'प्रेम' परिभाषा और अर्थ ---------
‘प्रेम’ के सम्बंध मे आपकी क्या अवधारणा है यह तो मुझे नही मालूम पर इस सन्दर्भ में मेरे अपने विचार कुछ इस तरह से हैं ।हो सकता है कई स्तरों पर आप हमारी बात से सहमति न रखती हों पर अपने विचारों को व्यक्त करने की अनुमति जरुर चाहूंगा ।
इस संर्दभ में मेरा अध्यन मनन चिंतन कुछ इस तरह से उभर कर आता है।
वस्तुतः ‘प्रेम’ शब्द में हम यदि ‘प’ से प्रक्रति और ‘र’ से रवण यानी क्रिया व ‘म’ से पुरुष का बोध लें तो यह बात बनती है कि जब प्रक्रिति, पुरुष के साथ रवण या क्रिया करती है तो जीवन की जडों में एक धारा प्रवाहित होती है। जिसे ‘प्रेम’ की संज्ञा दी जा सकती है। यह प्रेम धारा ही उस जीवन को पुष्पित व पल्लवित करती रहती है साथ ही पुर्ण सत्य के खिलने और सुवासित होने देने का अवसर प्रदान करती है। यह धारा जीवन के तीनो तलों शरीर, मन और आत्मा के स्तरों पर बराबर प्रवाहित होती रहनी चाहिये। यदि यह धारा किन्ही कारणों से किसी भी स्तर पर बाधित होती है तो जीवन पुष्प या तो पूरी तरह से खिलता नही है और खिलता है तो शीघ्र ही मुरझाने लगता है।
यही रस धार यदि प्रथम तल तल पर रुक जाती है तो उसे वासना कहते है। यदि यह मन पर पहुचती है तो उसे ही लोक भाषा में या सामान्य अथों में ‘प्रेम’ कहते हैं। और फिर जब यह रसधार आगे अपने की यात्रा पर आत्मा तक पहुंचती है तब उसे ही ‘सच्चा प्रेम’ या आध्यात्मिक प्रेम कहते हैं। और उसके आगे जब ये रसधार गंगासागर में पंहुचती है तो वह ही ब्रम्ह से लीन होकर ईष्वर स्वरुप हो जाती है।
प्रेम रूपी रस धार का पहला पड़ाव -- शरीर -
प्रेम की धारा जब गंगोत्री से निकलती है तो उसका पहला पड़ाव भौतिक शरीर है।
भारतीय दर्षन में ‘प्रेम’ को भी ‘तत्व’ माना गया है जो जड़ है। पर यह प्रक्रित की सूक्ष्म अवस्था है। शरीर भी प्रक्रति है पर यह है ठोस अवस्था। जब प्रेमधार सूक्ष्म रुप में आगे बढ़ती है तब प्रेम व शरीर सम तत्व होने के कारण एक दूसरे को आर्कषित करते है। लिहाजा, शरीर विरल हो के ‘प्रेमतत्व’ के साथ घुलना मिलना चाहता है। ‘प्रेमतत्व’ भी शरीर के साथ एकाकार होना चाहता है। तब शरीर कॉमाग्नि से उष्मित होकर, विरल हो कर शरीर के साथ एकाकार हो जाता है, और ‘प्रेम’ एक द्वार पार कर जाता है।
अब चूंकि समाज किन्ही कारणों से ‘कामाग्नि’ को हेय समझता है। इसलिये बहुत से प्रेमी प्रेम के पहले पड़ाव ‘शरीर’ की उपेक्षा कर जाने को अच्छा समझते हैं। और इसे प्रेम की आदर्श स्थिति’ समझते है। पर मेरे देखे यह कोई बहुत अच्छी स्थिति नही होती। क्योंकि इस प्रकार के प्रेम में अंत तक एक अतृप्ति बनी ही रहती है। और आगे की यात्रा भी अवरुद्ध हो जाती है।
अतह हम कह सकते हैं कि ‘प्रेमधारा’ वासना के द्वार से गुजर के ‘लौकिक प्रेम’ के राज्य में प्रवेष करती है। अन्यथा वह गंगोत्री में ही सिमट के रह जाती है। और वहीं गोमुख में ही बूंद बूंद गिर कर किन्ही अरण्यों में खो जाती है।
लेकिन ज्यादातर मौकों पर महज शारीरिक स्तर पर मिलने वाले प्रेमी इस पहले द्वार पर ही अटक जाते हैं, कारण शरीर के तल पर मिलन मात्र मिलना और स्खलित हो जाना नही है। उसमें भी शरीर के पांचो तत्व क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा अपने अपने तंमात्राओं रुप, रस, गंध स्पर्ष और शब्द के साथ अपने अपने उपादानों द्वारा जब तक एकाकार नही हो जाते तब तक यह शरीर तरल नही होता। इसका पूरा का पूरा विज्ञान ‘तंत्र शाश्त्र’ ने विकसित किया है।
लेकिन इस तल को पार करने में दूसरे सोपान के मुख्य तत्व ‘मन’ व तीसरे सोपान का प्रमुख घटक ‘आत्मतत्व’ की भी महती भूमिका होती है।
जिसकी चर्चा आगे के पत्रों में होती रहेगी।
मुकेश इलाहाबादी
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