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Monday, 24 February 2020

चाँद तक कोई, सीढ़ी नहीं जाती

चाँद
तक कोई,
सीढ़ी नहीं जाती
परों मे
कितनी भी जान हो
चाँद तक नहीं ले जा पाते
समंदर की
लहरें भी कुछ दूर जा के
लौट आती हैं, और
साहिल पे अपना
शिर पटकती हैं
हवाएं भी
कुछ मील तक जा के
लौट - लौट आती हैं
ज़मी पे
पर मैं
ख्वाबों के उड़न खटोले पे
बैठ मिल आता हूँ अपने चाँद से
और कर आता हूँ,
ढेर सारी बातें
क्यूँ? सुन रही हो सुमी
तुम्हीं से कह रहा हूँ
मुकेश इलाहाबादी,,,,

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