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Friday, 15 May 2020

तुम्हारे बारे में सोचना

तुम्हारे
बारे में सोचना
ताज़ा खिले ओस में नहाये
गुलाब के बारे में सोचना है
तुम्हारी
बाँहों को
छूने की कल्पना
अखरोट के पेड़ की मुलायम डाल
को छूने सहलाने जैसा है
तुम्हारी हँसी
सुनना बहुत ऊंचाई से गिरते
जलप्रपात की दूधियाँ धार की
आवाज़ को सुनना है
तुम्हारी यादों में होना
गर्म थपेड़ों के बाद
बारिश की ठंडी फुहार में
भीगने जैसा है
तुम्हारे साथ होना
एक उत्सव में होना होता है
रंग - बिरंगे मेले में होना है
मुकेश इलाहाबादी -----------

ओ, प्रकृति की सुन्दरतम कृति,

ओ,
प्रकृति की सुन्दरतम
कृति,
सुदीर्घ नयनो वाली
मुझे मालूम है
चिडियों की चहचहाहट सुन के तुमने
अभी अभी अपनी पलकें खोली हैं, पर
अभी तुम बिस्तर से मत उतरना
अभी सूरज अपनी सुनहरी किरणों से
बुन रहा है एक
सुनहरा गलीचा
तुम्हारे लिए
जिसपे अपने नाजुक पैर रख के आना बाल्कनी पे
जंहा तुम्हारा इंतजार करता मिलेगा
रात भर ओस मे भीगता
जागता तुम्हारी एक झलक के लिए खड़ा
यूलिपटस का पेड़
ओ, दीर्घ नेत्रों वाली सुन्दरी अभी बुन लेने दो सूर्य को एक
एक सुनहरी कालीन
तुम्हारे लिए
सुप्रभात ..
मुकेश इलाहाबादी,,,,,

एक बार ख़ूबसूरती के क़द्रदानों ने ख़ुदा से कहा "

एक बार
ख़ूबसूरती
के क़द्रदानों ने ख़ुदा से कहा
"ऐ ख़ुदा ! तूने रात के लिए
तो आँखों को
ख़ूबसूरती का शुकूँ देने
और रूह को ठंडक देने वाला
चाँद बनाया
पर दिन के पाले के लिए
तूने जलता हुआ सूरज बनाया
काश दिन के लिए भी एक चाँद होता ?"
ख़ुदा ने
उनकी दुआ क़ुबूल की
और एक खूबसूरत चाँद बनाया
जिसे ज़मी पे उतारा जो
रात ही नहीं दिन के उजाले में भी
तमाम रूहों की ठंडक बनी हुई है
और वो चाँद,
तुम हो - तुम हो- तुम हो सुमी
मुकेश इलाहाबादी --------------

लॉक डाउन - एक दृश्य -----------------------

लॉक डाउन - एक दृश्य
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सूनसान
गली की एक बॉलकनी से
लड़के ने मुस्कराहट उछाली
लड़की ने आँखों से
लोक लिया और
हँसती हुई घर फिर से
घर के अंदर चली गयी
ये कहते हुए " लॉक डाउन है - घर के अंदर रहो "
गली में एक बार फिर सन्नाटा है
पर गली मुस्कुरा रही है
लॉक डाउन के बावजूद
मुकेश इलाहाबादी ,,,,,,,,,,,,,,,,,

जब से मैंने

जब
से मैंने
आसमान के हज़ारों तारों में से
एक सितारे का नाम
तुम्हारे नाम पे रख दिया है
तब से
रात का ये स्याह आँचल मुझे
बहुत भाने लगा है
मुकेश इलाहाबादी ----

बहुत दिनों बाद हम चारों यार मिल बैठे हैं

बहुत
दिनों बाद हम चारों यार
मिल बैठे हैं
इनमे से एक
बहुत पहले मर चूका है
दूसरा हर रोज़
थोड़ा - थोड़ा मरता है
तीसरा अभी तो नहीं मरा है
पर उसे उम्मीद है
जल्दी ही उसकी भी मौत आने वाली है
और मै ,
मै शराब की चुस्की के साथ ये
सोच रहा हूँ
मै ज़िंदा हूँ या मर चूका हूँ
अगर ज़िंदा हूँ तो अभी तक मरा क्यूँ नहीं
और मर चूका हूँ तो ज़िंदा कैसे हूँ
और अगर ज़िंदा हूँ
तो मेरे मुँह में आवाज़ क्यूँ नहीं है
मेरी आँखों में पानी क्यूँ नहीं है
मेरे शब्दों में आग क्यूँ नहीं है
मेरे हाथ में ज़ुल्म के विरोध का झंडा क्यूँ नहीं है
मुकेश इलाहाबादी -----------------------------

अगर तुम ये सोचते हों कि

अगर
तुम ये सोचते हों कि
रात के खामोश अँधेरे में
झींगुरों की आवाज़ के बीच
तुम अपने कानो को सतर्क कर के
सुन लोगे सन्नाटे की आवाज़
तो तुम गलत हो
अगर तुम
सोचते हो तुम
अपने कानो को दोनों हाथो से बंद कर के
सुन लोगे सन्नाटे की आवाज़
तो तुम नहीं सुन पाओगे
सन्नाटे की आवाज़ सुनने के लिए
गुज़ारना होता है
एक बेहद और न ख़त्म होने वाली तकलीफ
की सुरंग से
मुकेश इलाहाबादी --------

जिधर भी नज़र डालो उधर ही कोरोना है

जिधर भी नज़र डालो उधर ही कोरोना है
हर तरफ कोरोना है कोरोना है कोरोना है

हफ़्तों हो गए हैं सभी का बस यही रोना है
घर में बंद रहना खाना बतियाना सोना है

सभी मानवीय व्यवस्थाएं हो गईं ध्वस्त
कहीं चुप्पी कहीं सिसकी कहीं पे रोना है

इंसानियत बदहवास है सरकारें बेबस हैं
हर कोइ कह रहा है कोरोना है कोरोना है

छोटा हो बड़ा हो या फिर राजा हो रंक हो
हर दिल में दहशत है कोरोना है कोरोना है

एहतियात से रहो दूरियां बना के रहो कि
ये जो हमारा दुश्मन कोरोना है कोरोना है

मुकेश इलाहाबादी ----------------

Saturday, 2 May 2020

तुम्हारे बारे में सोचना

तुम्हारे
बारे में सोचना
ताज़ा खिले ओस में नहाये
गुलाब के बारे में सोचना है
तुम्हारी
बाँहों को
छूने की कल्पना
अखरोट के पेड़ की मुलायम डाल
को छूने सहलाने जैसा है
तुम्हारी हँसी
सुनना बहुत ऊंचाई से गिरते
जलप्रपात की दूधियाँ धार की
आवाज़ को सुनना है
तुम्हारी यादों में होना
गर्म थपेड़ों के बाद
बारिश की ठंडी फुहार में
भीगने जैसा है
तुम्हारे साथ होना
एक उत्सव में होना होता है
रंग - बिरंगे मेले में होना है
मुकेश इलाहाबादी ---------

इक दिन मुझसे पूछा था न ?

तुमने
इक दिन
मुझसे पूछा था न ?
"मै अक्सर आँखे बंद कर के
क्यूँ बैठा रहता हूँ ?
कोई पूजा पाठ या
मन्त्र जाप तो नहीं करता रहता हूँ "
और,
तब मैं
तुम्हारी इस बात को
हंस के टाल गया था
पर अब आज तुम्हे बताता हूँ
तो सुनो
जब तुम मेरे पास आती थी
बैठती थी हँसती / खिलखिलाती
मुँह चिढ़ाती
तब मै तुम्हरी इन सभी बातों को
चुपके से
अपनी आँखों की डिब्बी में रख लेता था
और मन की पलकों ढक्क्न लगा देता था
ताकि
तुम्हे जुदा होने के बाद भी
तुम्हे यूँ ही हँसता खिलखिलाता देख सकूं
क्यूँ ???
समझ में आया मेरी पग्गो रानी
मेरी सुमी रानी ???
मुकेश इलाहाबादी --------------

मज़दूर दिवस पे

बेहतर
होता मज़दूर दिवस पे
ऐ सी में बैठ के
कंप्यूटर/लैपटॉप या मोबाइल पे
मज़दूरों पे कविता लिख के
लाइक बटोरने की जगह
एक दिन ख़ुद
अपनी पीठ पे बोझा ढोते
सुपरवाइसर की वजह बेवज़ह गलियां खाते
बेबसी ओढ़ते
मजबूरी बिछाते
भूखे सोते
आंसू पीते
अपने अधिकारों से वंचित होते
और फिर मज़दूर दिवस पे कविता लिख के
उनके साथ गाते
जबकि हमें अच्छी तरह मालूम है
मज़दूर दिवस पे लिखी एक भी कविता
एक भी मज़दूर नहीं पढ़ेगा
क्यों कि अधिकांश अपढ़ होंगे
जो पढ़ भी सकते होंगे वे
भूख पढ़ेंगे
मजबूरी पढ़ेंगे
ज़िल्लत और ज़हालत पढ़ेंगे
या हमारी कविता पढ़ेंगे ??/
मजदूर
को कविता की नहीं
उचित मजदूरी की ज़रुरत है
मजदूर को
मजदूर दिवस पे बधाइयों और
भाषणों की नहीं
रोज़ मर्रा के जीवन में सम्मान
और बराबरी का एहसास चाहिए
मजदूर दिवस पे
क्या हमने किसी मजदूर की ज़्याती ज़िंदगी
के दर्द को महसूसा ??
क्या इस एक महीने के लॉक डाउन में जा के
उनकी झोपड़ी में देखा ??
अगर नहीं तो
हमें मज़दूर दिवस पे कविता लिखने का कोइ
अधिकार नहीं है
लिहाज़ा
इस मज़दूर दिवस पे
कविता लिख के लाइक बटोरना बंद किया जाए
और वास्तिवक कविता लिखी जाए
साल में एक दिन खुद मज़दूर बना जाए
मुकेश इलाहाबादी --------------