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Wednesday, 27 November 2019

ज़िन्दगी, सत्यनारायण की कथा नहीं,

एक
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ज़िन्दगी,
सत्यनारायण की कथा नहीं,
जिसे कोई ब्राह्मण देवता आ कर बाँचेंगे,
जिसके सुखद अंत पे
शंख बजेगा , प्रसाद बंटेगा
हम खुश- खुश घर जायें

ज़िंदगी तो पोथी है
जिसे ख़ुद ही लिखना
ख़ुद ही बांचना पड़ता है
ज़िंदगी की पोथी पढ़ने के लिए
ख़ुद ही जजमान और
खुद ही पुरोहित बनना पड़ता है
फल फूल और हवन में खुद की
आहुति देनी होती है

ज़िंदगी की कथा का अंत
हर बार सत्यनाराण की कथा सा
सुखद नहीं होता है 
बहुत बार इसका अंत दुःखद ही होता है
इस कथा की समाप्ति पर 
शंख ध्वनि की जगह
हमारे रुदन का मौन कोलाहल होता है

और एक न खत्म होने वाला सन्नाटा भी हो सकता है

दो
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ईश्क,
किसी कथा से कम नहीं
बस, बात इतनी सी है
इसे कोई पुरोहित नहीं बाँचता
न कोई जजमान सुनता है
इसमें तो जोड़े में से ही
कभी,एक जजमान बनता है
तो दूसरा पुरोहित बन जाता है
फिर कभी दूसरा जजमान बनता है
तो पहला पुरोहित बन जाता है
और इस तरह
ईश्क़ की कथा सुन के आनंदित होते हैं
दो प्रेमी
पर - इस कथा का अंत भी
कोई ज़रूरी नहीं सत्यनारायण की कथा सा
सुखद हो, बहुत बार
कथाए ईश्क़ दुःखद ही होती है


पर ये तो सत्य है,
चाहे ज़िन्दगी की कथा हो
या इश्क की कथा
ख़ुद ही लिखना खुद ही बाँचना होता है
इसमें कोई पुरोहित नहीं होता
कोई जजमान नहीं होता

मुकेश इलाहाबादी ---------------------


Tuesday, 26 November 2019

रात, आँगन में चाँदनी नहीं आती


रात,
आँगन में चाँदनी नहीं आती
मेरे चेहरे पे अब हँसी नहीं आती

मीलो फैला रेगिस्तान हो गया हूँ
मेरे घर तक
कोई नदी नहीं आती

इस वक़्त
तन्हाई के गुप्प अँधेरे में हूँ
जहाँ कभी  रोशनी नहीं आती

मुकेश इलाहाबादी -------------

Thursday, 21 November 2019

पति, और प्रेमी के बाद

पति,
और प्रेमी के बाद
उसने तलाशना चाहा
एक ऐसे पुरुष मित्र को
जिससे वो शेयर कर सके
अपने सारे भाव - विभाव
सुख - दुःख , अच्छा बुरा सब कुछ
और जिसकी नीव
देह व स्वार्थ से परे की ईंटो से बनी हो
किन्तु हर बार
और हर पुरुष मित्र की आँखों में
चाशनी में लिपटी लिप्सा
वहशीपन देख
वो उदास हो फिर से लौट गयी
अपने अंदर के एकाकीपन में
मित्रता की किसी भी आकांक्षा को
मन की दहलीज़ पे ही छोड़ के
मुकेश इलाहाबादी -----------

इंद्रधनुष देखती हुईं फूल सूंघती हुई लड़की

इंद्रधनुष
देखती हुईं
फूल सूंघती हुई लड़की
बहुत प्रसन्न थी
सागर किनारे
तभी लड़के ने कहा
आओ - घरौंदा बनाते हैं
और खेलते हैं
लड़की ने चहक के
फूल फेंक दिया
इंद्रधनुष देखना छोड़
खेलने लगी - बनाने लगी
पूरे मन से घरौंदा
अभी लड़की घरौंदा
बना के सजा ही रही थी
लड़के का जी ऊब गया इस खेल से
उसने एक झटके से
रेत् का घरौंदा तोड़
छलांग लगा दी समंदर में
मछली पकड़ने और
तैरने के खेल के लिए
अब --
लड़की सुबुक रही है
समंदर किनारे
रेत् में लिथड़े फूल
और इंद्रधनुष को याद कर के
अपने टूटे घरौंदे के पास
मुकेश इलाहाबादी ---------

सुगंध लिखता हूँ

मै
सुगंध
लिखता हूँ
कागज़ पे
तुम्हारी देह गंध उतर आती है
झरना लिखता हूँ
तुम्हारी हंसी
बिखर जाती है
आकाश लिखूं तो
तुम्हारा आँचल लहरा जाता है
इस तरह टुकड़े - टुकड़े मे
उतर आती हो मेरे
शब्दों के कैनवास मे
और मै तुम्हें महसूस कर लेता हूँ,
पूरा का पूरा
तुम्हें,
तुम्हारे पूरे वजूद के साथ
मुकेश इलाहाबादी,,,,,

लड़की ! तुम प्रेम में कभी मछली मत बनना

एक
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प्रेम में
वो मछली बन गयी
खुशी - खुशी तैरने लगी
अपने समंदर की बाँहों में
समंदर भी खुश था
मछली भी
लेकिन कुछ मगरमच्छों से देखा न गया
वो मछली को गटक गए
दो
----
प्रेम में, वो मछली बन गयी
तैरने लगी खुशी - खुशी अपने समंदर की बाँहों में
मछुवारे ने देखा - "इत्ती सुंदर मछली "
उसने - काँटे में आटा लगाया
और फेंक दिया पानी में में
मछली एक ही झटके में
समंदर के बहार रेत् में तड़पने लगी
मछुवारा खुश हुआ
लड़की ! तुम प्रेम में कभी मछली मत बनना
मुकेश इलाहाबादी ------------------------

जैसे, कोई बिछा दे मखमली घास

जैसे,
कोई बिछा दे
मखमली घास
खुरदुरी राहों में
और,
राही की राह हो जाए आसान
बस ऐसे ही तुम हँसती हो तो
बिछ जाती है
रजनीगंधा की महमहाती चादर
हो जाती है राहे ज़िंदगी
खुशबू - खुशबू,
खुशनुमा - खुशनुमा
देखो ! अब ये सुन के तुम सिर्फ
मुस्कुराना नहीं बल्कि खिलखिलाना ज़ोर से
मुकेश इलाहाबादी ----------------

या तो ख़ुदा की ख़ुदाई से डरता हूँ

या तो ख़ुदा की ख़ुदाई से डरता हूँ
या तो मै तेरी जुदाई से डरता हूँ

ईश्क़ में जान जाने का ख़ौफ़ नहीं
मै बेवज़ह की रुसवाई से डरता हूँ

महफ़िलों में इस लिए जाता हूँ मै
अपने अंदर की तनहाई से डरता हूँ

मुकेश इलाहाबादी ------------------

समेटने की नाकाम कोशिशों में लगी हूँ,

अवि,
अपने को समेटने की
नाकाम कोशिशों में लगी हूँ,
जितना समेटती हूँ
उतना ही बिखर जाती हूँ
दिन में समेटती हूँ तो रात बिखर जाती हूँ
रात करवटों में समेटती हूँ तो
दिन में बिखर जाती हूँ
सच ! अब तो उम्मीद भी छोड़ दी है
खुद को समेटने की
अगर कुछ टुकड़ों में ही टूटी होती तो
शायद अपने आँचल में आँसुओ संग समेट लेती
अगर रेत् सी ज़र्रा - ज़र्रा हो के बिखरी होती
तो भी शायद अंजुरी में समेट लेती
और एक मुट्ठी यादों की रेत् के सहारे ही जी लेती
लेकिन, अब तो रोज़ रोज़ इतने हिस्से में टूट चुकी हूँ
इतना बिखर चुकी हूँ
की शायद मेरे वज़ूद के सारे हिस्से टूट टूट के
शून्य में विलीन हो गए हैं - तुम्हारी ही तरह
शायद , इस शून्य को भी अपनी आखों में समेट लेती पर
तुम्हारी उन यादों को कैसे समेटूँ
तुम्हारे शायद बिताये इतने खूबसूरत लम्हों को कैसे समेटूँ
तुम्हारी सारी पर्सनल बिलोंगिंग्स को कैसे समेटूँ
जिनमे तुम्हारे सपर्श की खुशबू है
जिन्हे तुमने इस्तेमाल किया है
चाहे वो तुम्हारी पसंदीदा कमीज हो - ट्रॉउज़र हों
जूते, मोज़े - घर में पहनने वाली स्लीपर हो
शेविंग किट हो तुम्हरे पहने हुए जाड़े के सूट हों
सच उन्हें कैसे समेटूंगी
समेटूंगी भी तो उन्हें कहाँ रखूंगी बताओ न अवि ?
चुप क्यों हो ?
बोलते क्यूँ नहीं तुम्हारी ये नीना अकेले कैसे
समेटेगी वे सारे साज़ो सामान
वे सारे तिनके जिन्हे तुमने शौक से ला ला के
इकठ्ठा कर- कर आशियाने को सजाया था
कैसे उतारूंगी उन परदों को  जिनकी ओट में
तुम मुझे लपेट लेते थे दुनिया की सारी बुरी बालाओं से
कैसे मै उस डाइनिंग टेबल को - सोफे को -
डबल बेड को सच क्या क्या समेटूं कैसे समेटूँ
सच ये सब जितना सोचती हूँ
उतना ही टूट जाती हूँ
उतना ही बिखर जाती हूँ
वैसे भी मेरे लिए तो तुम सारी दुनिया थे
सारा ब्रह्माण्ड थे
और सारे ब्रह्माण्ड को कौन समेट पाया है ?
खैर , तुम उदास मत होना
बस जहां कंही भी बस वहां से इतनी हिम्मत देते रहना
कि खुद को बस इतना समेट पाऊँ
कि ईशु की ज़िम्मेदारी निभा सकूँ - बस
फिर खुद ब खुद बिखर जाऊँगी उसी शून्य में
जिस शून्य में तुम बिखर गए हो समां गए हो

(चूँकि , आँखे डबडबा चुकी हैं
उँगलियाँ साथ छोड़ रही हैं शब्दों का
इस लिए बस इतना ही)
वैसे भी कल की तैयारी करनी है -
कुछ और हिस्सों में टूटने की
बिखरने की

तुम्हारी नीना ..... 









Wednesday, 13 November 2019

जया

मोबाइल पे मेसेज फ़्लैश होते ही, जया ने ओपन किया।
" जया जी, जब भी आप अपने को शांत और संयत पायें।  अपने न ख़त्म होने वाले दुःख से थोड़ा भी उबर पायें तो बताइयेगा ...."
पहले तो जया राज के इस छोटे से संयत और बहुत कुछ कहते हुए मेसेज को देर तक देखती रही, फिर डबडबाई आँखों और काफी प्रयास
से संयत की उसकी उँगलियाँ की पैड पे चलने लगीं। 
"राज जी ! मुझे नहीं पता मै कब उबर पाऊँगी अपने इस दुःख से या उबर पाऊँगी भी या नहीं और अगर उबरी भी तो क्या अपने को इतना संयत और शांत
कर पाऊँगी कि आपसे बात कर सकूँ।
निःसंदेह आप एक सुलझे और संयत इंसान हैं। शायद यही वजह रही आप  सोशल मीडिया से मिले इतने सारे मित्रों में से आप से ही इतना बात कर लेती थी।
किन्तु पहले की बात कुछ और थी।  पर इस हादसे के बाद से मेरे माँ  या बेटा या कोई न कोई रिश्तेदार मेरे आस पास रहता ही है।  मेरी निजता के साथ साथ मेरा मोबाइल भी सार्वजानिक हो गया है।  इधर उधर कंही भी पड़ा रहता है - वैसे भी अब इसकी मुझे ज़रूरत नहीं फिलहाल।  लिहाज़ा आप बार बार मेसज न करें।
यदि कभी लगा मुझे आप से बात करनी है, तो खुद ब खुद मेसज करूंगी या फ़ोन करूंगी। सॉरी ......, अन्यथा मत लीजियेगा।  वैसे भी सांत्वना और सहानभूति के शब्द सुन सुन के उलझन होती है।  फिलहाल मै एकांत चाहती हूँ - "

मेसज सेंड कर के जया ने अपनी डबडबाई आँखे पोछी, और मोबाइल सरका कर अपना सिर सोफे की बैक से टिका के आँखे बंद कर ली।
जया इस वक़्त अपनी घुटी जुटी रुलाई और घड़ी की टिक टिक के बीच सिर्फ और सिर्फ - अपने और रवि के बारे में सोचना चाहती थी -और उन पलों में फिर से जीना चाहती थी, जो पल फिर से न लौट के आने के लिए जा चुके थे।

Wednesday, 6 November 2019

सुनो ! अवि

सुनो !
अवि , मुझे नहीं मालूम
तुम इस वक़्त कहाँ हो किस दुनिया में हो, किस लोक में हो
पर इतना विस्वास है, तुम जहाँ कहीं भी हो अच्छे से हो,
अपने से श्रेष्ट आत्माओं के बीच हो जो तुम्हे इस संसार की नस्वरता और सत्यता के बारे में बता रहे होंगे,
तुम्हारे दुःख को कम कर कर के एक परम शांत अवस्था में ला चुके होंगे -
हाँ, उस वक़्त ज़रूर तुम थोड़ा असहज और दुखी हो जाते होंगे जब तुम अपने लोक से इस नश्वर लोक में झांकते होंगे
और अपनी नीना - ईशू और परिवार वालों को दुःखी देखते होंगे -
तो मै दूसरों की तो नहीं पर अपनी तरफ़ से विस्वास दिलाती हूँ, मेरे लिए मत दुखी होना - जहाँ भी हो वहां खुश रहना -
हमें ये मालूम तो नहीं पर ये भी विस्वास है कि तुम जिस लोक में हो वो लोक इस लोक इस लोक से बहुत दूर नहीं है, वो लोक
भी इस लोक के साथ दूध और पानी सा घुला मिला है , बस फर्क इतना है की उस लोक और इस लोक के बीच ज़िंदगी और
मौत का एक ऐसा पर्दा है जिसके गिरने के बाद आत्मा उस लोक से इस लोक को तो देख सुन और समझ पाती है - पर
इस लोक  के लोग उस पर नहीं देख सुन पाते -
जैसे कांच के एक कमरे में तुम हो और दुसरे कमरे में मै जिसमे से तुम तो मुझे देख पा रहे हो पर मै नहीं -

पर अभी भी तुम मेरे पास उसी तरह हो जैसे मात्र एक सप्ताह पहले थे -  तुम्हरी साँसे मै वैसे ही सुन पा रही हूँ जैसे
पहले सुन पाती थी - तुम्हारे लम्स लम्स को  ठीक वैसे ही महसूस कर पा रही हूँ जैसे महज़ कुछ दिन पहले तक कर पाती थी
तुम्हारा वही गंभीर शानदार व्यक्तित्व वही मुस्कान वही प्यार भरा गुस्सा वही आदतें वही सब कुछ ,वही सब कुछ -
तभी तो तुमसे बात कर पा रही हूँ अवि -
लिहाज़ा तुम उदास मत होना वर्ना मै और उदास हो जाऊँगी -
मै तुमको ये खत तो इस लिए लिख रही हूँ ताकि, मै अपने बिखरे हुए वज़ूद को समेट सकूँ अपने आंसुओ को `अपनी पलकों में
क़ैद कर सकूँ  ताकि ईशू मुझे रोता देख और न दुखी हो जाए
ताकि , तुमसे बात कर के खुद के डगमगाए आत्मविश्वास को   इकठ्ठा कर सकूँ -
ये और बात मेरा विस्वास मेरा आत्मविस्वास मेरी खुशी मेरी दुनिया तुम - तुम और सिर्फ तुम ही थे तुम ही हो
तुम ही रहोगे - पिछले जन्मो में भी इस जन्म में भी थे और आगे भी रहोगे - शायद तब तक जब तक मेरी और तुम्हरी आत्मा परमात्मा में विलीन
नहीं हो जाती -
शायद मै कुछ ज़्यादा जज़्बाती होती जाती हूँ पर  क्या करूँ अवि बस ऐसा लगता है दरवाज़ा खटके और तुम आ जाओ
और बस मै तुमसे लिपट के खूब- खूब रोलूं तुमसे शिकवा शिकायत कर लूँ -
खैर,,,,
तो तुमसे ये सब कह के मै खुद को तैयार कर रही हूँ - उन कागज़ों पे दस्तख्वत करने के लिए
जिनपे कोइ हिन्दू औरत दस्तख्वत नहीं करना चाहेगी - मै खुद को तैयार कर रही हूँ - कलकत्ता के उस फ्लैट में जा के सब कुछ सहेजने के लिए
जिसके हर कमरे की हर दीवार में हर स्पेश में तुम हो तुम हो और सिर्फ तुम हो - तुम्हरे साथ बिताये लम्हें हैं, तुम्हारे वो पर्सोनल बिलॉन्गिंग जिन्हे, जिन्हे
तुम इस्तेमाल करते थे- चाहे वो कपडे हों , शेविंग किट हो - पेन हो - ऑफिस बैग हो या कुछ 
सहेज पाऊँ बिना रोये बिना उदास हुए - बिना ईशु को दुखी किये - खैर तुम उदास मत हो अवि -और भी बहुत कुछ-
खैर तुम मेरी बिलकुल चिंता मत करो मई बिलकुल ठीक हूँ
बस आज कमर में कुछ दर्द सा है - और घबराहट सी भी हो रही थी - और भी बहुत कुछ - बस इसी लिए तुमको ये सब लिखने बैठ गयी -
सच, अवि तुम्हारी ये अल्हड नदी जो अब तक बेख़ौफ़, बेलौस इठलाती बलखाती बहती रह, जो  बह - बह  के अपने हिसाब से तब या उदास हो जाती तो तुम्हरी समंदर सी बाँहों में समां के सोचती कि मेरी ज़िंदगी का समंदर तुम्ह ही तो हो - और शांत हो जाती -
पर तुम्हरी ये इठलाती नदी आज खुद दुःख का समंदर बन गयी है - जिसमे अब तो सिर्फ तूफ़ान आने है - या फिर शांत बहना है -
सच अवि आज से मात्र एक हफ्ते पहले तक तो मै ज़िंदगी को बस एक फूलों का बैग समझती थी और चिड़िया सा फुर्र - फुर्र उड़ती थी -
तभी तो तुम भी अक्सर मुझे पकड़ के मुस्कुराते हुए कहते थे क्या हर वक्त परिंदो सा उड़ती रहती हो - कभी किटी पार्टी में तो कभी योगा
क्लास में तो कभी
डांस की रिहर्सल के लिए और तब मै अपनी मुहब्बत के डैने समेट तुम्हारे बरगद सी साखों वाली डाल पे अपनी चोंच रख देती - और तुम मेरे सिर पे अपने होंठ।
सच जब याद आते हो न - तो बहुत बहुत कुछ याद आने लगता है - तुम्हारे संग साथ बिताया एक एक लम्हा - एक एक दिन - एक एक पल -
मैंने कभी कल्पना भी न की थी कि कभी तुम्हारे बिन भी रहना पड़ सकता है -
अवि जानती हो - हर स्त्री की तरह मेरी भी ख्वाहिश थी कि तुम एक बार कम से कम एक बार तो अपने मुँह से कहते - कि तुम मुझे बहुत प्यार करते हो -
पर तुमने कभी नहीं कहा कभी भी नहीं - इस बात से मै कई बार तो झुंझला भी जाती - उदास भी हो जाती - हाला कि मुझे भी प्रेम का आडम्बर पसंद नहीं
पर कभी कभी - थोड़ा बहुत तो ज़रूरी है - जीवन के रस को बनाए रखने के लिए - ऐसा मेरा मानना था - और इसी लिए एक  तुमसे ये बात कही भी थी -
तब तुमने मुझे - पगली - कह के अपने सीने से लगा लिया था - और मै रो दी थी -  और तुम मेरे बालों को सहलाते रहे थे - ये कह के - "पगली ये सब कहा नहीं जाता महसूस किआ जाता है " और मैंने रोते रोते तुम्हरी बातों की हाँ में हाँ मिला के छुप गयी थी तुम्हारे सीने में -

तुम्हे याद है अवि शुरुआत में तुम कित्ता कित्ता गुस्सा किया करते थे -
कई बार मै डर भी जाती थी - पर धीरे धीरे तुमने अपने गुस्से पे काबू किआ - और शांत शांत और शांत होते गए -
और इतने शांत हो जाओगे पता न था - वरना मैँ तुम्हे हमेशा गुस्सा वाला ही रहने देतीं -

अवि जानती हो इधर कुछ महीनो और सालों से मै तुम्हारे प्रेम को अपने लिए रोज़-रोज़ बढ़ते महसूस करती थी - ऐसा लगता था तुम  अब अहले से ज़्यादा मेरी केयर करने लगे हो और ये बातें मुझे तुम्हारे शब्द  नहीं तुम्हारी आँखे बतातीं तुम्हारे अंदाज़ बताते,
- जानती हो अभी कुछ दिन पहले ही मुझे जाने क्यों ऐसा आभाष हुआ की जैसे मेरी कोइ बहुत प्रिय चीज़ मुझसे खो रही है - उस दिन मै बहुत
डिस्टर्ब थी - पर मुझे क्या मालूम था - शायद काल को अपनी ये खुशी नहीं बर्दास्त हो रही है और वो तुमको ही मुझसे छीन ले जाएगा - अगर ऐसा जानती तो
मै उससे कहती तू मुझे ले जा पर मेरे अवि को बख्श दे - पर ऐसा कभी नहीं हो सकता था और न हुआ -
लिहाज़ा इस साल की  दीवाली - ने अपनी अमावस्या की काली स्याही सी चादर ओढ़ा कर तुम्हे हमसे छीन ले गयी - और परिवार की खुशियों के सारे चराग़ बुझ गए - मुझे क्या पता था की इस बार की परीवा पे ज़िंदगी की सारी खुशियों के पर्वों पे ग्रहण लग जाएगा -

पर अवि तुम दुखी मत हो - इन एक हफ़्तों में तुम्हरी नीना ही नहीं तुम्हरा ईशु भी बहुत बड़ा और समझदार हो गया है -
मै भी कुछ दिनों में खुद को संभाल  लूंगी ताकि -ईशु की ज़िम्मेदारी पूरी ईमानदारी से निभा सकूं -

जानते हो उस दिन के बाद जितने लोग आ रहे हैं सब ये कह रहे थे कि मैंने तुम्हे बहुत कुछ सिखाया - पर उन लोगों को क्या पता की नीना ने नहीं
तुमने नीना को जीना सिखाया -हँसना सिखाया-समझदारी सिखाई -वरना आज तो तुम्हरी नीना टूट ही गयी होती।

खैर ! तुम उदास मत हो-मै ठीक हूँ -ईशू ठीक है-
मम्मी और परिवार के सभी लोग तुम्हे बहुत मिस करते हैं -

कहना तो बहुत कुछ है - पर  फिलहाल इतना ही -

तुम्हरी अल्हड नदी
तुम्हारी चिड़िया
तुम्हारी पगली
तुम्हारी सब कुछ --  सब कुछ