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Thursday, 31 December 2015

बात अपनी हम बताने कहाँ जाए

बात अपनी हम बताने कहाँ जाए
ग़म अपना हम सुनाने कहाँ जाए
लोग  हाथों  में पत्थर लिए बैठे हैं
ऐसे में हम सर छुपाने कहाँ जाएँ
चोट पे नमक छिड़क देते हैं लोग
ऐसे में ज़ख्म दिखाने  कहाँ जाएँ
जाने किधर रूठ के तुम चले गए
बेगाने शहर में ढूंढने कहाँ जाएँ ?
तुम भी नहीं हो शहर में, ऐसे में
नया साल हम मनाने कहाँ जाएँ 
हर शख्श ग़मज़दा दिखता यहाँ
मुकेश बता मुस्कुराने कहाँ जाएँ 

मुकेश इलाहाबादी -----------------

सिलसिला बनाये रखिये

सिलसिला बनाये रखिये
दोस्ती  निभाए   रखिये
हार गए हो तो भी क्या
हौसला  बनाये  रखिये
फल  मिले  या न मिले
प्रेम पौध लगाये रखिये  
भले कोई कांटे बोता रहे
आप फूल खिलाये रखिये
मुकेश इलाहबदी ------

Wednesday, 30 December 2015

जुएँ बीनती औरत



अक्सर
जब
थके बदन
कम हीमोग्लोबिन
वाली औरत
धूप में बैठ
दूसरी अपनी जैसी
औरत के बालों से
जूएँ बीन रही होती है
तब दरअसल वह
अपने दुःख बीन रही होती है 
ज़मीन पे रख के
अंगूठे पे तर्जनी के दबाव पे
अपना क्षोभ, गुस्सा और हताशा
जुएँ को मार के निकाल रही होती है

औरत जब दूसरी औरत के सिर से
जुएँ निकल कर मार रही होती है

मुकेश इलाहाबादी -----------------

मौलिक और अप्रकाशित

जुएँ बीनती औरत

तुम इतना न, लाड दिखाया करो

तुम इतना न, लाड दिखाया करो
कभी तो मुझपे गुस्सा हुआ करो

तुम बिन अब जिया लगता नहीं
मुझे छोड़ कर न तुम जाया करो

माना कि गुस्से में प्यारे लगते हो
जब प्यार करूँ तो मुस्काया करो

मुकेश बिखरी बिखरी मेरी लट 
अपनी उंगली से सुलझाया करो

तुम इत्ती प्यारी ग़ज़लें कहते हो
कभी तो मेरे लिए भी गाया करो

मुकेश इलाहाबादी -----------------

मेरा नाम सुन के मुस्कुराते हैं


मेरा नाम सुन के मुस्कुराते हैं
या  फिर लोग खफा हो जाते हैं

कुछ तो अलहदा होगा मुझमे 
लोग यूँ ही नहीं खिचे आते हैं  

अपनों का सुःख दुःख मेरा है
सब अपनी बात बता जाते हैं

मुकेश नेकियाँ भूल कर सभी
वक़्त पे गलतियाँ गिनाते  हैं

मुकेश इलाहाबादी -----

जब अँधेरा घना होता है


जब अँधेरा घना होता है
साया  भी  जुदा  होता है
डाल से बिछड़ के फूल
फिर जाने कहाँ होता है
पास माँ और गुब्बारा हो
खुश तब बच्चा होता है
सावन के अंधे के लिए
चारों तरफ हरा होता है
मुकेश चराग़ के तले तो
हमेशा ही अँधेरा होता है

मुकेश इलाहाबादी -----

गर हमको अपनी आँख का काजल बना लिया होता

गर हमको अपनी आँख का काजल बना लिया होता
तेरी ख़ूबसूरती में कुछ और ही निखार आ गया होता
सुना है बातचीत में तुम्हे एहसास ऐ नाज़ुकी पसंद है
मै भी तुम्हारे नाज़ुक कदमो पे चाँदनी सा बिछा होता
लोग तो मेहबूब बातोँ के चाँद सितारे तोड़ लाते होंगे
ग़र तूने कहा होता मै खुदबखुद सितारा बन गया होता

मुकेश इलाहाबादी -------------------------------------

Tuesday, 29 December 2015

देखो सूरज कितना प्यारा है

देखो सूरज कितना प्यारा है
मै भी आग वो भी अंगारा है

मल ली,राख फकीरी की,तो 
क्या अपना क्या तुम्हारा है

घूम - घूम कर दुनिया देखी
हर कोई तो ग़म का मारा है

ग़र  राम  नाम  की  नैया है,
फिर तो दूर कहाँ किनारा है

हो दीन दुःखी या रोगी कोढ़ी
कान्हा हमसब का सहारा है

मुकेश इलाहाबादी ----------

तेरी खुश्बू आस पास है

तेरी खुश्बू आस पास है
बस  यही  ख़ास बात है 

मेरा - तेरा मिलना भी
इक हसीन इत्तफ़ाक़ है

सुबहो शाम की बेचैनी
ये ईश्क की शुरुआत है

ये फूल कलियाँ बेमानी
मेरे लिए तू ही गुलाब है

चाँद सितारे दुनिया के
तू  ही  मेरा महताब  है

मुकेश इलाहाबादी -----

सुब्ह धुली धुली लगती है


सुब्ह धुली धुली लगती है
ओस  में  नहाई लगती है

गलियों से जब गुज़रे तू
सचमुच हिरनी लगती है

जब भी तू मुझपे हंसती है
तू  बेहद  प्यारी  लगती है

तेरी आँखें गंगा - जमना 
नदी  सी  बहती लगती है

जाने ऐसा क्या है गोरी तू
मुझको अपनी लगती है

मुकेश इलाहाबादी ------

Monday, 28 December 2015

दिन के ख्याल रात के ख़्वाबों में मिलता कौन है

दिन के ख्याल रात के ख़्वाबों में मिलता कौन है
ऐ सितमगर गर तू नहीं तो सच सच बता कौन है

साँझ से ही मेरे छत व आँगन में चांदनी चांदनी है
गर तू चाँद नहीं, तो चाँदनी सा  बिखरता कौन है ?

मुकेश मुद्दतों हुई मेरे घर बसंत आया ही नहीं,
गर तू नहीं तो मेरे आस पास महकता कौन है

मुकेश इलाहाबादी --------------------------------

बज़्म में तेरी मौजूदगी है

बज़्म में तेरी मौजूदगी है
तभी तो खुश्बू खुश्बू सी है
जबसे तुझसे मिला हूँ मै
तभी से दिल में बेकली है
तू सिर्फ तू ही वज़ह, मेरी
शामो सह्र की आवारगी है
मेरी धड़कन और साँसे तू
मेरी अब तू ही ज़िंदगी है
तेरा इश्क ही पूजा मेरी
मुकेश अब यही बंदगी है
मुकेश इलाहाबादी ---------

Sunday, 27 December 2015

तेरा ग़म है और तेरी यादें हैं

तेरा ग़म है और तेरी यादें हैं
मेरे पास सिर्फ यही बातें हैं
सूरज चाँद सितारे तेरे साथ
साथ अपने तो स्याह रातें हैं
लोग फूल लिए बैठे हैं, वहाँ
यहाँ हमारे हाथ में अंगारे हैं
गर तुमको पसंद नहीं दोस्त
बज़्म से हम ही चले जाते हैं 
मुकेश इलाहाबादी ----------

ठोकरों से हम लड़खड़ा क्या गए

ठोकरों से हम लड़खड़ा क्या गए
लोग समझे हम नशे में आ गए

बात हमने हंसने हंसाने की, की
ज़माने वाले हमको ही रुला गए

हम आये थे दास्ताँ अपनी कहने
लोग अपनी ही कहानी सुना गए

मैंने ग़ज़ल में तेरा नाम  लिक्खा
लोग आये हर्फ़ दर हर्फ़ मिटा गए

निकले तो थे हम मैखाने के लिए
मुकेश हम फिर तेरे दर पे आ गए

मुकेश इलाहाबादी ----------------

Wednesday, 23 December 2015

सच बोलना आदत है

सच बोलना आदत है
खुद्दारी मेरी ताकत है 

है  ईश्क  मेरा ईमान
मेहनत ही इबादत है

घर हो या फिर बाहर
हर और सियासत है

गूँगों का शहर है और 
बहरों के अदालत है

ढूंढता हूँ बस्ती बस्ती
बची कहाँ शराफत है

मुकेश इलाहाबादी -----

रात तुम हँसी थी छत पे

रात
तुम हँसी थी
छत पे 
चाँदनी बिछ गयी थी
और
हरश्रृंगार बरसे थे
अब सुबह
कोहरे को छांट के
तुम्हारी यादों की धूप
बिखरी है जिसकी गुनगुनी धूप में
भीगा है तन बदन मेरा

मुकेश इलाहाबादी -----------

तितलियों से रंग

तितलियों से रंग
फूलों से खुशबू
बादलों से स्याही
लाया हूँ
खाली कैनवास में
तेरी तस्वीर बनाऊंगा
मगर
उस तस्वीर में
तेरी मुस्कान और ताज़गी
कहाँ से लाऊँगा ???

मुकेश इलाहाबादी ---------

Monday, 21 December 2015

समंदर हूँ सूरज ने मुझे सुखाया बहुत

समंदर हूँ सूरज ने मुझे सुखाया बहुत
बादल बना औ हरबार मै बरसा बहुत

तवा,तलवार,तमंचा और हथौड़ा बना
लोहा हूँ आग में खुद को गलाया बहुत

फल दिया, फूल दिया और खुशबू दी
पेड़ हूँ इंसानो के लिए मै उजड़ा बहुत

कोड़े, जीन, नकेल और पैरों में नाल
घोडा हूँ दौड़ा और हिनहिनाया बहुत

ज़ख्म देकर लोग तो रुलाने पे तुले थे
ये और बात जोकर बन,हंसाया बहुत 

मुकेश, जो लोग खंज़र लिए फिरते थे
उन्ही लोगों को मैंने गले लगाया बहुत

मुकेश इलाहबदी -----------------------

Friday, 18 December 2015

तुम पहली बार मिली थी

तुम पहली बार मिली थी
वह शाम - ऐ-जनवरी थी

दिल की बंज़र ज़मीं पर
ईश्क की कली खिली  थी

तेरी वो मासूम मुस्कान, 
ज्यूँ ,कोई तितली उड़ी थी  

ख्वाब के गगन में,मगन
प्यार  की  पतंग  उड़ी थी

मुझे जो अच्छी लगी, वो 
सिर्फ और सिर्फ सुमी थी

मुकेश इलाहबदी --------

बदन पे हमारे खुशबू का लिबास है

बदन पे हमारे खुशबू का लिबास है
सफर में अपना तो फूलों का साथ है

लोगों के हाथ में गीता और कुरआन
मेरे पास तो मुहब्बत की किताब है 

लोग हैं, कि  दरिया लिए फिरते हैं
पास अपने, तेरी आँखों का जाम है

फ़लक, चाँद और सितारे भी ले लो
मुकेश, पास मेरे तो मेरा महताब है


मुकेश इलाहाबादी --------------------

तुम कहते हो तुम्हे भूल जाऊं

तुम कहते हो
तुम्हे भूल जाऊं
ये क्यूँ नहीं कहते, दुनिया छोड़ जाऊं

छीन कर मुझसे,
मेरी खुशियाँ
ज़माना कहता है, ' मै मुस्कुराऊँ '
ज़ालिम
अदाओं के
तीर चलाता है
फिर ये कहता है
'मै अपने ज़ख्म न गिनवाऊँ '

ऐ ख़ुदा ! अब तू ही बता
तेरी ये दुनिया छोड़
मै कहाँ जाऊँ ??

मुकेश इलाहाबादी -------------------

अरमानो के फ़लक पे

अरमानो के
फ़लक पे
तेरी यादों की बुलबुल
देर और बहुत देर तक
पंख फड़फड़ाती है
चहचहाती है
फिर न जाने कब
थक कर
ख्वाबों के डैनों पे
अपनी चोंच रख
सो जाती है
एक बार फिर से
उड़ने और चहचाने के लिए
 
(सुमी -- सुन रही हो न ?? -
सो तो नहीं गयी ?? )

Thursday, 17 December 2015

धुआं बनाम गुलाब

धुआं बनाम गुलाब
‘एक बेहद अच्छे इंसान व दोस्त, सुरेंद्र पवार जी को नज़र . जिनकी ज़िंदगी से यह कहानी चुरायी है’
बाल्कनी से ताजा खिलें फूलों की भीनी भीनी खुषबू उसे पूरा का पूरा कब भिगो गयी राजा को पता ही न लगा। राजा को यह भी पता न लगा कब सुबह की नर्म मुलायम गुलाबी किरणों ने चुपके से आ के रात के अंधेरे को, व ओस की बूंदों को सोखना षुरु कर दिया था। पंक्षियो की चहचह और फूलों की खुषबू से चारों तरफ एक उत्सव सा लगने लगा था। यही सुबह तो रोज होती थी। सूरज तो रोज खिलता था। हवा रोज ही तो चलती थी। फूल तो रोज ही खिलते थे। पर राजा क्यों नही देख पाता था। क्यों नही इन खुषबुओं को अपने नथूनों में भर पाता था। क्यांे नही इन किरणों को आखों से पीने की ख्वाहिष होती थी। सना का जादू भी तो न जाने कब धीरे धीरे चुपकेे चुपके उसके वजूद को घेरने लगा था। सना का जादू ही तो है जो हर चीज को हर बात को हर एहसास को यहां तक की राजा को पूरा का पूरा बदल दे रहा है। अगर नही तो फिर यह सुबह पहले की तरह उदास क्यों नही लगती। क्यों उसे नही लगता कि यह वही तो सूरज है जो रोज रोज उगा करता है। यह वही तो गुलाब व गेंदा हैं जो उसी तरह गुलाबी व पीले रंग में उगते हैं। पर अब क्यों गुलाब और ज्यादा गुलाबी और गंेदा ओैर ज्यादा पीला दिखायी पड़ता है। पर अब क्यों उसे हर चीज नयी नयी लगती है। आफिस जाना क्यों बोझ नही लगता। एक उत्सव मे षामिल होना लगता है। राजा यह सब जितना सोंचता उतना ही अपने आप में मुस्कुराता। पर यह भी जानता कि इस मुस्कुराहट के पीछें एक ऐसा फैसला है जिसे वह अभी तक मुल्तवी किये है। एक ऐसा फैसला जिसमे उसका पूरा का पूरा वजूद सना है। जिसमे एक सना है जो उसकी सारी तपस्या को भंग कर सकती है।
राजा के मन मे उस फैसलें का ख्याल आते ही अजीब सी उदासी तारी हो गयी। हाथों ने खुद ब खुद न जाने कब पैकेट से सिगरेट निकाल के होंठो पे लगा दिया।
राजा जब कभी भी अपने आपको अर्निणय की स्थिति मे पाता तो वह अपने आपको कमरे मे अकेले बंद कर लेता फिर एक दो तीन चार दिनों तक न कहीं आना न कहीं जाना न कोई फोन न किसी से बात चीत बस। राजा रहता और रहता एक निपट निचाट अकेला पन। जिसमे वह सिर्फ सोचता सोचता और सोचता। उस समस्या के हर पहलू पे सुबह से षाम तक षाम से सुबह तक जब तक कि कोई निर्णय नही आ जाता। और अक्सर ऐसा होता कि अचानक या किसी मंथन से उस समस्या का हल निकल ही आता।
आज भी उसने अचानक दो दिन की छुटटी और रविवार को ले कर तीन दिन तक कमरे में ही बंद रहने का फेैसला कर लिया था। रह रह कर एक षेर उसके जहन मे उभर रहा था ....
मै समझता था मुहब्बत की ज़बां खुषबू है
फूल से लोग इसे खूब समझते होंगे
इस दौरान उसे महज सोचना था और सोचना था। सना के बारे मे अपने बारे में सना के भविष्य के बारे मे अपने भविष्य के बारे में। अपने उन सिद्धांतो के बारे मे जो उसके सीने से कवच कुण्ड़ल से चिपके पडे थे। जिन्हे वह निकाल फेंकना चाह के भी नही निकाल पा रहा था। वे तो उसके साथ ही जुडें हैं, और षायद मरने के बाद तक जुडें रहेंगे।
यही सिद्धांत ही तो रहे हैं जिनको ढोते ढोते वह आज एक टूट जाने की स्थिति मे आ चुका है। न जाने कितनी बार टूटा भी है पर हर बार पता नही किस अंदरुनी ताकन ने उसे उबारा है वह खुद भी नही जानता। भले ही उपर से लगे कि इमारत कितनी बुलंद व अच्छी है। पर नीव की कमजोरी तो उसे ही पता है।
कई बार तो भावनाओं के तूफान आये पर हर बार वह अपने आप को बचा लेता। हालाकि एक तूफान के अलावा तो बाकी छुट पुट बारिष की ही जद मे आते है। पर इस बार तो वह लगता है कि टूट ही जायेगा।
पर टूटना फितरत मे नही।
सना। सलोनी नायिका जिसे वह स.ना लिखती है। सना कहाना पसंद करती है। सना खुष्बू ही तो है जो चुपके चुपके से चंदन की भीनी भीनी महक के साथ उसके मन मे फैल चुकी है। पर यह खुषबू उसके वजूद में बिखर के उसे ही पूरा का पूरा बिखेर देना चाहती है।
राजा ने जोर से सांस ली। वह सना को सूंघ लेना चाहता था। यादों मे ही पूरा का पूरा। पर सना तो खुषबू की तरह उड़ रही थी। अब महक दरवाजों और खिडकियों से बह बह के दूर और दूर जा रही थी। राजा खुषबू के लिये खिडकी तक आया तब तक खुषबू उड के दूर कहीं आसमान मे ढेर सारी खुषबुओं मे घुल मिल गयी थी, जिसमे यह पहचानना मुष्किल था, इसमे कौन सी खुषबू सना की है कि कौन सी फिजां की है या कि दूसरी चंपा या चमेली की। पर अब इस वक्त तो वह फिजां की खुषबू ही ढूंढ रहा था।
जो फिजां के गुलाब से गालों से महमह कर के महकती थी। जो इस बुझते हुए अलाव की राख मे न जाने कितनी दूर दबे अंगारों को कुरेद रही थी, जिन्हे वह पता नही कब दफन कर आया था।,
षायद उसी दिन जिस दिन फ़िजा से दूर हुआ था। तब जब उसने अपने व फ़िजा के घर के रास्ते मे पडने वाले कब्रिस्तान मे ही उन यादों को दबा दिया था। और उस दिन के बाद आज तक उसने कभी भी मुहब्बत की घाटी मे दुबारा न झांका था। उसे विष्वास था कि दुनिया मे सिर्फ एक फ़िजा थी जो उसके लिये थी और अब कोई दूसरी फ़िजा नही हो सकती। हुआ भी यही। इतनेे सालों तक वह अपने आप मे मगन रहता सुबह से षाम तक कभी पल दो पल की फुरसत भी मिली तो ‘और भी ग़म हैं ज़माने मे मुहब्बत के सिवाय’ यह सोच किन्ही और कामो मे अपने आप को उलझाता रहा।
पर वह तो हर वक्त फ़िजा के आबनूसी गेसुओं में ही उलझा रहता था। जब भी रात होती तो लगता यह चांद फिजां के काली घनी अलकावलियों में ही तो खिला है। जो रात भर यादों की भीनी सी चांदनी बरसाता रहता और राजा उसी मे धीरे धीरे भीगता रहता। मन से दिल मे दिल से और भीतर और भीतर तक। फिर न जाने कब यह रात चुपके चुपके कहीं हवाओं मे और फ़िजाओं मे खो जाती और फिर चांद सूरज बन हल्की हल्की सी तपन के साथ उसके तन व मन से यादों के मोती चुन के फिर दूसरी यादों के झोंको से सेंकती रहती। राजा घर मे हो या आफिस मे राजा बस मे हो या पैदल। राजा यहां हो कि वहां। जहां जहां भी जाता फिजां संग संग ड़ोलती हंसती मुस्कुराती। वह राजा के साथ एक साये सी लगी रहती। कभी कभी तो राजा अपने आप से भी झुंझला जाता। फिर इन यादों को मय मे ड़ुबो देना चाहा पर यह भी न हो पाया।
सिगरेट का एक लम्बा कष खींच के ढेर सा धुआं उगल दिया राजा ने। कमरे में अब गुलाब गेंदा की महक मे धुएं की तीखी महक भर गयी।
फिजां गुलाब सी गुलाबी व षोख तो सना गंेदा सी खिली खिली सरसों सी पीली। और राजा धुआं।
चाहता तो वह गुलाब की महक से अपने को भर सकता था। पर उसी ने तो नही चाहा। और आज जब एक बार फिर किसी फूल ने उसके जीवन को महकाने की हौले से कोषिष की तो वह क्यों उदासीन सा है। यह उसे समझ मे ही नही आ रहा।
अब वह उस अजीब सी महक में से सिर्फ गुलाब को अपने नथुनों मे भर रहा था।
और फ़िजां ग़जल बन गयी।
हां फ़िजां गुलाब ही तो थी। जिसका एक एक अंग गुलाबी। एक एक अदा षराबी। वह जब हंसती तो मूंगे से होंठ खिल जाते। जिसे देख के ही तो उसने जिंदगी का पहला षेर कहा था.........
सर्द मौसम मे सुलगते से होंठ
कुदरत का करिष्मा ही हैं ये होंठ
तब ज्यादा से ज्यादा चुप रहने व कम से कम बोलने वाले राजा को यह नही पता था कि षेेर के काफिये कहां और कैसे तंग होते हैं या झोल खा जाते हैं। पर अनायास ही उसके होंठों से निकली ये चार लाइने ही तो थी जिसने उसे गजल व षेरों व षायरी की दुनिया का रास्ता दिखा दिया था। फिर तब का दिन है और आज का कि राजा सिर्फ षब्दों मे जीने लगा था।
षब्द षब्द और षब्द ही तो बच रहे हेै। उसके पास खैर ...
हंसती खिलखिलाती गुनगुनाती फ़िजां जब भी घर आती घर भर की फ़िजा बदल जाती। मॉ पिताजी व बहन सभी के साथं हंसती ठिठोली करती। सभी को किसी न किसी बात से किसी न किसी चुटकुले से या चुटकुले सी बात से हंसाती रहती गुदगुदाती रहती। बस सबसे कम बोलती तो वह राजा ही था। एक तो राजा के कम बोलने की आदत दूसरे फ़िजां के घर का माहौल भी जो मदों से कम से कम बोलने व मतलब रखने की हिदायत देता रहता था। पर इसके बावजूद वह अक्सर राजा को छेडती और कहती। राजा तो बाजा है। जिसके सारे बैंड व स्विच खराब हैं जो कभी कभी बजता है। और जब बजता है तो बस घर्र घर्र करता है। यह कह के वह खिल्ल से हंस देती। राजा भी बुरा न मानके बस मुस्कुरा के रह जाता।
फ़िजां आयी हो और राजा घर मे है तो वह किसी न किसी बहाने उसे देखने की कोषिष मे रहता। यह बात धीरे धीरे पता नही कैसे फ़िजां को महसूस होने लगी थी।
एक दिन जब उसने उसे चोरी से देखते देख लिया था तो मॅुह चिढ़ा चली गयी थी। तब राजा षरमा के रह गया था।
लेकिन उस दिन के बाद से यह लुका छिपी का खेल अक्सर होने लगा था।
एक दिन राजा ने कागज की पुरजी मे दो लाइने लिख के उसकी तरफ सरका दिया जिसे फ़िजां ने चुपके से उठा लिया।
मूंगा कहें गुलाब कहें जाम से ये होंठ ू
माषूक की पलकों पे सजते हैं ये होंठ
दूसरे दिन फिंजा ने भी एक पुरजी उसकी मेज पे उछाली।
होंठो को अपने न सिल के रखिये
राज़ अपने दिल का ख्ुाल के कहियें।
उस दिन के बाद न जाने कितनी पुरजियां ली और दी जाने लगी। फ़िजां अब उसके लिये गजल बन गयी थी। जिसे वह हर वक्त गुनगुनाता रहना चाहता था।
अब दिन खूबसूरत नदी सा बह रहे थे। जिसमे राजा और फ़िजा छपक छइयां करते।
कभी फिजां फूल बन जाती जिसकी खुषबू को राजा रेषा रेषा पी लेना चाहता कभी। फिजां खूबसूरत झरने सा बहने लगती जिसकी धवल धार मे राजा अठखेलियां करता। तो कभी राजा बादल बन जाता फ़िजां के लिये और फ़िजा बादलों में उडती रहती।
बया सी। बया जो एक सुंदर सा घोंसला बनाने का सपना देखा करती जिसमे बस वह रहती और रहता राजा। राजा भी ऐसा ही कुछ सोंचता और खुष रहता।
मग़र बया का घोसला बना कब ?
राजा ओैर फिजा। फिजां और राजा। बस दो ही थे एक दूसरे की दुनिया मे। बाकी तो दुनिया एक सपना थी।
फ़िजां खुषबू थी रुहानी खुषबू जिसमे राजा ड़ूबता उतराता तो कभी उड़ता दूर दूर आसमान के भी पार। जहां सारा जहां खत्म होता है। रहता है सिर्फ एक ख्वाब महल। जिस ख़्वाब महल मे सिर्फ रहते राजा और फ़िजां। ओैर रहती सिर्फ मुहब्बत मुहब्बत सिर्फ मुहब्बत।
और यह ख्वाब महल हकी़कत का जामा पहन पाता इसके पहले ही। फ़िजां ने कहा।
‘राजा, घर वाले मेरे को जल्दी ही रुखसत करना चाहते है।’
‘क्यों’
‘मम्मी डैडी को लगता है कि वे अपनी जिम्मेदारी जल्दी से जल्दी पूरी करदें। एक रिष्ता आया भी है। लिहाजा तुम जितनी जल्दी हो सके षादी का फैसला करो’
‘पर अभी तो मैने इस बारे मे सोचा ही नही है। वैसे भी जब तक अपने पैरों पे नही खड़ा हो जाता कुछ सोच नही सकता’
‘पर मेरे घर वाले अब रुकने को तैयार नही है।’
‘तुम्हारा क्या ख्याल है। अगर तुम मेरी नौैकरी लगने तक रुक सकती हो तो ठीक है। वर्ना तुम्हारी मर्जी।’
फ़िजां काफी देर चुप रहने के बाद बोली ‘मेरे लिये यह काफी मुष्किल है। अगर अभी कुछ फैसला करो तो घर वालों से कह सुन के कुछ किया जा सकता है।’
पर राजा इतनी जल्दी तैयार न था। षादी के लिये।
कई बार फ़िजा के जोर देने पर भी राजा अपने फैसले पर अड़िग रहा।
इसके बाद बस एक दिन फ़िजां ने ही सूचना दी कि घर वालों ने उसकी षादी की डेट तय कर दी है।
और एक दिन फ़िजां किसी और के बंधन मे बंध गयी।
और राजा ने अपनी मुहब्बत को अपने सीने मे ही दफ़न कर लिया।
न तो राजा रोया न ही ग़म के पैमाने मे डूबा उतराया। बस अब राजा रहता और रहता उसका लेखन।
वह खबरों की दुनिया मे रहता। धीरे धीरे वह एक सफल और सफल पत्रकार व लेखक बनता गया। उसका नाम खबरों की दुनिया मे छपता पर वह अपने आपको गुमनामी के अंधेरे मे ही डुबाये रहता। यहां तक कि,
सावन भादों आते बरस के चले जाते
जेठ बैसाख आते तपा के चले जाते, कोई भी रुत आये या जाये,
राजा के लिये बस - तेरी सांसों की महक फूलों में, लुत्फ़ हर रुत में तेरे प्यार का है।
अब बस राजा रहता और रहती फिजां की याद और ....
धीरे धीरे दिन बीते महीने बीते साल बीते और बीते दो दषक।
राजा जिंदगी की राह मे अकेला ही चलता रहा। फिजां की यादों को लिये दिये।
धीरे धीरे फ़िजां की यादों के साथ वह अपनी जिंदगी आराम से काट रहा था।
तभी। मिली सना। आफिस की एक कम उम्र अल्हड़ सी बाला। जिसे वह एक छोटी से बच्ची समझता। थी भी वह बच्ची। वही बच्ची धीरे धीेरे हंसते बोलेते न जाने कब बेतल्लुफ होने लगी।
और यही बेतकल्लुफी इस हद तक परवान चढी कि कब वह उसकी यादों में कैद हो गयी। फिर कब वह उसकी धडकनों मे कैद हुयी। फिर कब उसकी सांस सांस में समा गयी राजा को कुछ पता ही न लगा।
बस जैसे एक फूल खिला हो और उसकी भीनी भीनी खुषबू नासा पुटों मे अपने आप भर जाती है। सांसों के साथ साथ। बस उसी तरह सना भी राजा की रातों मे सपने की तरह आने लगी।
कई बार राजा ने इन खयालों से पीछा छुटाना चाहा पर बात न बनती। हर बार उसकी मासूम ऑखेे ऑखों के सामने आ जाती तो कभी उसका मासूम जिददीपन याद आ जाता। और वह अकेले मे ही मुस्कुरा देता।
राजा अक्सर उससे कह भी देता .......
तेरी झील सी ऑखों मे अजब भोलापन
मेरी जान न ले ले, तेरा मासूम जिददीपन...... और वह हंस के कहती यही तो मै चाहती हूं। तब राजा आदतन मुस्कुरा के रह जाता। जवाब कुछ न देता।
जिस दिन सना न आती लगता कुछ खो सा गया है। वह रहता तो आफिस मे, पर रोज सा खिलापन न रहता।
इसे राजा अपनी कमजोरी मानता और मन ही मन इससे उबरने की कोषिष करता।
पर हर बार मन व दिल दगा दे जाते।
हार के आज राजा ने फैसला लेने की गरज से अपने आपको इस कैद मे डाल लिया।
राजा सोच रहा था कि यदि सना के प्रति ये लगाव मुहब्बत है तो फ़िजां के प्रति क्या था। और अगर फ़िजां के प्रति प्रेम था तो सना की तरफ आर्कषित होना क्या है। यदि फ़िजां के प्रति उस लडकपन का आर्कषण मानें तो इस उम्र मे कम उम्र के प्रति इतना मोह क्या है। कहीं ऐसा तो नही यह अपने एकाकी पन को भरने की कोषिष है। या रुप का आकर्षण। अगर रुप को कारण माने तो एक से एक खूबसूरत लडकियां या औरतों से मुलाकते होती रही है। बातें होती रही है वे क्यों नही अपने आर्कषण मे बांध पायी। और अगर कोई देैहिक आर्कषण भर है तो वह भी राजा को मंजूर नही। किसी को भोग लेना और फिर छोड़ देना राजा का सिद्धांत नही।
तो राजा क्या करे। फ़िजां की यादों से बेवफाई करे या सना से मुहब्बत। सना से मुहब्बत करे या फ़िजां से बेवफाई।
भले ही फ़िजां उसकी न हो पायी पर उसे तो राजा ने अपना माना है। फिर उसकी यादों से भी वह क्यों कर बेवफाई करे। अगर बेवफाई कर भी ले तो क्या वह अपने आप को फिर माफ कर पायेगा। और फिर अगर यही करना था तो बहुत पहले ही क्यों नही किया। इतने सालों तक क्यों तन्हा भटकता रहा।
मान लो किसी वजह से वह सना की दोस्ती को हवा दे भी देता है तो क्या समाज उसे स्वीकार कर पायेगा। क्या वह समाज से लड़ के उसकी हो पायेगी। और अगर नही तो क्यों फिर से इस म्रगत्र्रष्णा में फंसना।
राजा जितना ही सोंचता उतना ही उलझता जाता। पर राजा जिद किये बैठा था कि जब तक फैसला नही कर लेता कि उसे फ़िजां की यादों के साथ जीना है या फिर सना की दोस्ती कुबूल करना है तब तक उसे कमरे से बाहर नही निकलना है।
राजा के कुछ समझ न आया तो जोर से सांस ली और सिगरेट का ढेर सा धुआं बाहर फेंका मानो वह अपने सारे अंर्तद्धंद को बाहर फंेक देना चाह रहा हो।
ढेर सा धुआं आस पास फैल गया। राजा ने दो तीन कष और जोर जोर से लिये।
फिर एक ही झटके में फैसला किया।
मोबाइल से सना का नंबर डिलीट कर दिया।
कमरे मे फूल की खुषबू तो अभी भी आ रही थी।
उस खुषबू मे जिसमे कुछ महक फ़िजां की तो कुछ महक सना क्ी सनी थी।
और ढेर सारा धुआं था जो राजा के सीने से निकले धुएं मे कहीं खो सी गयी थी।
इस उम्मीद मे कि षायद ..
आग तो बुझ जायेगी बस इक धुआं रह जायेगा
यह धुआं भी रफ़ता रफ़ता फिर कहां रह जायेगा


परती धरती और पहली बारिस
बारिस की हल्की हल्की बूंदो के गिरते ही लगा बरसों की परती पडी धरती थरथरा उठी हो। माटी की पोर पोर से भीनी भीनी सुगंध चारों ओर अद्रष्य रुप से व्याप्त हो गयी थी। लॉन से आ रही हरसिंगार, मोगरा, गुड़हल और

Wednesday, 16 December 2015

छत पे गुनगुनी धूप सा

सर्द मौसम में
जब
कोहरे की चादर
बदन को लपटे होती है
सच
तब,
तुम्हरी यादें
छत पे गुनगुनी धूप सा
बिछ जाती हैं

मुकेश इलाहबदी --

हर महफ़िल में तू दिल की नुमाइश न किया कर

हर महफ़िल में तू दिल की नुमाइश न किया कर
हर किसी से मुहब्बत की फरमाइश न किया कर
छोटा हो,बड़ा इज़्ज़त हर किसी की करनी चाहिए
दोस्त!रिश्तों की तू पैसे से पैमाइश न किया कर
कौन कहाँ और कब तुझसे सवा सेर निकल आये
मुकेश हर किसी से ज़ोर आज़माइश न किया कर

मुकेश इलाहाबादी -----------------------------------

Tuesday, 15 December 2015

सबको गले लगा के रखना


सबको गले लगा के रखना
ग़म सबसे छुपा के रखना

भले तुम बिखर जाओ,पर
घर अपना सज़ा के रखना

जाने कब कौन काम आये
रिश्ता सबसे बना के रखना

राही कोई भटकने न पाये
शाम,दिया जला के रखना

लाख कोई कांटे बोये, तुम
फूल इक खिला के रखना

मुकेश इलाहाबादी -------

प्रेम की गागर लबालब भरी होती है.

कई बार यूँ होता है.
प्रेम की गागर लबालब भरी होती है.
सिर्फ गर्दन खाली होती है.
जो शायद खाली भी नहीं होती, दरअसल
जीवन में पाये प्यार के छलक जाने से उपजा खालीपन होता है.
जिसे व्यक्ति प्यार
देने वाले से इतर किसी जल से भरना चाहता है.
पूरा होना चाहता है.
जो किसी दोस्त किसी हमसफ़र किसी अजनबी से भी
ये चाहत हो उठती है.
शायद इसी खालीपन को भरने में हम अक्सर उम्र गुज़ार देते हैं
उस थोड़े से खालीपन को भरने की खातिर

मुकेश इलाहबदी ----------------------------------------

Monday, 14 December 2015

बोगन बेलिया के फूलों की पत्तियां

सुमी,

जानती हो ?
बोगन बेलिया के फूलों की पत्तियां बेहद पतली व मुलायम तो होती ही हैं पर उसमे कोई सुगंध नही होती। जैसे मुझमें। शायद  इसीलिये मैने अपने घर के चारों तरफ बोगन बेलिया की कई कई रंगो की कतारें सजा रक्खी हैं। जो सुर्ख, सुफेद और पर्पल रंगों में एक जादुई तिलिस्म का अहसास देती हैं। जब कभी इनकी  मासूम, मुलायम पत्तियां हवा के झोंके से या कि आफताब की तपिश से झर- झर कर जमीन पे कालीन सा बिछ जाती हैं, तब उसी मखमली कालीन पर हौले से बैठ कर या कि कभी लेट कर, तुम्हारे ख़यालों- ख्वाबों में डूब जाता हूं। तब बोगन बेलिया की एक एक पत्ती उसके चेहरे केे एक एक रग व रेषे की मुलायम खबर देती है। तब मै ख्वाबों के न जाने किस राजमहल में पहुचं जाता हूं। जहां सिर्फ सिर्फ और सिर्फ तुम होती हो और मै होता हूँ , और होते हैं ये चाँद सितारे और बोगन बलिया की सतरंगी पत्तियाँ। 
ऐसा ही एक अजीब ख्वाब उस दिन दिखा था।
अजीब इस वजह से कि वह एक साथ भयावह व  खुशनुमा था।
जानती हो उस ख्वाब में मैने देखा ?
कि मुहब्बत की रेशमी  ड़ोरी और रातरानी की मदहोष खुषबू से लबरेज़ झूले मे तुम झूल रही हो । किसी परी की तरह और मै तुम्हे झूलते हुये देख रहा हूं। जब झूला उपर की ओर जाता है, तो तुम्हारे नितम्बचुम्बी आबनूषी केश जमीन तक लहरा जाते। जैसे कोई काली बदरिया आसमान से उतर कर जमीं पे मचल रही हो।
लेकिन, ये बादल मचल ही रहे थे कुछ और परवान चढ ही रहे थे कि.....
अचानक कहीं से एक बगूला उठा जो एक तूफान में तब्दील होता गया। और तूफान से ड़र कर तुम मेरी तरफ दौड़ पडी़ं।
और ... मै तुम्हे अपने आगोश में ले पाता कि वह तूफन तुम्हे उठा ले गया।
और मै तुम्हे और तुम हमें पुकारती ही रह गयीं।
और तभी मै अपने ख्वाब महल से जो रेत के ढे़र में तब्दील हो गया था, बाहर आ गिरा या।
और उस वक्त मेरी मुठठी में महज बोगन बेलिया की कुछ मसली व मुरझाई पत्तियां ही रह गयी थी।
और ...
एक वह दिन वही ख्वाब सच हुआ -
एक तूफ़ान तुम्हे उड़ा ले गया मुझसे बहुत दूर बहुत दूर
और मेरे हाथों में रह गया तूफ़ान के बाद बचा यादों का उजड़ा मंज़र।
और तब से आज तक उसी लुटे पिटे मंज़र में ज़िंदा हूँ किसी ज़िंदा लाश की तरह
और तब से आज तक कोई ख्वाब नहीं देखता
कोई भी नहीं कोई भी नहीं
यहां तक कि तुम्हारा भी
खैर छोडो,
इन बातों को बस तुम खुश रहो जहाँ भी हो जैसी भी हो

इक बंजारा प्रेमी

मुकेश इलाहाबादी --

जब आग में गला होगा

 जब आग में गला होगा
 तब साँचे में ढला  होगा

 कीचड़ में  उतर कर ही
 कमल सा खिला  होगा

सब  का दामन  मैला है,
कौन दूध का धुला होगा

बदन पे खुशबू खुशबू,तू
रात फूलों से मिला होगा

मुकेश शाम  से खुश है,
महबूब  से  मिला होगा

मुकेश इलाहाबादी ----

Thursday, 10 December 2015

गुप- चुप बहती एक नदी है



गुप- चुप
बहती एक नदी है
नीली नीली लहरें हैं
बिलकुल तुम्हारे
आँचल सी लहराती

आकाश में
कुछ सितारे हैं
तुम्हारे दूधिया दन्त पंक्ति सा
चमकते हुए

एक चाँद भी है
बिखरा दी है
जिसने
शुभ्र चाँदनी
बिलकुल तुम्हारी
निर्मल हंसी सा

देखो दूर
कोयल कूक रही है
गाती है
कोई प्रेम गीत

सुमी, सुन रही हो न तुम

देखो !
कितना प्यारा मौसम है

आओ, क्यों न बहें
हम भी इस
गुपचुप- गुप- चुप
बहती दूधिया नदी में

(एक अधूरा सपना जो न
सच हुआ, शायद न होगा )
मुकेश इलाहाबादी ---


Wednesday, 9 December 2015

सुनता हूँ तुम्हे - पूरे प्रण -प्राण से

नदियां, छोड़ देती हैं
उत्तल तरंगो में
बहना

चुप चाप,
बहने लगते हैं
झरने

गड़गड़ाना छोड़ देते हैं
बादल बारिशों के वक़्त

कोयल भूल जाती है
कूकना

झूमना छोड़
शांत हो जाते हैं
गुलमोहर
कचनार,
रजनीगंधा और
महुआ के साथ साथ सभी
पेड़

समाधिस्थ हो जाता है
ये आकाश
तब,
जब, तुम हंसती हो
खिलखिलाती हो
या की गुनगुनाती हो
खुशी से कोई प्रेम गीत

सच,,  तब - तब
सुनती है
तुम्हे पूरी प्रकृति
पूरे ध्यान से

और मै भी
देखता हूँ
सुनता हूँ
तुम्हे - पूरे प्रण -प्राण  से

(सुमी , सच ऐसा ही होता है
जब तुम हंसती हो बोलती हो
खिलखिलाती हो )

मुकेश इलाहाबादी ----

ज़ख्म गहरा हो गया

ज़ख्म गहरा हो गया
जिस्म दोहरा हो गया
और कितना चीखूँ मै
शहर  बहरा  हो  गया
नागों के संग  रह  मै
ज़हर मोहरा हो गया
तेरे गालों  पे  ये तिल
हुश्न पे पहरा हो गया
मुकेश  तेरे  जाते  ही
जीवन सहरा हो गया
मुकेश इलाहाबादी --

Tuesday, 8 December 2015

तुम्हारी निर्मल हँसी


जी तो चाहता है
तुम्हारी निर्मल हँसी
की दूधिया धार को
अंजुरी में समेट
आचमन कर
मै भी हूँ जाऊँ
पावन
पवित्रतम
तुम्हारे
निश्छल प्रेम सा 
और महमहाऊं
तुम्हारे आस पास 
पूजा की
धूप सा

मुकेश इलाहाबादी -------

तुमसे मिलने की कोई सूरत न होती

गर,
पुनर्जन्म की अवधारणा न होती
तुमसे मिलने की कोई सूरत न होती

मुकेश इलाहाबादी ------------------------

हर बात पे मुस्कुराना आ गया

हर बात पे मुस्कुराना आ गया
अब मुझे, दर्द छुपाना आ गया
साज़ ऐ ईश्क क्या छेड़ा तुमने
हमको भी गुनगुनाना आ गया
जब भी  जलता  है जिस्मो जाँ
अश्कों से आग बुझाना आ गया
पहले चुप  रह  जाता था मुकेश
राज़ - ऐ- दिल सुनाना आ गया
मुकेश इलाहाबादी -----------

कैसे बनाऊँ कोई पुल ?

अपने दरम्यान
दरिया
होता तो बना भी लेते
भला बताओ
इस अनकहे
समंदर पे
कैसे बनाऊँ कोई पुल ?

मुकेश इलाहाबादी ------

जो, तुमने नहीं कहा

कह दो न
एक बार
जो, तुमने नहीं कहा
अभी तक
जिसे सुनना
चाहता हूँ
आज तक,
प्लीज,,  कह दो न
बस एक बार
बस एक .... 

मुकेश इलाहाबादी

वो एक सुहानी सुबह थी

वो एक सुहानी सुबह थी तुम मिल गयी थी मंदिर जाते हुए मेरे पूछने पे 'तुम मंदिर क्यूँ जा रही हो? देवता तो तुम्हारे सामने है ' तुमने मुस्कुरा के अंजुरी के फूलों में से कुछ फूल तोड़ के मेरे ऊपर फेंका और इधर उधर देख कर किसी ने देखा तो नहीं भाग गयी थी झट से मंदिर के अहाते में दुपट्टे को सँभालते हुए और आँख बंद करके बुदबुदाने लगी थी कोई प्रार्थना कोई कामना पूरी होने की और मै तुम्हे देखता रहा देर तक तुम्हारी पूजा पूरी होने तक मुकेश इलाहाबादी --

Monday, 7 December 2015

देह गंध

जब भी
मेरे नथुनो से,
टकराती है
तुम्हारी
महुए सी देह गंध
सच, तब
मै और भी
बौरा जाता हूँ 

और खो जाती है
तन मन की,
सुध - बुध

(सुमी से )
मुकेश इलाहाबादी ----

रेत् चांदी की सी हो गयी

रेत् पे
तुम्हारा नाम लिखा
रेत् चांदी की सी हो गयी

ज़ुल्फ़ों को छुआ
और ,,,
रात सांवली हो गयी

फिर याद आये
तुम
दहकता दिन
गुलाबी हो गया

मुकेश इलाहाबादी --





Sunday, 6 December 2015

गोरी तेरा ऐसा रूप सलोना





गोरी तेरा ऐसा रूप सलोना
कर गयी मुझपे जादू टोना
गुम-शुम गुम-शुम रहता हूँ
भूल गया हूँ जगना - सोना
तेरे गालों की उलझी लट मे
मै चाहूँ हर दम होना खोना
सिर्फ यही, ख़्वाहिश अपनी
चाहूँ हर जनम में तेरा होना
तेरी यादों बातों की खुशबू,
महक रहा है कोना - कोना

मुकेश इलाहाबादी ---------


कर गयी मुझपे जादू टोना
गुम-शुम गुम-शुम रहता हूँ
भूल गया हूँ जगना - सोना
तेरे गालों की उलझी लट मे
मै चाहूँ हर दम होना खोना
सिर्फ यही, ख़्वाहिश अपनी
चाहूँ हर जनम में तेरा होना
तेरी यादों बातों की खुशबू,
महक रहा है कोना - कोना

मुकेश इलाहाबादी ---------

Friday, 4 December 2015

यूँ तो शामो - सहर उदास रहता है

यूँ तो शामो - सहर उदास रहता है
सिर्फ तेरे आने से दिल बहलता है

यूँ तो शह्र में है बारिश का मौसम
फिर भी दिल रात भर सुलगता है

कहने को तो सभी अपने हैं, मगर
ये दिल सिर्फ तेरे लिए ठुनकता है

बरसों पहले तुम मेरे घर आये थे
घर आज भी फूलों सा महकता है

भले ही तुम मुझे गैर समझते  हो
मुकेश तुम मेरे हो दिल, कहता है

मुकेश इलाहाबादी -----------------

Thursday, 3 December 2015

आग हमारे शहर तक आ चुकी है

आग
हमारे शहर तक
आ चुकी है
लो, अब तो
मोहल्ले और पड़ोस
को भी जला रही है
जलते हुए लोगों की
चीखें भी ठीक ठीक
सुनाई पड़ रही है,
फिर भी हम
आग से लड़ने का फैसला
मुल्तवी रखेंगे
और अपने घर से नहीं निकलेंगे
जब तक,
ये आग
हामरे घर की
चाहरदीवारी तक नहीं आ जाती

मुकेश इलाहाबादी -------------

Wednesday, 2 December 2015

सपने को अधूरा छोड़ के

सुमी ,
मुझे मालूम है
इतने  सालों बाद
आज भी, तुम
अक्सर, रातों को
चौंक कर उठ जाती हो
सपने को अधूरा छोड़ के
जो अक्सरहां तुम्हारी नींद में
आ जाता है,
फिर,
अपनी साँसों को काबू में कर के
बालों को सहेजती हो
बगल में रखे गलास से
ठंडा पानी पी कर
तकिये को सहेज कर
कोहनी पे
सिर रखे हुए
देर तक
अँधेरे को देखते हुए
जाने क्या क्या सोचते हुए
सो जाती हो
इस उम्मीद पे
कि,
वो अधूरा ख्वाब
इस बार पूरा हो के दिखेगा
और इस बार वो
बंद आँखों से नहीं
खुली आँखों से दिखेगा

सच बताना,
ऐसा ही होता है या नहीं
तुम्हारे जवाब के इंतज़ार में

मुकेश इलाहाबादी --

मुकेश इलाहाबादी --

वो बदन पे हया का दुशाला लिये

वो बदन पे हया का दुशाला लिये
मिला मुझसे इक फासला  लिये
रात छत पे चाँद फिर से चमका 
साथ सितारों का जलजला लिये
लाख मनाया मैंने उसे मगर वो
चला गया दूर दिल में गिला लिये 
मुकेश इलाहाबादी ----------------

साहिल पे बैठ के गहराई का पता नहीं लगता

साहिल पे बैठ के गहराई का पता नहीं लगता
खुश्क होठो से प्यास का अंदाजा नहीं लगता

गले मिलने और हंस के बात कर लेने भर से
है कौन अपना कौन पराया पता नहीं लगता

हरवक्त मुस्कुराते रहने  की आदत है उसकी
किस्से है खुश किस्से ख़फ़ा पता नहीं लगता

जिसके दिल में मुहब्बत  होती है, मुकेश तो
वो हमें गालियां भी देतो भी बुरा नहीं लगता

मुकेश इलाहाबादी -------------------------------

कड़ी धूप का मंज़र फिर सुहाना न हुआ

कड़ी धूप का मंज़र फिर सुहाना न हुआ
तुमसे बिछड़ के दोबारा मिलना न हुआ
तुमसे मिल के हंसा था खिलखिला के मै
फिर ज़िंदगी में कभी मुस्कुराना न हुआ

मुकेश इलाहाबादी ------------------------

Tuesday, 1 December 2015

आ पलकों पे सजा लूँ तुझे

आ पलकों पे सजा लूँ तुझे
फिर सीने से लगा लूँ तुझे
 

यूँ उदास - उदास न रह तू
आ मै फिर से हंसा दूँ तुझे
 

फलक से हो के आया हूँ मै
चाँद -तारों से सजा दूँ तुझे
 

जिस ग़ज़ल में हो तू ही तू
आ ऐसी ग़ज़ल सुना दूँ तुझे 
 
गर तू राज़ी हो जाए मुकेश
सच मै अपना बना लूँ तुझे
 


मुकेश इलाहाबादी -------

हम तो आप के हैं हमसे यूँ न शर्माया कीजिये

हम तो आप के हैं हमसे यूँ न शर्माया कीजिये
बात करते वक़्त तो नज़रें उठा लिया कीजये
देखिये हुज़ूर इतना तकल्लुफ अच्छा नहीं है
कुछ तो हमसे  गिला शिकवा किया कीजिये 
मुकेश इलाहाबादी ------------------------------

फिर हुआ सूरज आग का गोला सबेरे सबेरे


फिर हुआ सूरज आग का गोला सबेरे सबेरे
मै भी उठा, फिर से निकल दिया सबेरे सबेरे

उदासियों की धुंध सी बिखरी थी हर सिम्त
तू मुस्कुराई और मै खुश हुआ सबेरे - सबेरे

शब्भर भटकता रहा जाने किस -२ सहरा में
तूने ज़ुल्फ़ झटका बादल बरसा सबेरे-सबेरे 

कल मेरी महफ़िल में तेरा आना क्या  हुआ
फिर हर तरफ हुआ अपना चर्चा सबेरे-सबेरे

रात घर से निकालना महफूज़ नहीं, मुकेश
कल से तू मुझसे मिलने आना सबेरे - सबेरे


मुकेश इलाहाबादी ------------------------------

खुद को मुगालते में रखता हूँ

खुद  को मुगालते में रखता हूँ
तुझको मै अपना समझता हूँ
दोस्त - यार बुरा मान जाते हैं
आदतन सच व खरा कहता हूँ
दर्द थकन पांवो में छाले हैं पर
मै हूँ , दिन -रात-चले जाता हूँ
खुदपे गुरूर न आ जाए मुकेश
साथ अपने आईना रखता हूँ

मुकेश इलाहाबादी --------