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Sunday, 31 July 2016

फ़लक पे ये जोे आफताब है न !

सुमी,
फ़लक पे ये जोे आफताब है न  ! सूरज ! लाल सुर्ख लाल। डहलिया के फूल सा टह टह करता लाल आफताब। अपनी मस्ती में घूमता हुआ सब को रोशनी देता हुआ। खुद को राख करता हुआ नाराज हो जाये तो क़ायनात को भी राख कर देने वाला आफताब।
ये आफताब हमेसा से इतना गरम न था। इक जमाना था जब इसकी किरणें रोशनी तो देती थी पर जलाती न थी जिस्म कोे दिल को रुह को चॉदनी से भी ज्यादा ठंडक पहुंचाती थी।
और ये आफताब अपनी मस्ती मे मगन अपनी विशालता और भव्यता के साथ अपनी धूरी पे घूमता हुआ क़ायनात के चक्कर लगाता रहता।
और जानती हो ? क़ायनात की तमाम निहानकायें और हमारी प्रथ्विी जैसी न जाने कितनी प्रथ्वियां इस आफताब पे मुग्ध हो जातीं। अपना दिल हथेली पे ले, इसके चारों ओर चक्कर लगाने व साथ पाने के लिये बेताब रहतीं ।
मगर, ये आफताब ! अपने गुरुर मे मगन कायनात के चक्कर पे चक्कर लगाता रहता और खुश रहता अपने अकेले पन मे ही।
मगर ! एक दिन जब वह अपनी ही निहारिका यानी आकाशगंगा मे घ्ूाम रहा था। और हमेसा सा अपनी धुरी पे नाच रहा था कि अचानक उसे अपने से दूर बहुत दूर एक छोटी सी मगर बेहद खूबसूरत सी समंदर का घांघरा ओर हरियाली चुनरी ओढे प्रिथ्वी दिखी जो उसी की तरह अपनी धुन मे नाच रही थी और खुश थी।
आफताब ने उसे देखा और देखता ही रह गया। वह अपनी गति भूलकर ठिठका रह गया पल भर को और फिर वो उस धरती को उसकी खूबसरती को करोडों करोडों प्रकाशवर्ष की दूरी से निहारने लगा।
अचानक धरती को जाने क्यूं लगा कोई उसे गौर से देख रहा है नाचते हुये घूमते हुये।
उसने अपनी नजरें उठायीं तो उसे आसमान मे बडा और खूब बडा मदमस्त सा ये आफताब दिखा उसे देखते हुये।
दोनो की नजरें चार हुयीं।
और ..... पल भर मे न जाने क्या हुआ दोनो एक दूसरे के आकर्षण में बंध गये हमेसा हमेसा के लिये।
और .... उस पल से ये आफताब और धरती दोनो एक दूसरे के लिये ही अपनी धुरी पे नाचने और घूमने लगे। अपनी ही मस्ती मे रहने लगे। एक दूसरे के नजदीक आने लगे।
और फिर आफताब व धरती के संजोग से इन्सानो व जीवों की पैदाइस हुयी।
तब से ये धरती मॉ की तरह हम इन्सानों को पालती आ रही है और आफताब हम इन्सानों को जीवन देता आ रहा है रोशनी के रुप मे।
उधर आफताब और धरती की ये मुहब्बत फलक रहने वाले कुछ फरिस्तों को पसंद नही आयी। वैसे भी मुहब्बत को जमाने ने कब पसंद किया है ? और उन लोगों ने धरती और आफताब के खिलाफ बगावत कर दी। पर दोनो न माने ।
तो फरिश्तों ने आफताब से कहा ‘जा, आज के बाद से तू इतना जलेगा इतना जलेगा कि तू अपनी ही आग मे जल जल के राख हो जायेगा  और यही नही तेरे नजदीक जो भी आयेगा वह भी खाक हो जायेगा। और जिस दिन यह धरती तुम्हारे नजदीक आयेगी वह भी खाक हो जायेगी।
पर आफताब को इन बातों का कोई भी असर न होना था और न हुआ।
और --- वह आज भी जलता हुआ नाच रहा है घूम रहा है।
और -----इधर धरती अपने बच्चों को लिये दिये इस उम्मीद पे अपनी धुरी पे नाज रही है। कि एक न एक दिन जरुर वह अपने आफताब की बाहों मे होगी हमेसा हमेसा के लिये।
भले ही वो और आफताब दोनों खाक हो जायें।
बस ! सुमी, तुम मुझे भी एक ऐसा ही जलता हुआ आफताब और अपने को नाचती हुयी धरती जानो जो एक दूसरे के आकर्षण में  बंधे - बंधे जीते हैं मरते हैं कसमे खाते हैं फिर - फिर मिलने को बिछुडने को जन्मो - जन्मों से न जाने कितने युगों - युगों से ।
सुन नही हो न सुमी ?
अरे !!!  तुम तो सो गयी ?
चलो, हम भी सो जाते हैं ।
वैसे भी बहुत रात हो गयी है, जो काली भी हैं। अधियारी भी है।
बॉय! गुड बॉय !
सुमी

Thursday, 28 July 2016

घात लगाये बेजुबानों पे

घात  लगाये बेजुबानों पे
बैठे हैं शिकारी मचानो पे

गर आप खरीदना चाहो?
सच मिलता है दुकानों पे 

ज़ुल्म हमेशा होता आया
सिर्फ ईश्क के दीवानों पे


मुकेश इलाहाबादी ----

महफ़िलों में जब भी आप सज-संवर के आते हैं

महफ़िलों में जब भी आप सज-संवर के आते हैं
आप को देखने फ़रिश्ते भी आसमान से आते हैं

मुकेश इलाहाबादी ----------------------------------

Wednesday, 27 July 2016

जिंदगी अपनी मुस्कुराने लगी है तब से

जिंदगी अपनी मुस्कुराने लगी है तब से 
नज़दीक मेरे आप आने लगे हैं, जब से 

इक बार आप आ कर देखें ज़रा छत से 
खड़े हैं आपके दर पे हम न जाने कब से 

दे दें गर इज़ाज़त बटोर लूँ दौलत को,जो
हंसी के हीरे मोती झरते हैं आपके लब से

फक्त  आप की  झलक पाने के बाद से ही
इबादत में  आप को ही मांगते हैं रब से

मुकेश इलाहाबादी -----------------------

बे - बहर हैं हम

बे - बहर  हैं  हम
बे - शहर हैं हम

इक  ज़माने   से
दर- बदर हैं हम

अपने ही हाल से
बे -ख़बर हैं  हम

संसार  सागर मे
इक लहर हैं  हम

कोई चला ही नहीं 
सूनी, डगर हैं हम

मुकेश इलाहाबादी -

Tuesday, 26 July 2016

कि सावन आ गया अब तो

कि सावन आ गया अब तो
आ हमसे मिल जा अब तो

विरह अगनि में जले बहुत
आ कुछ तो प्यास बुझा जा

है हुई, रात अंधियारी बहुत
तू दीपक तो, एक जला जा

जेठ बैसाख, हम सूखे बहुत
बादल,तू पानी तो बरसा जा 

अपनी-अपनी सबने कह दी
मुकेश तू भी ग़ज़ल सुना जा

मुकेश इलाहाबादी ----------

Monday, 25 July 2016

सारी क़ायनात की ख़ूबसूरती

सारे,
क़ायनात की ख़ूबसूरती
तुम पे उतर आती है
जब, तुम सजा लेती हो
माथे पे लाल बिंदी
और,
सिर को ढँक कर पल्लू से
झुका लेती हो
बड़ेरी अँखियाँ
सच !
तब तुम
बहुत प्यारी लगती हो
सच, बहुत - बहुत प्यारी
लगती हो तुम, सुमी

मुकेश इलाहाबादी -----

ये ज़िन्दगी ईश्क़गाह में गुज़रे

तू फूल की मानिंद खिल और खुशबू सा महक
या परिंदा बन जाए, मुंडेर पे बुलबुल सा चहक
मेरी चाहत है कि इक दिन तू महताब बन जाये
चाँद बन कर मेरी अंधेरी स्याह रातों में चमक
मुकेश इलाहाबादी ---------------------------------

नदी से क्या दोस्ती कर ली

नदी से क्या दोस्ती कर ली
समंदर से दुश्मनी कर ली
फ़लक़ भी है, ख़फ़ा, जबसे
चाँदनी से आशिक़ी कर ली
कूचाए ईश्क से क्या गुज़रे
ज़माने में रुसवाई कर ली
मुकेश तुम भी नहीं बोलते,
तुमसे क्या दिल्लगी कर ली
मुकेश इलाहाबादी -------

Thursday, 14 July 2016

रातो दिन का हिसाब मांगेगी

रातो  दिन  का हिसाब मांगेगी
ज़िंदगी कुछ तो जवाब मांगेगी

परदेसी पिया !किसी दिन गोरी
सूने सावन का हिसाब मांगेगी

अगर  आब न  हो मयस्सर, तो
देखना यही प्यास शराब मांगेगी

चेहरों पे यूँ ही पड़ते रहे तेज़ाब
यही ख़ूबसूरती हिज़ाब मांगेगी

रात और अँधेरा ही काफी नहीं,,
सोने के लिए नींद ख्वाब मांगेगी

मुकेश इलाहाबादी -----------------

Sunday, 10 July 2016

उदासी घर सजाती रही

उदासी  घर सजाती रही
तंहाई साथ निभाती रही

हंसना खिलखिलाना चाहूँ
होंठो से हंसी रूठ जाती है

मुकेश इलाहाबादी ---------

Friday, 8 July 2016

खुशबू है, खूबसूरती है , बला की नाज़ुकी है

खुशबू है, खूबसूरती है , बला की नाज़ुकी है
ऐ दोस्त तुझमे फूल की कौन सी खूबी नही है ?
मुकेश इलाहाबादी ---------------------------------

Sunday, 3 July 2016

सुना है, दुनिया गोल है

सुना है,
दुनिया गोल है
पर् ,
शायद ,
इतनी भी गोल नही
कि,
चल - चल कर
हम फिर, वहीं मिल् जाते
जहां से बिछड़े थे
क्यूँ , सुमी,
सही कह रहा हूँ न ??

मुकेश इलाहाबादी -----  

Friday, 1 July 2016

ख्वाहिशें इन्सान के लिये खाद पानी होती हैं।


सुमी,

ख्वाहिशें इन्सान के लिये खाद पानी होती हैं। इन्सान के अंदर ख्वाहिश न हो कुछ पाने की कुछ जानने की कुछ करने की तो समझ लो वह इन्सान इन्सान नही जड है पत्थर है, एक बेजान मूरत है। यही ख्वाहिशे ही तो हैं जो इन्सान को आगे आगे और आगे बढाती है। यही ख्वाहिशे तो है जो इन्सान को तरक्की के रास्ते पे ले जाती हैं। ख्वाहिशे न होती तो इन्सान इन्सान नही जानवर होता।

एक बात जान लो ख्वाहिशों मे और अमरबेल मे कोई फर्क नही है। अमर बेल की सिफ़त होती है कि उसकी कोई जड नही होती वह किसी न किसी पेड का सहारा ले के बढती है, और वह जिस पेड का सहारा और खाद पानी लेकर बढती है उसी को सुखा देती है। बस उसी तरह इन ख्वाहिशों का समझो। ये ख्वाहिशें वो अमर बेल हैं जो हर इंसान के अंदर जन्म लेती हैं और फिर इन्सान इस बेल को पुष्पित और पल्लवित करने मे लगा रहता है, और नतीजा यह होता है कि उसकी ख्वाहिशों की अमर बेल तो फलती फूलती रहती है दिन दूनी बढती रहती है पर वह इन्सान दिन प्रतिदिन सूखता जाता है, सूखता जाता है, और एक दिन सूख कर खुद को ही खत्म कर लेता है।
और जिसने इस ख्वाहिशों रुपी जहरीली अमरबेल को शुरुआत मे ही बढने से रोक देता है वही अपने वजूद को बचा पता है। या फिर इन्हे उतना ही फैलने देता है जितनी उस इन्सान की शक्ति और सामर्थ्य है। वर्ना उस इन्सान का वजूद खत्म ही समझो।
सुमी, ऐसा नही कि मेरे अंदर कोई ख्वाहिश नही। मेरे मन मे भी कई ख्वहिशें रही कई सपने रहे जिन्हे मै बडी शिददत से पालता रहा देखता रहा। पर मैने कभी इन ख्वाहिशों को इतना पर नही फैलाने दिया कि वो मेरे ही वजूद पे हावी हो जायें। हालाकि, इस बात से कई बार मेरी चाहते फलने फूलने और पूरी होेने के पहले ही मर खप गयीं और मै काफी देर तक तरसता रहा तडपता रहा, पर यह भी है कि, बाद मे मेरा यही निर्णय सही भी साबित हुआ। आज मै बहुत खुश नही हूं तो दुखी भी नही हूं।
लिहाजा मेरी जानू मेरी सुमी, मै तुमसे भी यही कहूंगा कि सपने देखो पर सपनो में डूबो नही। ख्वाहिशें रक्खों पर ख्वाहिशों के लिये पागल मत बनो।
और जो ऐसा कर लेता है वही बुद्ध है वही ज्ञानी है वही महात्मा है वही सुखी है।

बस आज इतना ही कहूंगा। बाकी सब कुछ यथावत जानो।

मुकेश इलाहाबादी ----

सुनो ,
तुम सुन रहे हो ना ?
तुम ठीक ही कह रहे हो ,ये ख्वाब ही सच है ?हाँ......ये ख्वाब ही सच है !जो जीने के लिये ज़रूरी है ,जिंदगी को जीने के लायक........यही ख्वाब तो बनाते है ,वरना कितना कठोर है यथार्थ का धरातल...............मगर क्या ये आँखे ख्वाब देखती है ?तुमने देखा है कभी किसी आँख में ख्वाब तैरता.........मैने देखा है !
सच मैने देखा है तुम्हारी आँखो में...एक ख्वाब तैरता.....मेरी सूरत की सूरत में..........मैने देखा है खुद को तुम्हारी आँखो में ,तो क्या मै ही तुम्हारा ख्वाब हूँ..........शायद........!!
मगर ख्वाब ये आँखे नहीँ रचती...वो तो सिर्फ़ देखती है ,फ़िर कौन रचाता है ये ख्वाब......मै बताऊँ......ये मन.......हाँ ये मन ही कुँचि पकड़ता है ,दिल के लहू में डूबा कर रच देता है ख्वाब ,आँखो में तो मात्र परछाई है उस ख्वाब की....जो दिल ने रचा.......तभी तो होता है ये........जब कोई ख्वाब टूटता है.....दिल खून के आँसू रोता है ,इनकी तो रचना ही लहू से हुई ,टूटने पर बहना ही था ,एक दर्द का झरना....मगर मै तुम्हारे ख्वाब नहीँ टूटने दूँगी....रच दूँगी एक और.....अगर इक टूटा.....दूसरा....धीरे धीरे मेरे ख्वाब तुम्हारे हो जायेंगे ! बस अब और नहीँ.....टूटने दूँगी तुम्हे कतरा कतरा....मेरे ख्वाब सजा कर..........मगर कैसे तुम्हारी आँखो से दिल में उतर जाऊँ ,थाम लूँ वो कुँचि और रच दूँ वो हर ख्वाब जो तुमने देखे मेरे लिये..........हर ख्वाब....हाँ हर ख्वाब......मगर फ़िर भी तुम भी जानते हो मै नहीँ हूँ.........
मै नहीँ हूँ.............
तुम्हारी सुमि
अलविदा "

(नाम न छापने की शर्त पे एक पाठिका ने खत का जवाब भेजा है 'सुमी'  की तरफ़ से 

ख्वाहिशें इन्सान के लिये खाद पानी होती हैं

सुमी,

ख्वाहिशें इन्सान के लिये खाद पानी होती हैं। इन्सान के अंदर ख्वाहिश न हो कुछ पाने की कुछ जानने की कुछ करने की तो समझ लो वह इन्सान इन्सान नही जड है पत्थर है, एक बेजान मूरत है। यही ख्वाहिशे ही तो हैं जो इन्सान को आगे आगे और आगे बढाती है। यही ख्वाहिशे तो है जो इन्सान को तरक्की के रास्ते पे ले जाती हैं। ख्वाहिशे न होती तो इन्सान इन्सान नही जानवर होता।

एक बात जान लो ख्वाहिशों मे और अमरबेल मे कोई फर्क नही है। अमर बेल की सिफ़त होती है कि उसकी कोई जड नही होती वह किसी न किसी पेड का सहारा ले के बढती है, और वह जिस पेड का सहारा और खाद पानी लेकर बढती है उसी को सुखा देती है। बस उसी तरह इन ख्वाहिशों का समझो। ये ख्वाहिशें वो अमर बेल हैं जो हर इंसान के अंदर जन्म लेती हैं और फिर इन्सान इस बेल को पुष्पित और पल्लवित करने मे लगा रहता है, और नतीजा यह होता है कि उसकी ख्वाहिशों की अमर बेल तो फलती फूलती रहती है दिन दूनी बढती रहती है पर वह इन्सान दिन प्रतिदिन सूखता जाता है, सूखता जाता है, और एक दिन सूख कर खुद को ही खत्म कर लेता है।
और जिसने इस ख्वाहिशों रुपी जहरीली अमरबेल को शुरुआत मे ही बढने से रोक देता है वही अपने वजूद को बचा पता है। या फिर इन्हे उतना ही फैलने देता है जितनी उस इन्सान की शक्ति और सामर्थ्य है। वर्ना उस इन्सान का वजूद खत्म ही समझो।
सुमी, ऐसा नही कि मेरे अंदर कोई ख्वाहिश नही। मेरे मन मे भी कई ख्वहिशें रही कई सपने रहे जिन्हे मै बडी शिददत से पालता रहा देखता रहा। पर मैने कभी इन ख्वाहिशों को इतना पर नही फैलाने दिया कि वो मेरे ही वजूद पे हावी हो जायें। हालाकि, इस बात से कई बार मेरी चाहते फलने फूलने और पूरी होेने के पहले ही मर खप गयीं और मै काफी देर तक तरसता रहा तडपता रहा, पर यह भी है कि, बाद मे मेरा यही निर्णय सही भी साबित हुआ। आज मै बहुत खुश नही हूं तो दुखी भी नही हूं।
लिहाजा मेरी जानू मेरी सुमी, मै तुमसे भी यही कहूंगा कि सपने देखो पर सपनो में डूबो नही। ख्वाहिशें रक्खों पर ख्वाहिशों के लिये पागल मत बनो।
और जो ऐसा कर लेता है वही बुद्ध है वही ज्ञानी है वही महात्मा है वही सुखी है।

बस आज इतना ही कहूंगा। बाकी सब कुछ यथावत जानो।

मुकेश इलाहाबादी ----

सुनो ,
तुम सुन रहे हो ना ?
तुम ठीक ही कह रहे हो ,ये ख्वाब ही सच है ?
हाँ......ये ख्वाब ही सच है ! जो जीने के लिये ज़रूरी है, जिंदगी को जीने के लायक........यही ख्वाब तो बनाते है ,वरना कितना कठोर है यथार्थ का धरातल...............मगर क्या ये आँखे ख्वाब देखती है ? तुमने देखा है कभी किसी आँख में ख्वाब तैरता.........मैने देखा है !
सच मैने देखा है तुम्हारी आँखो में...एक ख्वाब तैरता.....मेरी सूरत की सूरत में..........मैने देखा है खुद को तुम्हारी आँखो में, तो क्या मै ही तुम्हारा ख्वाब हूँ..........शायद........!!
मगर ख्वाब ये आँखे नहीँ रचती...वो तो सिर्फ़ देखती है, फ़िर कौन रचाता है ये ख्वाब......मै बताऊँ......ये मन.......हाँ ये मन ही कुँचि पकड़ता है, दिल के लहू में डूबा कर रच देता है ख्वाब, आँखो में तो मात्र परछाई है उस ख्वाब की....जो दिल ने रचा.......तभी तो होता है ये........जब कोई ख्वाब टूटता है.....दिल खून के आँसू रोता है, इनकी तो रचना ही लहू से हुई, टूटने पर बहना ही था, एक दर्द का झरना....मगर मै तुम्हारे ख्वाब नहीँ टूटने दूँगी....रच दूँगी एक और.....अगर इक टूटा.....दूसरा....धीरे - धीरे मेरे ख्वाब तुम्हारे हो जायेंगे ! बस अब और नहीँ.....टूटने दूँगी तुम्हे कतरा कतरा....मेरे ख्वाब सजा कर..........मगर कैसे तुम्हारी आँखो से दिल में उतर जाऊँ ,थाम लूँ वो कुँचि और रच दूँ वो हर ख्वाब जो तुमने देखे मेरे लिये..........हर ख्वाब....हाँ हर ख्वाब......मगर फ़िर भी तुम भी जानते हो मै नहीँ हूँ.........
मै नहीँ हूँ.............
तुम्हारी सुमि
अलविदा "

(नाम न छापने की शर्त पे एक पाठिका ने खत का जवाब भेजा 

ऊपर - ऊपर राख दिखेगी

ऊपर - ऊपर  राख दिखेगी
अंदर - अंदर अाग मिलेगी
रफ़्ता - रफ़्ता बढ़ता जा तू
मंज़िल अपने अाप मिलेगी
मुकेश इलाहाबादी -------------