Tuesday, 31 July 2012
Monday, 30 July 2012
सर्द मौसम मे सुलगते से होंठ
बैठे ठाले की तरंग ----------------
सर्द मौसम मे सुलगते से होंठ
हैं दिल में आग लगाते ये होंठ
किस बेख़याली मे काटें हैं ये होंठ
लहू के चंद कतरे बताते हैं ये होंठ
दर्द नाकाबिले बरदास्त होने पर
खुद ब खुद भिंच जाते हैं ये होंठ
बेटे के माथे से लगाते वक़्त
ममता की गंगा बहते हैं ये होंठ
सुर्ख लबों को छूने को बेताब
इज़हारे मुहब्बत को लरजते से होंठ
अब कोई किस्सा कहते नही हैं
हालात ने सिल दिये किस्सेबाजों के होंठ
सर्द मौसम मे सुलगते से होंठ
हैं दिल में आग लगाते ये होंठ
किस बेख़याली मे काटें हैं ये होंठ
लहू के चंद कतरे बताते हैं ये होंठ
दर्द नाकाबिले बरदास्त होने पर
खुद ब खुद भिंच जाते हैं ये होंठ
बेटे के माथे से लगाते वक़्त
ममता की गंगा बहते हैं ये होंठ
सुर्ख लबों को छूने को बेताब
इज़हारे मुहब्बत को लरजते से होंठ
अब कोई किस्सा कहते नही हैं
हालात ने सिल दिये किस्सेबाजों के होंठ
मुकेश इलाहाबादी -------------
Friday, 27 July 2012
Thursday, 26 July 2012
अब वफ़ा भी तुम हो बेवफा भी तुम हो
अब वफ़ा भी तुम हो बेवफा भी तुम हो
ज़िन्दगी और मौत का सामाँ भी तुम हो
बहारे ज़िन्दगी की कलियाँ हो तुम, और
साख से गिरती हुई पत्तियां भी तुम हो
मुहब्बत भी तुम हो शिकायत भी तुम हो
मेरा जिस्म भी हो औ मेरी जाँ भी तुम हो
शीशे सी है तुम्हारी ज़वानी, कैसे कह दूं कि
मेरा चेहरा भी तुम हो औ आईना भी तुम हो
मुकेश इलाहाबादी -------------------------
Wednesday, 25 July 2012
कफस तोड़ के अब नहीं जाते ये शहर के परिंदे
कफस तोड़ के अब नहीं जाते ये शहर के परिंदे
कुछ इतने आरामतलब हो गए ये शहर के परिंदे
कुछ फलक भी जल रहा है यूँ आग के शोलों से
कि चाह के भी उड़ नहीं पा रहे हैं ये शहर के परिंदे
कफस की तीलियाँ तोड़ने को बेताब जवान परिंदे
अपने पर कटवा के बैठे हैं, जाबांज शहर के परिंदे
मुकेश इलाहाबादी --------------------------------------
Tuesday, 24 July 2012
महक।
पिता के कोट
व पीठ से एक आदिम सी
महक उठा करती थी
जो
हम बच्चों को बहूत तीखी
पर अच्छी लगती
मै तो अक्सर
नथूनो व सीने को फुलाकर
ढेर सी महक
अपने अंदर भर लेता
और -----
वह महक
धीरे धीरे
सांसों मे घुल कर
मेरे अस्तित्व को
कवच कुण्ड़ल सा घेर लेती
और बचा जाती
न जानी कितनी बारिस व तूफान से
इसी तरह मॉ के
आंचल व गोद मे भी
एक भीनी भीनी
खुशबू रहा करती जो
हर वक्त हमारे चारो और
विरल हो कर
पिता की महक
के साथ घुल मिल कर व
रच बस कर
चारों ओर बसी रहती
यही नही
मुझे तो अपनी
बहन के दुपटटे मे भी एक
प्यारी सी सुगंध उठती सी
दिखायी देती
पर एक दिन
एक अलग सी
अजानी खुशबू
पत्नी के नथूनों से टकरायी
जो अब मेरे अस्तित्व को ही
महका ओर चहका रही है
इन तमाम खुशबुओं
साथ घुलमिल के मै भी महमना चाहता हूं
किसी खुशबू सा
अपने बच्चों के लिये
और उन सब के लिये जिनकी खुशबू से
मै भी खिल रहा हूं किसी फूल की तरह
व पीठ से एक आदिम सी
महक उठा करती थी
जो
हम बच्चों को बहूत तीखी
पर अच्छी लगती
मै तो अक्सर
नथूनो व सीने को फुलाकर
ढेर सी महक
अपने अंदर भर लेता
और -----
वह महक
धीरे धीरे
सांसों मे घुल कर
मेरे अस्तित्व को
कवच कुण्ड़ल सा घेर लेती
और बचा जाती
न जानी कितनी बारिस व तूफान से
इसी तरह मॉ के
आंचल व गोद मे भी
एक भीनी भीनी
खुशबू रहा करती जो
हर वक्त हमारे चारो और
विरल हो कर
पिता की महक
के साथ घुल मिल कर व
रच बस कर
चारों ओर बसी रहती
यही नही
मुझे तो अपनी
बहन के दुपटटे मे भी एक
प्यारी सी सुगंध उठती सी
दिखायी देती
पर एक दिन
एक अलग सी
अजानी खुशबू
पत्नी के नथूनों से टकरायी
जो अब मेरे अस्तित्व को ही
महका ओर चहका रही है
इन तमाम खुशबुओं
साथ घुलमिल के मै भी महमना चाहता हूं
किसी खुशबू सा
अपने बच्चों के लिये
और उन सब के लिये जिनकी खुशबू से
मै भी खिल रहा हूं किसी फूल की तरह
मुकेश इलाहाबादी
Monday, 23 July 2012
औरत किला और सुरंग
एक किला है
जिसमे तमाम
सुरंगे ही सुरंगे हैं
अंधेरे और सीलन से
ड़बड़बाई
एक सुरंग मे घुसो
तो दूसरी
उससे ज्यादा भयावह
अंधेरी व उदासियों से भरी।
एक सुरंग के मुहाने मे खडा़
सुन रहा था
सीली दीवारो की
सिसकियों कों
दीवार से कान लगाये
हथेलियां सहलाते हुए
उस ताप और ठंड़क को
महसूस करने लगा
एक साथ
जो न जाने कब से कायम थे
शायद तब से जब से
जब से इस किलें में अंधेरा है
या तब से,
जब से ईव ने
आदम का हर हाल मे
साथ देने की कसम खायी
या फिर जब
प्रक्रित से औरत का जन्म हुआ
तब से या कि जब से
ईव ने आदम के प्रेम में पड़ कर
सब कुछ निछावर किया था
फिर सब कुछ सहना शुरू कर दिया था
सारे दुख तकलीफ
धरती की तरह
या किले की सीली दीवारों की तरह
मै उस अधेरे मे
सिसकियां ओर किलकारियां
भी सुन रहा था एक साथ
उस भयावह अंधेरे मे
अंधेरा अंदर ही अंदर
सिहरता जा रहा था
कान चिपके थे
किले की
पुरानी जर्जर दीवारों से
जों
फुसफुसाहटों की तरह
कुछ कहने की कोशिश
मे थी, किन्तु कान थे कि सुन नही पा रहे थे
मन बेतरह घबरा उठा और मै
बाहर आ गया
उदास किले की सीली सुरंगों के भीतर से
जो उस औरत के अंदर मौजूद थीं
न जाने कब से
शायद आदम व हव्वा के जमाने से
मुकेश इलाहाबादी
Sunday, 22 July 2012
Tuesday, 17 July 2012
Monday, 16 July 2012
Sunday, 15 July 2012
Friday, 13 July 2012
अपने ही शहर में कोई, अपना नहीं मिलता
अपने ही शहर में कोई,
अपना नहीं मिलता
कभी ज़मी नहीं मिलती, तो
कभी आसमाँ नहीं मिलता
हर शख्श है यंहा तीश्नालब,
मगर किसी को,
कभी दरिया नहीं मिलता, तो
कभी समंदर नहीं मिलता
बुलंद हो रही हैं इमारतें तमाम
मगर इन इमारतों के बीच
कभी घर नहीं मिलता, तो
कभी मकाँ नहीं मिलता
यूँ तो बाज़ार खुल गए हैं
हर सिम्त मगर, मगर
कभी मुहब्बत नहीं मिलती, तो
कभी ईमान नहीं मिलता
चिटकती धुप में निकला हूँ
मगर इस शहर में मुकेश
कभी छांव नहीं मिलती, तो
कभी ठांव नहीं मिलता
मुकेश इलाहाबादी ------------
Thursday, 12 July 2012
प्रेम क्या है - मेरे व्यक्तिगत नोट्स किसी मित्र के लिए ----------------------------
'प्रेम' परिभाषा और अर्थ ---------
‘प्रेम’ के सम्बंध मे आपकी क्या अवधारणा है यह तो मुझे नही मालूम पर इस सन्दर्भ में मेरे अपने विचार कुछ इस तरह से हैं ।हो सकता है कई स्तरों पर आप हमारी बात से सहमति न रखती हों पर अपने विचारों को व्यक्त करने की अनुमति जरुर चाहूंगा ।
इस संर्दभ में मेरा अध्यन मनन चिंतन कुछ इस तरह से उभर कर आता है।
वस्तुतः ‘प्रेम’ शब्द में हम यदि ‘प’ से प्रक्रति और ‘र’ से रवण यानी क्रिया व ‘म’ से पुरुष का बोध लें तो यह बात बनती है कि जब प्रक्रिति, पुरुष के साथ रवण या क्रिया करती है तो जीवन की जडों में एक धारा प्रवाहित होती है। जिसे ‘प्रेम’ की संज्ञा दी जा सकती है। यह प्रेम धारा ही उस जीवन को पुष्पित व पल्लवित करती रहती है साथ ही पुर्ण सत्य के खिलने और सुवासित होने देने का अवसर प्रदान करती है। यह धारा जीवन के तीनो तलों शरीर, मन और आत्मा के स्तरों पर बराबर प्रवाहित होती रहनी चाहिये। यदि यह धारा किन्ही कारणों से किसी भी स्तर पर बाधित होती है तो जीवन पुष्प या तो पूरी तरह से खिलता नही है और खिलता है तो शीघ्र ही मुरझाने लगता है।
यही रस धार यदि प्रथम तल तल पर रुक जाती है तो उसे वासना कहते है। यदि यह मन पर पहुचती है तो उसे ही लोक भाषा में या सामान्य अथों में ‘प्रेम’ कहते हैं। और फिर जब यह रसधार आगे अपने की यात्रा पर आत्मा तक पहुंचती है तब उसे ही ‘सच्चा प्रेम’ या आध्यात्मिक प्रेम कहते हैं। और उसके आगे जब ये रसधार गंगासागर में पंहुचती है तो वह ही ब्रम्ह से लीन होकर ईष्वर स्वरुप हो जाती है।
प्रेम रूपी रस धार का पहला पड़ाव -- शरीर -
प्रेम की धारा जब गंगोत्री से निकलती है तो उसका पहला पड़ाव भौतिक शरीर है।
भारतीय दर्षन में ‘प्रेम’ को भी ‘तत्व’ माना गया है जो जड़ है। पर यह प्रक्रित की सूक्ष्म अवस्था है। शरीर भी प्रक्रति है पर यह है ठोस अवस्था। जब प्रेमधार सूक्ष्म रुप में आगे बढ़ती है तब प्रेम व शरीर सम तत्व होने के कारण एक दूसरे को आर्कषित करते है। लिहाजा, शरीर विरल हो के ‘प्रेमतत्व’ के साथ घुलना मिलना चाहता है। ‘प्रेमतत्व’ भी शरीर के साथ एकाकार होना चाहता है। तब शरीर कॉमाग्नि से उष्मित होकर, विरल हो कर शरीर के साथ एकाकार हो जाता है, और ‘प्रेम’ एक द्वार पार कर जाता है।
अब चूंकि समाज किन्ही कारणों से ‘कामाग्नि’ को हेय समझता है। इसलिये बहुत से प्रेमी प्रेम के पहले पड़ाव ‘शरीर’ की उपेक्षा कर जाने को अच्छा समझते हैं। और इसे प्रेम की आदर्श स्थिति’ समझते है। पर मेरे देखे यह कोई बहुत अच्छी स्थिति नही होती। क्योंकि इस प्रकार के प्रेम में अंत तक एक अतृप्ति बनी ही रहती है। और आगे की यात्रा भी अवरुद्ध हो जाती है।
अतह हम कह सकते हैं कि ‘प्रेमधारा’ वासना के द्वार से गुजर के ‘लौकिक प्रेम’ के राज्य में प्रवेष करती है। अन्यथा वह गंगोत्री में ही सिमट के रह जाती है। और वहीं गोमुख में ही बूंद बूंद गिर कर किन्ही अरण्यों में खो जाती है।
लेकिन ज्यादातर मौकों पर महज शारीरिक स्तर पर मिलने वाले प्रेमी इस पहले द्वार पर ही अटक जाते हैं, कारण शरीर के तल पर मिलन मात्र मिलना और स्खलित हो जाना नही है। उसमें भी शरीर के पांचो तत्व क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा अपने अपने तंमात्राओं रुप, रस, गंध स्पर्ष और शब्द के साथ अपने अपने उपादानों द्वारा जब तक एकाकार नही हो जाते तब तक यह शरीर तरल नही होता। इसका पूरा का पूरा विज्ञान ‘तंत्र शाश्त्र’ ने विकसित किया है।
लेकिन इस तल को पार करने में दूसरे सोपान के मुख्य तत्व ‘मन’ व तीसरे सोपान का प्रमुख घटक ‘आत्मतत्व’ की भी महती भूमिका होती है।
जिसकी चर्चा आगे के पत्रों में होती रहेगी।
मुकेश इलाहाबादी
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