ है 
मुद्दतों से कोई आया ही नहीं
मुकेश तो बीता हुआ कल है

मुकेश इलाहाबादी -----------

Sunday, 28 September 2014

अँधेरा सन्नाटा और उल्लू की आवाज़ है

अँधेरा सन्नाटा और उल्लू की आवाज़ है
देखते जाओ ये तो बरबादी का आगाज़ है
अजब अहमक हो यहां गुलशन ढूंढते हो ?
देखते नहीं, हर घर और दिल में बाज़ार हैं
मुकेश इलाहाबादी -------------------------

समंदर के सीने में सनसनाहट है

समंदर के सीने में सनसनाहट है
ज़मीं से आसमां तक हरहराट है

हैं शहर का आलम धुआं धुआं सा
अजब बेचैनी सी और घबराहट है

देखता हूँ इन परिंदों को उड़ता हुआ
लगता है दिल में भी छटपटाहट है

होगा हमारी बस्ती में अन्धेरा घना
तुम्हारे शहर में तो जगमगाहट है

तुम्हारे घर से लौटे हैं मियाँ मुकेश
क़दमों में रिन्द की लड़खड़ाहट है

मुकेश इलाहाबादी --------------------

Friday, 26 September 2014

ये दिल ज़रा सी धूप ज़रा सी छाँव मांगे है


ये दिल ज़रा सी धूप ज़रा सी छाँव मांगे है
इक मासूम चेहरा ज़ुल्फ़ों की ठाँव मांगे है
कि परिंदों के पर भी शरमा जाएं हमसे
हवा से भी तेज़ रफ़्तार वाले पाँव मांगे है
कागज़ की हो काठ की हो या फूलों की हो
किसी दरिया में न डूबे ऐसी नाव मांगे है
शहर से जब भी लौट कर आऊं मुकेश तो
वही पनघट वही बरगद वही गाँव मांगे है
मुकेश इलाहाबादी --------------------------

ज़माने के लिए ये बड़ी हैरत की बात है

ज़माने के लिए ये बड़ी हैरत की बात है 
तुम हो हमारे साथ किस्मत की बात है
कोई छोड़ कर मुहब्बत दौलत को चाहे
ये तो अपनी -अपनी नियत की बात है
तमाम लोग बेवफाई करके निकल गए 
फिर भी चुप रहता है आदत की बात है
जिस्म पे तमाम ज़ख्म खा कर भी वो
सच पे अड़ा है, बड़ी हिम्मत की बात है
हर हाल में वो हँसता और मुस्कुराता है
कलन्दरी मुकेश के तबियत की बात है

मुकेश इलाहाबादी ------------------------

Thursday, 25 September 2014

चोट पर चोट खाते और मुस्कुराते रहे

चोट पर चोट खाते और मुस्कुराते रहे
ज़ख्म हँसते रहे हम खिलखिलाते रहे
तुम चाँद हो तुम्हारी अठखेलियां देख
फलक के सितारे भी जगमगाते रहे
तुम हमसे बेवज़ह रूठ कर चल दिए
फिर देर तक हम तुमको पुकारते रहे
देर तक उदासियों ने घेरा था उस दिन
फिर इक उदास नज़्म गुनगुनाते रहे
जानता हूँ तुम हरगिज़ नहीं लौटोगी
दिल को झूठी तसल्ली से बहलाते रहे

मुकेश इलाहाबादी -----------------------

Tuesday, 23 September 2014

ज़िंदगी भर यही करते रहे

ज़िंदगी भर यही करते रहे
दिल रोया हम हँसते रहे

मिली सड़क अंगारों  की  
पाँव नंगे हम चलते रहे

कभी तो मंज़िल मिलेगी
सोच कर यही बढ़ते रहे

आज भी अजनबी  है वो
रोज़ जिससे मिलते रहे


कभी तो कोई सुनेगा ?
ग़ज़ल रोज़ लिखते रहे


मुकेश इलाहाबादी ----------

Monday, 22 September 2014

आओ प्यारा सा घर बनाएं

आओ प्यारा सा घर बनाएं
फिर फूलों से  उसे सजाएं

हो बस्ती से दूर कहीं घर औ
हम सौदा लेने शहर को आएं

दो प्यारे प्यारे फ़ूल  खिलें
फूल हँसे और हम मुस्काएं

अपनी छोटी सी क्यारी में
गेंदा और हर श्रृंगार लगाएं

जब भी दुःख सुख आये तो
इक दूजे का साथ निभाएं

मुकेश इलाहाबादी ---------

लगा के मलमल का परदा सोचतें हैं वो

लगा के मलमल का परदा सोचतें हैं वो
रोक लेंगे चाँदनी को ज़माने की नज़र से
ख़ुद को चिलमन में छुपा के सोचते हैं वो
खुशबू ऐबदन  छुपा लेंगे ज़माने की नज़र से  
मुकेश इलाहाबादी -------------------------

गूंगो को ज़ुबान दिया जाए

गूंगो को ज़ुबान दिया जाए
शेरों को लगाम दिया जाए
अधूरे रह गए है जो ख्वाब
उन्हें भी मुकाम दिया जाए
कफ़स में जो रह रहे हैं उन्हें
हवाके लिए बाम दिया जाए
रिन्द कोई भी प्यासा न रहे
सभी को जाम दिया जाए
फुटपाथ पे न सोयेगा कोई
सब को मकान दिया जाए
सच और प्रेम का राज़ होगा
शहर में एलान किया जाए
मुकेश इलाहाबादी -------

पक्के घरों में तुम अपनापन न पाओगे

पक्के घरों में तुम अपनापन न पाओगे
कच्ची दीवारों का सोंधापन न पाओगे
आशिक़ तो तुमको मिल जाएंगे बहुतेरे
मज़नू सा मगर दीवानापन न पाओगे
कुछ पाओ चाहे न पाओ पर तुम कभी
गरीब इंसान में बेगानापन न पाओगे 


नाज़ों आंदज़ वाले देखे होंगे तुमने बहुत
पर मेरे मेहबूब सा बाँकपन न पाओगे
ढूंढोगे तो तमाम खामियां मिल जाएँगी
मुकेश में लेकिन कमीनापन न पाओगे

मुकेश इलाहाबादी -----------------------

क्षितिज में सूरज निकला है अभी अभी

क्षितिज में सूरज निकला है अभी अभी
परिंदों ने भी बसेरा छोड़ा है अभी अभी
किरणे समंदर के पानी से सतरंगी हुईं
धरती पे जागी है ज़िदंगी अभी - अभी
मुकेश इलाहाबादी ---------------------

Sunday, 21 September 2014

आग सा दिन बर्फ सी रात है

आग सा दिन बर्फ सी रात है
बाकी तो ग़म की बरसात है
आये हो तो कुछ देर बैठो भी
अरसे बाद की मुलाक़ात है
मै तनहा सूरज तुम,चाँद हो 
साथ में सितारों की बरात है
कुछ तुम कहो कुछ हम कहें
करना चाहो तो बहुत बात है
वक़्त के साथ तुम बदल गए
तुममे अब कंहाँ वो बात है ?

मुकेश इलाहाबादी -----------

Saturday, 20 September 2014

हर लफ़्ज़ को धार देना होगा

हर लफ़्ज़ को धार देना होगा
ख़ुद को तलवार करना होगा
ये मज़नू बनने का वक़्त नहीं 
हमें राणा प्रताप बनना होगा
पूरा समाज ही भ्रष्ट हो जाये  
उसके पहले ही सोचना होगा
क़यामत आये इसके पहले 
धर्म की तरफ लौटना होगा
एक न एक दिन ज़माने को
मुकेश की बात सुनना होगा

मुकेश इलाहाबादी ----------

अंधेरी रात लिए बैठे हैं



अंधेरी रात लिए बैठे हैं
चांद की आस लिए बैठे हैं
रातों को नींद नहीं आती
तेरा ही ख़ाब लिए बैठे हैं
ग़ज़ल पूरी नहीं हो रही
सिर्फ मत्ला लिए बैठे हैं
आओ  कोई गीत गायें
देर से साज़ लिए बैठे हैं
अपने  इस तनहा घर में
तुम्हारी याद लिए बैठे हैं
मुकेश इलाहाबादी -------

Friday, 19 September 2014

हाँ, हम ज़िंदगी भर गुनाह करते रहे



हाँ, हम ज़िंदगी भर गुनाह करते रहे
हाँ - हाँ  मुहब्बत करते रहे करते रहे

कभी सहरा तो कभी दश्ते तीरगी रही
उम्र भर तो सफर करते रहे करते रहे

कभी रुसवाई तो कभी संगसारी मिली
ईश्क में हर ज़ुल्म सहते रहे सहते रहे

चाहता तो बहुत कुछ कह सकता था
पर हम चुपचाप सुनते रहे सुनते रहे

मुकेश हमें तो यही तरीका रास आया
दर्द कुछ तरह बयां करते रहे करते रहे

मुकेश इलाहाबादी ------------------------

Thursday, 18 September 2014

तू न सही तेरी ये आँखें बोलती हैं

तू न सही तेरी ये आँखें बोलती हैं
सादगी तेरी सर चढ़ के बोलती है
चम्पई -चम्पई रंग,फूल सा चेहरा
तितली के पंख सी पलकें बोलती हैं
जब तुम कुछ नहीं कह रही होती हो
तब तुम्हारी मरमरी बाहें बोलती हैं
तुम हमसे गूफ्तगू नहीं करतीं हो
तुम्हारी महकती साँसे बोलती हैं
जब तन्हाइयों में दिल नहीं लगता
मुकेश हमसे तुम्हारी यादें बोलती हैं

मुकेश इलाहाबादी ----------------------

Wednesday, 17 September 2014

तुम कंही भी जाओगे

तुम कंही भी जाओगे 
लौट के यहीं आओगे
देखना सच जीतेगा
अंजाम यही पाओगे
बर्फ हूँ मै गल जाऊंगा
तुम एक नदी पाओगे
मेरी खामोश घाटी में
अपनी आवाज़ पाओगे
जब लौट के आओगे
मुझको यहीं पाओगे

मुकेश इलाहाबादी --

लोग सुन रहे हैं कहानियां गली -गली

लोग सुन रहे हैं कहानियां गली -गली
मशहूर है मेरी बदनामियाँ गली-गली

ज़माना भी न मिटा पायेगा मेरा वज़ूद
कि फ़ैली है मेरी निशानियाँ गली- गली

बेशक़ बेदखल करके खुश हैं कुछ लोग
मेरे नाम पे फ़ैली है उदासियाँ गली गली

मेरा कुशूर था सच बोलने भर का, पर  
ख़िलाफ़ में लगी हैं तख्तियां गली-गली

जब से विरोध में उठा है हाथ मुकेश का
तानाशाह ने बढ़ा दी शख्तियाँ गली-गली  

मुकेश इलाहाबादी ------------------------


लोग सुन रहे हैं कहानियां गली -गली

लोग सुन रहे हैं कहानियां गली -गली
मशहूर है मेरी बदनामियाँ गली-गली

ज़माना भी न मिटा पायेगा मेरा वज़ूद
कि फ़ैली है मेरी निशानियाँ गली- गली

बेशक़ बेदखल करके खुश हैं कुछ लोग
मेरे नाम पे फ़ैली है उदासियाँ गली गली

मेरा कुशूर था सच बोलने भर का, पर 
ख़िलाफ़ में लगी हैं तख्तियां गली-गली

जब से विरोध में उठा है हाथ मुकेश का
तानाशाह ने बढ़ा दी शख्तियाँ गली-गली 

मुकेश इलाहाबादी ------------------------

तेरे आने की उम्मीद में अब तक ज़िंदा हूँ ,,

तेरे आने की उम्मीद में अब तक ज़िंदा हूँ ,,
वर्ना ये साँसे कब की रुक गयी होतीं मुकेश
मुकेश इलाहाबादी ----------------------------

Monday, 15 September 2014

तुमसे मै सच कहता हूँ

तुमसे मै सच कहता हूँ
दर्द के घर में रहता हूँ

इन सारे ज़ख्मो से अब
रातों दिन बातें करता हूँ

अपनी हर धड़कन में
तेरी सरगम सुनता हूँ

दिन कैसे भी गुज़रें पर
ख्वाब सुनहरे बुनता हूँ

इश्क़ आग का दरिया है
मै पाँव बरहना चलता हूँ

मुकेश इलाहाबादी ------

यूँ तो हम बैठे थे घर पे अपनी मस्ती में मुकेश

यूँ तो हम बैठे थे घर पे अपनी मस्ती में मुकेश
देखा जो तुझे कारवां में तो साथ हम भी हो लिए
मुकेश इलाहाबादी -----------------------------------

हैरान है देखकर आईने में अपनी ही सूरत

हैरान है देखकर आईने में अपनी ही सूरत
भला जहान में है कौन हमसे भी खूबसूरत ?

मुकेश इलाहाबादी ---------------------------

Sunday, 14 September 2014

ताज़ा गुलाब सा खिले -२ लगते हो

ताज़ा गुलाब सा खिले -२ लगते हो
सुबह की ओस में नहाए  दिखते हो

तुम्हारे बदन में अजब सी खुशबू है
तुम भी चन्दन का बदन रखते हो

यूँ तो ज़माने में बहुत से लोग मिले
पर तुम मुझे सबसे अच्छे लगते हो

दोस्त किसी दिन मेरे घर तो आओ
और ये बताओ तुम कंहाँ रहते हो ?

मै मुहब्बत की ग़ज़ल कहता हूँ,क्या 
कभी तुम मेरी भी ग़ज़ल सुनते हो ?

मुकेश इलाहाबादी --------------------

ये तो ज़माने की चाल थी जो हो गए हम जुदा

ये तो ज़माने की चाल थी जो हो गए हम जुदा
मुकेश वरना न तुम बेवफा न हम बेवफा
मुकेश इलाहाबादी -----------------------
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तुम्हारे आने से मौसम खुशगवार हो गया

तुम्हारे आने से मौसम खुशगवार हो गया
काम - काज का दिन भी इतवार हो गया
कहा था तुमने मंगल के हाट में आओगी
दिन गिन रहा हूँ कि आज गुरुवार हो गया
मुकेश हिज़्र में तुम्हारे दिन रात नहीं कटते
शुक्र को मिले थे हम आज सोमवार हो गया

मुकेश इलाहाबादी ------------------------------
 

Saturday, 13 September 2014

ज़िंदगी के लिए,

ज़िंदगी के लिए,
हरारत बचाए रक्खा है
तेरी यादों का अलाव
जलाए रक्खा है

जो साल गुज़ारा है
संग - साथ तेरे  
वो कॅलेंडर आज भी
लगाए रक्खा है

तू बाम पर आये या न आये,
तेरे दर पे आने का सिलसिला
बनाए रक्खा है

रिश्तों के गुल
मुरझा गए तो क्या ?
वो फूल आज भी
सजाए रक्खा है   

मुकेश इलाहाबादी -------------

Friday, 12 September 2014

ये सूखा हुआ मौसम शिकायत कर रहा है घटाओं से

ये सूखा हुआ मौसम शिकायत कर रहा है घटाओं से
घटाएं जो क़ैद होके रह गयी हैं तुम्हारी इन ज़ुल्फ़ों में
देख कर तुम्हारी आखों की लरज़ती बहती हुई नदी
समंदर भी है खफातेरी आखों की दरिया की मौज़ों से
मुकेश इलाहाबादी --------------------------------------

चाह कर भी बोलने न दिया

Thursday, 11 September 2014

ज़माने को कुछ कर दिखाना चाहता है

गिरह ----
ज़माने को कुछ कर दिखाना चाहता है
परों में बाँध कर पत्थर उड़ाना चाहता है

दिन ढलते उदासी ने आँचल फैला लिए 
ऐसे में वो उदास नज़्म गाना चाहता है

तुम्हारे इश्क़ में वो शायर बन गया, अब 
सुबहो शाम तुमको गुनगुनाना चाहता है

मुफलिसी ने उसको मज़बूर कर दिया
वो तुम्हारे लिए तोहफा लाना चाहता है

तुमको गैरों से ही फुरसत नहीं मिलती
तुम्हारे साथ कुछ पल बिताना चाहता है

मुकेश इलाहाबादी ------------------------

ज़नाब अजय एस अज्ञात की खूबसूरत ग़ज़ल
से मिसरा ए सानी लिया गया है -
'परों में बाँध कर पत्थर उड़ाना चाहता है '

Wednesday, 10 September 2014

दिल भी उनका, धड़कन भी उनकी, बेचैनी भी उनकी

दिल भी उनका, धड़कन भी उनकी, बेचैनी भी उनकी
जो पूछता हूँ हाल दिल तो कहंते हैं 'हमें कुछ मालूम नहीं'
बिछड़ते वक़्त हमने जो पूछा 'अब कब मुलाक़ात होगी ?
चल दिए हंस के कहते हुए 'मुकेश,हमें कुछ मालूम नहीं '
मुकेश इलाहाबादी ---------------------------------------------

अच्छी हो या कि बुरी कट ही जाएगी

अच्छी हो या कि बुरी कट ही जाएगी
ज़िदंगी का क्या है ? गुज़र ही जाहेगी

सुबह से लेकर शाम तक चल रहे हैं तो
कभी न कभी मंज़िल मिल ही जाएगी

तनहा हैं तो तनहा ही रह लेंगे उम्रभर
तबियत का क्या है बहल ही जाएगी

आखिर कब तक सिर पटकती रहेंगी
उदास हो के उदासी भी लौट ही जाएगी 

उम्र सारी मुफ़्लासी में गुज़री तो क्या ?
मुकेश दो गज़ ज़मीन मिल ही जाएगी

मुकेश इलाहाबादी ------------------------

Tuesday, 9 September 2014

गर इक बार भी कह दिए होते

 गर इक बार भी कह दिए होते
तुम्हारी राह में बिछ गए होते

तख्ते -ताउस और ताज़ क्या
चाँद -सितारे भी ला दिए होते

तुम्हारी इन उदास पलकों पे
काजल बन के सज गए होते

ज़रा सा इशारा तो किया होता
हम तेरे दर से ही चले गए होते

तुम्हारी इक मुस्कान के लिए
मुकेश कुछ भी कर गुज़रे होते

मुकेश इलाहाबादी --------------

Monday, 8 September 2014

नदी पे इक पुल बनाया जाए

नदी पे इक पुल बनाया जाए
दो साहिलों को मिलाया जाए

दरख़्त सूख चुके हैं रिश्तों के
आ उन्हें हरा भरा किया जाए

प्यार मुहब्बत से मिलजुल के
आपसी रंजिश दूर किया जाए

तुम्हारी खुशियों भरी रात, मेरी
उदास ग़ज़लें सुना सुनाया जाए

मुकेश आये हो तो कुछ देर बैठो
साथ - साथ चाय तो पिया जाए

मुकेश इलाहाबादी ---------------

Sunday, 7 September 2014

साँझ से ही हम नदिया किनारे बैठे रहे

साँझ से ही हम नदिया किनारे बैठे रहे
दरिया के पानी में छप -छप करते रहे
ख्वाब थे हमारे आवारा बादलों की तरह
कई - कई रूपों में सजते रहे संवरते रहे
दरिया में लहरें आती रही औ जाती रहीं
हम भी अपनी तरह डूबते रहे उतरते रहे
इक पपीहा चाँद की  मुहब्बत में है देर से
हम उसी की टेर को रह रह के सुनते रहे
हर सिम्त चाँद ने चांदनी चादर बिछा दी
मुकेश उजली चादर में करवट बदलते रहे

मुकेश इलाहाबादी ---------------------------

सांझ होते ही चहचहाने लगे

सांझ होते ही चहचहाने लगे
पंछी अपने नीड में जाने लगे
इधर रात गहराने लगी उधर
चाँद - सितारे जगमगाने लगे
नींद पलकों में डेरा जमा चुकी
ख्वाब अपने पंख फैलाने लगे
जैसे - जैसे रात गहरा रही है
तुम मुझे और याद आने लगे
जो ज़ख्म दिन में सो गए थे
रात होते ही मुस्कुराने लगे

मुकेश इलाहाबादी -----------

Friday, 5 September 2014

दिल ही दिल में दहक रहे हैं

दिल ही दिल में दहक रहे हैं
दर्द के आंसू छलक रहे हैं
जाने कितने ग़म ले कर
पी कर हाला बहक रहे हैं
ये तो तेरी महफ़िल है जो
पल दो पल को चहक रहे हैं
जीवन अपना उजड़ा गुलशन
फिर भी फूलों सा महक रहे हैं
इक मुद्दत के बाद मिले हो
सारे अरमां मचल रहे हैं

मुकेश इलाहाबादी -----------

Thursday, 4 September 2014

बुते संगमरमर में ख़ुदा ढूंढ रहे हो

GIRAH------------------------------

बुते संगमरमर में ख़ुदा ढूंढ रहे हो
आईने में पत्थर की अदा ढूंढ रहे हो

यंहा सभी पत्थर दिल रहा करते हैं
यार तुम भी मुहब्बत कहाँ ढूंढ रहे हो

जिनकी आखों में रेत् के समंदर हैं
उन आखों में अपना जहाँ ढूंढ रहे हो

यूँ शहर -शहर दर-ब-दर भटकते हुए
अपनी मुहबबत का पता ढूंढ रहे हो ?

जो इक बार धोखा दे चुका है तुम्हे
मुकेश तुम उसी में वफ़ा ढूंढ रहे हो

मुकेश इलाहाबादी ---------------------

‘MISRA-E-SANI’... आईने में पत्थर की अदा ढूंढ रहे हो
Janaab Manohar Manu Gunavi Sahib KI KHOOBSURAT GHAZAL
KE EK SHER SE LIYAA GAYAA HAI .....

Wednesday, 3 September 2014

यूँ तो कौन रोता है उम्रभर किसी के बिछड़ जाने पर

यूँ तो कौन रोता है उम्रभर किसी के बिछड़ जाने पर
ये भी सच है आज भी रो देता हूँ उसकी याद आने पर
मुकेश इलाहाबादी -----------------------------------------

ख्वाब तो हमने भी देखे थे मुस्कुराती सुबह की



ख्वाब तो हमने भी देखे थे मुस्कुराती सुबह की
ये और बात ग़म के बादलों ने आसमाँ ढक लिया

मुकेश इलाहाबादी ------------------------------------

Monday, 1 September 2014

मुस्कराहट कर गयी थी चुगलियां

मुस्कराहट कर गयी थी चुगलियां
वर्ना हम क्या समझते खामोशियाँ

ख़ुद बैठे हैं ज़नाब शुकूं से घर पर
दिल पे हमारे  गिरा कर बिजलियाँ 

कभी न कभी तो बाम पर आएंगे 
कभी तो खोलेंगे अपनी खिड़कियाँ

ज़माने से ही तुम्हे फुर्सत नहीं तो
क्या सुनोगे तुम हमारी सिसकियाँ

आँगन में आ- आ कर नाचती हैं
साँझ उदास लौट जाती हैं रश्मियाँ 

देखना झूम कर बरसेंगे एक दिन
हमसे कहे गयी हैं काली बदलियाँ

मुकेश इलाहाबादी ------------------

मुझसे हर राज़ बताये रखता है

मुझसे हर राज़ बताये रखता है
ईश्क की बात छुपाये रखता है

यूँ तो हमसे कोई पर्देदारी नहीं
आदतन नज़रें झुकाये रखता है

परियों की बातें फूलों के किस्से
क्या-२ ख्वाब सजाये रखता है ?

कोई ख़त न कोई संदेसा आया
दिल है की आस लगाये रखता है

होश में उसकी याद नहीं जाती
पी कर ख़ुद को भुलाये रखता है

मुकेश इलाहाबादी --------------

गुलाब की ताज़ा कली सा खिलते हो

गुलाब की ताज़ा कली सा खिलते हो
मुस्कुराते हो तो फूल सा लगते हो

रजनीगंधा के फूल झरा करते हैं
जब तुम यूँ खिलखिला के हँसते हो

आँगन में  तमाम मोती बिखर जाते हैं
जब तुम अपने गीले गेसू झटकते हो

मेरी बाहों की दश्त ऐ तीरगी में
तुम चाँद सितारों सा चमकते हो
 
ये भोली सी सूरत प्यारी सी बातें
तुम मुझे परियों के देश के लगते हो

मुकेश इलाहाबादी ----------------------