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Monday, 24 February 2020

प्रेम से लबालब कविता का भाव हो तुम

प्रेम
से लबालब कविता का
भाव हो तुम
रस हो तुम
ओर
'मै' शब्दों के बीच का
खालीपन
इस खालीपन भर सकती है
न तो धूप
न हवा
न पानी
न वेद की ऋचाएँ
न कोई शुक्ति वाक्य
इस रिक्त स्थान को
भर सकती हैं तो, बस
तुम्हारी खिलखिलाती हँसी
और
मेरे प्रति तुम्हारे
'प्रेम' की स्वीकृति
मुकेश इलाहाबादी ------

रह रह के अपने ज़ख्मों को

रह रह के
अपने ज़ख्मों को
कुरेदता रहता हूँ
मै ज़िंदा हूँ भी
इस बात की
तस्दीक करता रहता हूँ
मुकेश इलाहाबादी

इन दिनो

एक
---
इन दिनो
कुछ भी
हो सकता है ?
धरती हिल सकती है
आसमान फट सकता है
पहाड गिर सकता है
यहां तक कि
सूरज के घर
अंधेरा भी हो सकता है।
इन दिनो
दाल सब्जी
और घास फूस के दाम
आसमान छू सकते हैं
और जनता को इसे
आर्थिक विकास का
सामान्य नियम
या अंर्तराष्ट्रीय समस्या
कह के समझाया जा सकता है
इन दिनो
कहीं भी कभी भी
दंगा हो सकता है
या फिर इन दिनो
कोई भी फसादी अबदादी
मजहब के नाम मे
दुनिया हिला सकता है
इन दिनो
कोई भी साधू महात्मा
या प्रवचन देने वाला पाखंडी
हो सकता है
कोई भी नेता, अफसर और व्यापारी
भ्रष्टाचार मे लिप्त पाया जा सकता है
इन दिनो
इन दिनो
होने को कुछ भी
हो सकता है
इन दिनो ये भी
हो सकता है
आप घर से निकलें
और कोई हादसा हो जाये और
आप वापस घर न जा पायें
बेटी घर से निकले
और बलात्कार का शिकार हो जाये
इस लिये बेहतर यही है
इन दिनो
घर पे बैठा जाये
चाय की चुस्कियों के साथ
चैनल बदल बदल के न्यूज देखा जाये
और आज के हालात पे चर्चा किया जाये
क्योंकी इन दिनो कहीं भी कुछ भी हो सकता है
दो
---
इन दिनो
आदमी चॉद पे जा रहा है
कल मंगल पे जा रहा है
ब्रम्हाण्ड का का सिर
फोडने के तैयारी कर रहा है
इन दिनो आदमी
विकास कर रहा है
इन दिनो
आदमी आदमी को खा रहा है
इन दिनो
हर कोई चिल्ला रहा है
भाग रहा है
दौड रहा है
बेतहासा इन दिनो
वक्त कर रहा है वार
चाबुक से पीठ पे
और मै सह रहा हूं चुपचाप
इन दिनो
मुकेश इलाहाबादी -----------

कब और कौन किसको कितना अच्छा लगने लगे

सुमी ,,
कब और कौन किसको कितना अच्छा लगने लगे इसका कोई निश्चित सिद्धांत नही कहा जा सकता, कभी किसी की बोली बाणी अच्छी लग जाती है, तो कभी किसी का व्यवहार, तो कभी किसी का रुप और किसी का गुण अच्छा लग जाता है, और इन्सान उससे प्यार करने लगता है। पर अक्सर कोई ऐसा भी होता है जब अकारण ही कोई अच्छा लगने लगता है जी चाहता है उससे बोला बतियाया जाये, अपना दुख दर्द कहा सुना जाये हंसा हंसाया जाये। भले ये जानते हुये कि इससे हंसना बोलना बतियाना समाज को अच्छा न लगेगा, और यह रिश्ता बहुत दूर तक नही जायेगा फिर मन उसी के आर्कषण में बंधा रहता है। और जितनी देर का भी संग साथ होता है इंसान उसे उस व्यक्ति के साथ भरपूर जी लेना चाहता है।
ऐसा भी नही कि आप उससे मुहब्ब्त कर बैठे हों मगर ये भी है कि वो मुहब्बत से कम नही होती हां इस मुहब्बत में वासना नही होती कुछ पाने की अभिलाषा नही होती।
इस रिश्ते को कोई नाम नही होता। अक्सर ये रिश्ता तो बस जंगल के फूल की तरह खिलता है महकता और मुरझा जाता है। जिसे न कोई खाद देता है न पानी देता है न सिंचाई करता हे न गुडाई करता है न जिसके खिलने पे जमाना खुश होता है न कोई कवि गीत लिखता है। ये फूल बस खिलते हैं और पूरी त्वारा से खिलते हैं और खिल कर मुरझा जाते हैं जंगल में ही वीराने में ही जिसके गवाह सिर्फ और सिर्फ चांद सितारे होते हैं हवाएं होती हैं और फिजांए होती हैं।
दोस्त ऐसा ही कुछ तुमसे मिलने के बाद हुआ मेरे साथ तुमसे बतियाना क्यूं अच्छा लगता है मुझे नही मालुम तुमसे हर बात शेयर करने को जी क्यूँ चाहता है नहीं मालूम क्यूं जी करता है हर वक़्त तुम मेरे पास पास रहो ।
सुमी ,ये ऐसे अनुत्तरित प्रश्न हैं शायद जिनका जवाब किताबों मे नही होता अलफाजों मे नही होता बस जिन्हे जी लेना ही उसे जान लेना है। सासों की तरह अपने नथूनों में भरपूर भर लेना होता है। बिना कुछ सोचे बिना कुछ समझे बिना कुछ तर्क विर्तक किये।
उम्मीद है तुम इस रिश्ते के इस जंगली फूल को फिलहाल खिला रहने दोगी अपनी पूरी कोमलता के साथ पूरी खूबसूरती के साथ पूरी महक के साथ।
वो महक जिसे किसी के नथूनों को नही सूंघना है जिसकी खूबसूरती किसी को देखना नही है। जिसे सिर्फ खिलना है खिलना है और मुरझा जाना है।
मुकेश इलाहाबादी -------------

जब कभी उदास होता हूँ

एक
-----
जब
कभी उदास होता हूँ
तुम्हे याद कर लेता हूँ
और - मन
गुदगुदी से भर जाता है
दो
-----
जब कभी
उदास होता हूँ
सोचता हूँ
तुम्हे, और देखता हूँ खिड़की
दूर तक फ़ैली सन्नाटी सड़क को
बेवज़ह - देर तक
मुकेश इलाहाबादी --------

तुम्हारे बारे में सोचना

एक
----
तुम्हारे
बारे में सोचना
एक बेहद थके दिन के बाद
आराम से सोफे पे बैठ
एक कप गरमा गर्म चाय पीना है
दो
---
तुम्हारे - बारे में सोचना
बेहद तपते हुए दिनों के बाद
हल्की - हल्की फुहार में भीगना है
तीन
-----
तुम्हारे
बारे में सोचना
लोहबान और चन्दन की
भीनी - भीनी खुशबू से तरबतर होना है
सच ! तुम्हारे बारे में सोचना
मेरा सब से प्यारा शगल है
मुकेश इलाहाबादी ----------

वो शख्श मुझे इस लिए अच्छा लगता है

वो शख्श मुझे इस लिए अच्छा लगता है
कि मेरा दर्द वो बड़े एहतराम से सुनता है
अपनों से तो ये चराग़ ही बेहतर निकला
स्याह रातों में मेरे साथ - साथ जलता है
रोशनदान में ये कबूतर की गुटरगूँ नहीं है
सिर्फ यही तो है जो मुझसे बात करता है
मुद्दत हुई दर्द से मैंने दोस्ती कर ली अबतो
मेरे लतीफों पे मेरा ज़ख्म- ज़ख्म हँसता है
हर हाल में मुझको उदास देखने वाले लोग
कहने लगे हैं मुकेश बड़ा बेशरम लगता है
मुकेश इलाहाबादी -----------------------

प्रेम में पड़ा पुरुष

एक
-----
प्रेम
में पड़ा पुरुष
अपने जिस पुरुषत्व को
सिर पे शान से
पगड़ी सा सजाए रहता है
उसे ही खुशी - खुशी रख देता है
अपनी प्रेयषी के कदमो पे
और हो जाता है
एक स्त्री से भी ज़्यादा स्त्री
दो
---
प्रेम में पड़े
पुरुष के
भूजाओं की
सशक्त मशल्स
तब्दील हो कर
मछलियों सा
तैर जाना चाहती हैं
प्रेयषी के आँखों की झील में
तीन
-----
प्रेम में पुरुष
पत्थर नहीं मोम हो जाता है
और गल गल के बन जाता है
कभी स्त्री
तो कभी मछली
तो कभी झूला जिसमे जिसमे ले सके पेंगे
उसकी प्रेयसी बसंत में
और बरस जाता है लाल गुलाल फागुन में उसके
गजलों पे बालों में
मुकेश इलाहाबादी -----------

बेहद सर्द हवाएं हैं

बेहद
सर्द हवाएं हैं
मगर, मै जल रहा हूँ
तुम
महसूस कर सकती हो
अपने अदृश्य हाथो को
मेरे माथे पे रख के
इस भयानक
रात में भी
मुकेश इलाहाबादी ,,,,

अगर इतिहास की किताबों से

अगर
इतिहास की किताबों से
हटा दिए जाएं
व्यक्तियों और स्थानों के नाम
तो शेष रह जाएगा
सत्ता, षड्यंत, संघर्ष
हत्या, बलात्कार
हिंसा, नफरत
सनक और तानाशाही
शायद
ऐसा ही कुछ इतिहास लिख रहे हैं
हम आज भी
अपने आप को सभ्य कहने वाले लोग भी
मुकेश इलाहाबादी ---------------

समंदर होने के लिए

सिर्फ
बहुत सारी नदियों को
ख़ुद में समाहित कर लेने भर से ही
समंदर नहीं हो जाता कोई
समंदर
होने के लिए
ख़ुद को खारा होने के लिए
तैयार होना पड़ता है
समंदर होने के लिए
अपने अंदर सिर्फ हीरे मोती ही नहीं
सीप , घोंघे , शैवालों को भी समोना होता है
समंदर होने के लिए
अपने अंदर निर्विकार हो के
रंग बिरंगी मछलियां ही नहीं
मगरमच्छों और घड़ियालों को भी
पनाह देना होता है
समंदर होने के लिए
कभी बेहद शांत और कभी
तूफानी भी बनना पड़ता है
समंदर होने के लिए
अपने से बहुत दूर
बहुत छोटे से चाँद के इशारे पे
अपनी गंभीरता छोड़
चंचल भी होना पड़ता है
समंदर होने के लिए
बहुत बहुत अकेला भी होना होता है
समंदर होना भी इतना आसान कहाँ होता है ?
मुकेश इलाहाबादी ------------------

साँझ होते ही, चुपके से उतर जाता हूँ

साँझ
होते ही,
चुपके से उतर जाता हूँ
रात की नदी मे
चलाते हुए
यादों के चप्पू हौले हौले
करता हूं नौका विहार
तब
चल रहा होता है एक चाँद
दूर बहुत दूर मेरे साथ
जो मेरे संग संग हँसता है
खिलखिलाता है
और कभी कभी बादलों के बीच छुप के मुझे
झिन्काता भी बहुत है
मुकेश इलाहाबादी,,,,,,

हम अपनी ही धुन में जा रहे थे

हम अपनी ही धुन में जा रहे थे
तुम्हारा ही नाम गुनगुना रहे थे
तुम मुँह चिढ़ा के भाग गयी तो
तेरी इस अदा पे मुस्कुरा रहे थे
कागज़ पे बेतरतीब लकीरें नहीं
तेरा नाम लिख के मिटा रहे थे
लोग समझते रहे मुस्कुरा रहा हूँ
दरअसल अपना ग़म छुपा रहे थे
तेरी दोस्ती के लायक हो जाऊँ
ख़ुद को इस क़ाबिल बना रहे थे
मुकेश इलाहाबादी ,,,,,,,,,,,,,,,,

कोई, तो दरिया उतर जाए मेरे सीने मे

कोई,
तो दरिया उतर जाए
मेरे सीने मे
कि आग ही आग लगी है
मेरे सीने मे
लहरों से
नज़्म लिख दूँगा
यदि कोई चांद
उतर आए मेरे सीने मे
ता उम्र
मुरझाने न दूँगा
यदि कोई फूल
खिल जाए, मेरे सीने मे
ग़र
कोइ आ के टटोले
तो हजार ज़ख्म
मिल जायेंगे मेरे सीने मे
सुनोगे तो
उदास हो जाओगे, तुम भी
लिहाज़ा मेरे ग़मो को
दफ़न ही रहने दे मेरे सीने में
मुकेश इलाहाबादी ----

जी चाहता है तुम्हारे गालों के डिम्पल पे

जी
चाहता है
तुम्हारे गालों के डिम्पल पे
आहिस्ता से रख दूँ
अपनी तर्जनी उंगली
और महसूस करूँ
गुलाब से भी गुलाबी
रेशम से भी मुलायम
इस छोटे से
क्यूट से गड्ढे को
जिसके आगे सारी क़ायनात भी फीकी हैं
ओ !
प्यारे गालों
और उसपे खूबसूरत डिम्पल वाली
भोली लड़की
कभी कभी तो मेरा जी चाहता है
तुम्हारे गालों के इस डिम्पल के
इस छोटे से गड्ढे में डूब जाऊँ
जैसे नाव डूब जाती है
नदी की भंवर में
ओ मेरी प्यारी सुमी
ओ मेरी प्यारी डिंपल वाली भोली लड़की
सुन रही हो न ???
मुकेश इलाहाबादी -------------

तुम बोलना नहीं जानती '

तुम
बोलना नहीं जानती '
मै - कहना नहीं चाहता
तो , चलो
तुम मेरे सीने पे अपना सिर रख दो
मै तुम्हारी खामोशी सुनूँ
तुम मेरी धड़कने
मुकेश इलाहाबादी ----

अगर आप ने अदाकारी सीख ली

अगर
आप ने
अदाकारी सीख ली
समझ लीजिए
दुनियादारी सीख ली
आप भी
खुश रहने लगोगे
यकीनन
अगर थोड़ी भी
होशियारी सीख ली
ज़माना
आप को भी
सलाम करेगा
अगर आपने भी
बाजीगरी सीख ली
मुकेश इलाहाबा

पिछला साल जाते -जाते कह गया था

पिछला
साल जाते -जाते कह गया था
अब मै
लौट कर नही आऊंगा
इसके पहले वाले साल ने भी, यही बात कही थी
जाते - जाते,
ठीक अभी अभी गुज़रे लम्हे ने भी यही कहा
और आगे बढ़ गया
जनता हूं आने वाले लम्हे भी एक पल ठहरेंगे
आगे बढ़ जाएंगे
लेकिन इंसान
तस्वीरों मे
कविताओं मे,
कहानियों और
संस्मरणों मे इन अनवरत
बहते हुए लम्हों को या
कह सकते हो वक्त को
अपनी मुट्ठी मे
कैद करता है
पर कई बार कुछ लम्हे
ख़ुद ब ख़ुद इंसान की पलकों पे
हमेशा-हमेशा के लिए ठहर जाते हैं
खुशी की ठहरी नीली झील सा
या फिर दर्द के हरहराते समंदर सा
लेकिन मेरे दिल मे
तुम्हारे साथ
गुजारे हुए लम्हे
कील सा
ठुक गए हैं
और रिसते रहते हैं
किसी नासूर की तरह
जिसपे मैंने टांग दी है
तेरी
यादों की सतरंगी छतरी
जिसे तान कर
हम बचते हुए चलते थे धूप से
बारिश से
मुकेश इलाहाबादी,,,,,

ख़ुदा ने एक बार बहोत खुद्बसूरत चाँद बनाया

ख़ुदा
ने एक बार
बहोत खुद्बसूरत चाँद बनाया
हाला कि उसमे कुछ दाग़ थे
फिर भी बहुत खूबसूरत था
उसकी तारीफ फरिश्तों ने भी की
उस खूबसूरत चाँद को फ़लक़ ने
देखते ही अपने लिए मांग लिया
बाद उसके ख़ुदा ने एक और
चाँद बनाया
बेदाग़
और नूर ही नूर से भरपूर
जिसे उसने अपने हाथों से
ज़मी पे उतारा
जानती हो उसका नाम क्या है ???
उसका नाम है - सुमी
क्यूँ है न सुमी???
मुकेश इलाहाबादी ----

घरबार ही नहीं ख़ुद को भी बिसार दिया

घरबार
ही नहीं ख़ुद को भी
बिसार दिया
तुझे
सोचते - सोचते मैंने
उम्र गुजार दिया
तू पत्थर थी,
पत्थर है
पत्थर रहेगी,
बेवजह तुझे
इतना प्यार दिया
दिले गुलशन मे
तू फूल सा महकेगी
कुछ यही सोच
इस रिश्ते को
इतना विस्तार दिया
जब से
मालूम हुआ
तू नहीं लौटेगी
सोचता हूँ, बेवजह
तेरा इंतजार किया
मुकेश इलाहाबादी,,,,

तुम्हारी खामोशी ने कहा

एक
,,,,,
तुम्हारी
खामोशी ने कहा
मेरी बेचैनी ने सुना
एक नज्म,
एक रुबाई जो
न कागज़ पे उतरी,
न कभी
किसी होठों ने गाई
पर अनहत नाद सी
गूंजती रहती है
तुम्हारे नाम की,,, नज्म
मेरे अंतर्तम मे
अहर्निश, और मैं तुम्हें
महसूस करता रहता हूं
शिवोहम की तरह
सुन रही हो न सुमी?
तुम कुछ
बोलती क्यूँ नहीं?
तुमने
न बोलने की कसम खा रखी है क्या ?
दो
,,,,,,,,,,
तुम्हारी
खामोशी को
अक्सर,
क़तरा - क़तरा बन के
आँखों की कोरों पे
जमे हुए देखा है
जो न गालों पे लुढकते हैं
न सूखते हैं
हाँ! न जाने किस ग़म की
तपिश से वाष्पित हो
बादल बन उमड़ते घुमडते हैं, और अक्सर उनकी
अदृश्य बूंदों से
मैं भीगने लगता हूँ
रात की तन्हाइयों मे
बहुत बहुत देर तक के लिए
मुकेश इलाहाबादी,,,,,

इबारत.

जिंदगी
स्याह पन्ने पे
काली स्याही से लिखती रही,,, अपनी इबारत.
लिहाजा
जब कभी माज़ी के पन्नों को
पलट के पढ़ना चाहा,,
स्याह पन्नों पे स्याह हर्फ़
मुँह चिढ़ाते मिले,
लिहाजा कुछ पढ़ सका,
कुछ अंदाजा लगाया,,
जिन्हें आधी हकीकत आधा फ़साना ही जानो ...
जैसे,,, तुम मेरी चाहत हो,, ये हकीकत
तुमने भी मुझे चाहा,,, ये फ़साना
तुम मुझे भूल गई,, ये हकीकत
मैंने तुम्हें भूलना चाहा,, ये फ़साना
तुम अभी भी खुश और हसीँ हक़ीक़त
मै खुश ,,, ये फ़साना
मुकेश इलाहाबादी,,,,

यकीनन तुम्हारी आँखों को धोखा हुआ है

यकीनन तुम्हारी आँखों को धोखा हुआ है
वो बाहर से साबुत अंदर से टूटा हुआ है
उसके मिलने का अंदाज़ ही बता रहा था
मिजाज़ उसका कुछ तो बदला हुआ है
उसकी हंसी से मत समझो वो खुश है
बातों से लगा रात भर वो रोया हुआ है
ग़मजदा था बहुत मैखाने गया होगा
मुकेश आज शाम से कुछ बहका हुआ है
मुकेश इलाहाबादी,,,,,

मुलाकात की कोपलें फूटीं तो लगा

मुलाकात
की कोपलें फूटीं तो लगा
ईश्क़ के फूल खिलेंगे
लेकिन,
वक़्त की मार
और ज़रुरत की आँधियों ने
कोई फूल खिलने न दिया
यहाँ तक कि ,
जो उम्मीद की पौध जमी थी
उसे भी रौंद दिया।
लिहाज़ा,
सब कुछ ऊसर में तब्दील होता गया
नहीं ,, नहीं
अब रेगिस्तान हो गया हूँ ,,,,
जिसमे अब कभी भी
कोई भी फूल नहीं खिलेगा
कोई भी कली नहीं मुस्कुराएगी
कभी भी नहीं
कभी भी नहीं ,,,,,
मुकेश इलाहाबादी ,,,,,,,,,,,,,,,

मै"उसका अराध्य न था

यकीनन
"मै"उसका अराध्य न था
उसका,
देवता तो कोई और था
लिहाजा मै प्रेम मे
गीली मिट्टी का
गोला बन गया
और कहा "लो अपने हाथों के सांचे से गढ़ लो
कोई भी मूरत, अपने मन माफिक "
उसने माटी का
दिया रुंध लिया
और बार दिया एक "दिया"
और,
मै जलता रहा उसके लिए
उम्र भर करता रहा रौशनी
बुझ जाने तक
उधर,, उसके पत्थर के देवता को
न हंसना था,
न बोलना था
न प्रसन्न होना था
वो पत्थर का देवता था
पत्थर का ही रहा
मुकेश इलाहाबादी,,,,,,,,,,,

फ़क़त छाँव छाँव चले तो क्या चले

फ़क़त छाँव छाँव चले तो क्या चले
पाँव में छाले न पड़े तो क्या चले
कंटीली झाड़ियों में दामन न फंसे
ऐसी राह में तुम चले तो क्या चले
गर गुलशन ही गुलशन हो राह में
शब् व् जंगल न मिले तो क्या चले
सफर में रहो कोई चेहरा न भाये
ऐसे कारवाँ में चले तो क्या चले
मुकेश इलाहाबादी ,,,,,,,,,,,

तुम्हारी खामोशी को

तुम्हारी
खामोशी को
अक्सर,
क़तरा - क़तरा बन के
आँखों की कोरों पे
जमे हुए देखा है
जो न गालों पे लुढकते हैं
न सूखते हैं
हाँ! न जाने किस ग़म की
तपिश से वाष्पित हो
बादल बन उमड़ते घुमडते हैं, और अक्सर उनकी
अदृश्य बूंदों से
मैं भीगने लगता हूँ
रात की तन्हाइयों मे
बहुत बहुत देर तक के लिए
मुकेश इलाहाबादी,,,,,

चाँद तक कोई, सीढ़ी नहीं जाती

चाँद
तक कोई,
सीढ़ी नहीं जाती
परों मे
कितनी भी जान हो
चाँद तक नहीं ले जा पाते
समंदर की
लहरें भी कुछ दूर जा के
लौट आती हैं, और
साहिल पे अपना
शिर पटकती हैं
हवाएं भी
कुछ मील तक जा के
लौट - लौट आती हैं
ज़मी पे
पर मैं
ख्वाबों के उड़न खटोले पे
बैठ मिल आता हूँ अपने चाँद से
और कर आता हूँ,
ढेर सारी बातें
क्यूँ? सुन रही हो सुमी
तुम्हीं से कह रहा हूँ
मुकेश इलाहाबादी,,,,

फिर मैं बहुत देर तक उदास रहता हूं

फिर
मैं बहुत देर तक
उदास रहता हूं
जब भी तेरी आँखों की नमी महसूस करता हूं
बेसबब
घर से निकल देता हूँ
फिर वीरान राहों पे
देर तक भटकता हूँ
तन्हाई
जब बहुत बेचैन करती है
आईने को सामने रख
ख़ुद ही ख़ुद से
बात करता हूँ
जानता हूँ
घाटी से कोई जवाब न आएगा
फिर भी
तुझको बार बार पुकारता हूँ
मुकेश इलाहाबादी,,,,,,

जब कभी

जब कभी
तुम, मेरी चाय या कॉफी की डिमांड पे
हलके से मुँह चिढ़ा के चल देती हो
किचेन में चाय का अदहन चढाने
या कि
यदि मै ऊँघ रहा होता हूँ
या कि सो रहा होता हूँ
और तुम चुपके से आ के मेरे कानो में
कागज़ की फुरेरी बना गुदगुदा देती हो
और मेरी नाराज़गी पे खिलखिला देती हो
या कि
कभी लाड में आ
मेरी नाक को
तर्जनी और अंगूठे से पकड़
तुम अपनी भौहों को उचका के
मुस्कुरा देती हो
तब तुम बहुत अच्छी लगती हो
रियली, तुम्हारी तरह
तुम्हारी शरारतें भी कित्ती मासूम है
मुकेश इलाहाबादी -----------

न कलेंडर से, न आले से

न कलेंडर से,
न आले से
न अलगनी से
मेरे कमरे की दीवारें.
अब,
बात करती नहीं किसी से
तेरे जाने के बाद से
गुलाबी न रहीं
सभी दीवारें जर्द हो गयी हैं,
दर्द की नमी से
रोशनदान पे
कबूतर भी बैठा रहता है
बड़ी खामोशी से
मै भी,
नहीं कहता अपना
रंजो ग़म किसी से
मुकेश इलाहाबादी,,,

ये उदासी लिबास होती

ग़र
ये उदासी लिबास होती
जिस्म से उतार देता
तेरी हँसी से
मैं ख़ुद को
संवार लेता
इक दरख्त
भी जो राह मे मिल जाता
उम्र तमाम उसी की छांह में मैं गुजार देता
इश्क किया था
कोई तिजारत तो नहीं
लिहाजा सब कुछ लुट कर भी उससे मैं
क्या हिसाब लेता
मुकेश इलाहाबादी,,,,,

इक बेवफ़ा के लिये

इक
बेवफ़ा के लिये इतना परेशान क्यूँ है
ऐ दिल तू ही बता,
तू इतना नादान क्यूँ है
परिंदा उड़ - उड़ के
पूछ रहा है,
चाँद से
तेरे मेरे बीच
इतना बड़ा
आसमान क्यूँ है
जब हर शख्स को
सच पसंद है, तो
दुनिया इतनी
बेईमान क्यूँ है
यहां लोग
महफिल सजाये बैठे हैं
फिर, सबके दिल
इतने वीरान क्यूँ हैं
मुकेश इलाहाबादी,,,,,

जुलाहे ,,,,,,,,,,


माँ
घूमती है,
तकली की तरह
पूरे घर मे
कातती है सतत
धागा प्रेम और वात्सल्य का फिर पिता
अपने मज़बूत ताने बाने मे कस के बुनते हैं
एक महीन, मुलायम चादर
जिसे ओढ़ा के वे
बचा लेते हैं हमे
जिंदगी की
ठिठुरती रातों से
मुकेश इलाहाबादी,,,,