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Friday, 19 March 2021

दर्द और यादों के सिक्के उछालता हूँ

 दर्द और यादों के सिक्के उछालता हूँ

और रात तेरे ख्वाबों को खरीदता हूँ
मेरी आँखों मे तुम्हारी नाम की झील है
साँझ होते ही इसमे इकचाँद उतरता है
तुम्हारी आँखो मे बातों मे मीठा नशा है
क्या तुम्हारे वज़ूद से महुआ टपकता है
सिर्फ मुझे और तुझे मालूम तू मेरी नहीं
ज़माना मुझे तेरा तुझे मेरी समझता है
जानता हूँ लौट के नहीं आयेगी फिर भी
ये पागल दिल क्यूँ तेरा इंतजार करता है
सावन की बारिस् मे सब कुछ भीगा भीगा
ऐसे मे यादों का अलाव बहुत सुलगता है
मुकेश इलाहाबादी,,,,,,,,,,,,,,,,

शब्दों में बयाँ नहीं होता

 शब्दों में बयाँ नहीं होता

दर्द मेरा अयाँ नहीं होता
ये मत पूछ तू मुझसे ये
दर्द कहाँ कहाँ नहीं होता
तू मुझे जहाँ से छू लेती है
दर्द सिर्फ वहाँ नहीं होता
मुकेश इलाहाबादी --

अभी हार नहीं मानी है

 अभी हार नहीं मानी है

जंगे ज़िंदगी जारी है
न चाँद है न सूरज है
बाहर अँधेरा तारी है
घाव भर गया लेकिन
निशान अभी बाकी है
तू चली गयी है मगर
तेरी याद नहीं जाती है
मुकेश इलाहाबादी ---

तुम्ही को मनाना तुम्ही से रूठना है

 तुम्ही को मनाना तुम्ही से रूठना है

सफर तुम्हारे संग ही तय करना है
जी तो चाहे है जी भर नहा लूँ इसमें
तुम्हारी आँखों में इश्क़ का झरना है
जो फुर्सत मिल जाए तुम्हे गैरों से
मुझे भी तुमसे बहुत कुछ कहना है
अब कहीं तेरा दर छोड़ जाना नहीं
अब तेरे दर पे ही जीना है मरना है
तू हँसती है तो रजनीगंधा झरते है
मुझे इन महकते फूलों को चुनना है
मुकेश इलाहाबादी --------------

जानती हो ? कभी, मेरे अंदर भी एक जीता जागता सागर था

 सुमी,

जानती हो ?
कभी, मेरे अंदर भी एक
जीता जागता सागर था
सचमुच का सागर
जिसमे
ख्वाहिशों की नावें चलती थी
ईश्क़ की मछलियाँ तैरती थी
जो अपने चाँद के साथ - साथ अठखेलियां करता
उसका चाँद
जब पूरा होता
पूरा गोल
और दिप - दिप करता
रात की स्याह चुनरी ओढ़ के
तब ये सागर खुशी से पागल हो उठता
उसके अंदर भावनाएं कुलांचे भरने लगतीं
उसके जिस्म में
ज्वार - भाटा उबलने लगता
और वो ,,
अपनी लहरों रूपी बाहें फैला
अपने चाँद को अपने आगोश में ले लेना चाहता
लेकिन चाँद हर बार दगा दे जाता
हर बार वो खिलखिला के
बादलों के पीछे मुँह छुपा लेता
और फिर
सागर उदास लौट आता
लेकिन एक दिन जब सागर को पता लगा
की उसका चाँद तो
एक छोटी खूबसूरत शान्त सी नीली झील पे
रोज़ उतर आता है
और उसके साथ छप - छप छइयां करता है
बस ,,
उसी दिन से इस जीवित सागर
हर रोज़ थोड़ा थोड़ा मरने लगा और
एक दिन वो "मृत सागर"
यानी डेड सी में तब्दील हो गया
जिसमे कोइ मछली
नहीं तैरती
कोई नाविक अपनी नाव नहीं खेता
जिसमे बड़ी बड़ी तरंगे नहीं उठती
हालाकि
इस डेड सी में
तेरा तो जा सकता है
पर डूबा नहीं जा सकता
और अब
इस सागर में
किसी चाँद के उगने से
कोई ज्वार - भाटा नहीं आता
क्यूँ की उसका चाँद
किसी झील में उतर गया है
किसी रोज़ चुपके से
इस लिए
ओ मेरी सुमी
ओ' मेरी चाँद
अब से तुम मुझे 'डेड सागर " के नाम से
पुकारा करो
"मुक्कू ' नहीं
ओ मेरी सुमी
ओ मेरी प्यारी सुमी
सुन रही हो न ?
मुकेश इलाहाबादी --------------

जिस्मो जॉ पे फफोले यूँ ही नहीं पड़े हैं साहेब

 जिस्मो जॉ पे फफोले यूँ ही नहीं पड़े हैं साहेब

ज़िंदगी ने हमें आग के निवाले दिए हैं साहेब
फ़क़त हौसला और चंद असबाब ले के चले थे
जो कुछ भी है कड़ी मेहनत से पाये हैं साहेब
न चाँद न सूरज न सितारों ने किया उजाला
खुद को जलाया तो रोशनी में आये हैं साहेब
चढ़ी चढ़ी सी आँखे और लड़खड़ाते से कदम
इक अरसा हुआ चैन से नहीं सोये हैं साहेब
चंद सिक्कों में बिकी जाती है ये दुनिया और
हम हैं कि साथ जज़्बात लिए फिरते हैं साहेब
मुकेश इलाहाबादी --------------------------