सुमी,
फ़लक पे ये जोे आफताब है न ! सूरज ! लाल सुर्ख लाल। डहलिया के फूल सा टह टह करता लाल आफताब। अपनी मस्ती में घूमता हुआ सब को रोशनी देता हुआ। खुद को राख करता हुआ नाराज हो जाये तो क़ायनात को भी राख कर देने वाला आफताब।
ये आफताब हमेसा से इतना गरम न था। इक जमाना था जब इसकी किरणें रोशनी तो देती थी पर जलाती न थी जिस्म कोे दिल को रुह को चॉदनी से भी ज्यादा ठंडक पहुंचाती थी।
और ये आफताब अपनी मस्ती मे मगन अपनी विशालता और भव्यता के साथ अपनी धूरी पे घूमता हुआ क़ायनात के चक्कर लगाता रहता।
और जानती हो ? क़ायनात की तमाम निहानकायें और हमारी प्रथ्विी जैसी न जाने कितनी प्रथ्वियां इस आफताब पे मुग्ध हो जातीं। अपना दिल हथेली पे ले, इसके चारों ओर चक्कर लगाने व साथ पाने के लिये बेताब रहतीं ।
मगर, ये आफताब ! अपने गुरुर मे मगन कायनात के चक्कर पे चक्कर लगाता रहता और खुश रहता अपने अकेले पन मे ही।
मगर ! एक दिन जब वह अपनी ही निहारिका यानी आकाशगंगा मे घ्ूाम रहा था। और हमेसा सा अपनी धुरी पे नाच रहा था कि अचानक उसे अपने से दूर बहुत दूर एक छोटी सी मगर बेहद खूबसूरत सी समंदर का घांघरा ओर हरियाली चुनरी ओढे प्रिथ्वी दिखी जो उसी की तरह अपनी धुन मे नाच रही थी और खुश थी।
आफताब ने उसे देखा और देखता ही रह गया। वह अपनी गति भूलकर ठिठका रह गया पल भर को और फिर वो उस धरती को उसकी खूबसरती को करोडों करोडों प्रकाशवर्ष की दूरी से निहारने लगा।
अचानक धरती को जाने क्यूं लगा कोई उसे गौर से देख रहा है नाचते हुये घूमते हुये।
उसने अपनी नजरें उठायीं तो उसे आसमान मे बडा और खूब बडा मदमस्त सा ये आफताब दिखा उसे देखते हुये।
दोनो की नजरें चार हुयीं।
और ..... पल भर मे न जाने क्या हुआ दोनो एक दूसरे के आकर्षण में बंध गये हमेसा हमेसा के लिये।
और .... उस पल से ये आफताब और धरती दोनो एक दूसरे के लिये ही अपनी धुरी पे नाचने और घूमने लगे। अपनी ही मस्ती मे रहने लगे। एक दूसरे के नजदीक आने लगे।
और फिर आफताब व धरती के संजोग से इन्सानो व जीवों की पैदाइस हुयी।
तब से ये धरती मॉ की तरह हम इन्सानों को पालती आ रही है और आफताब हम इन्सानों को जीवन देता आ रहा है रोशनी के रुप मे।
उधर आफताब और धरती की ये मुहब्बत फलक रहने वाले कुछ फरिस्तों को पसंद नही आयी। वैसे भी मुहब्बत को जमाने ने कब पसंद किया है ? और उन लोगों ने धरती और आफताब के खिलाफ बगावत कर दी। पर दोनो न माने ।
तो फरिश्तों ने आफताब से कहा ‘जा, आज के बाद से तू इतना जलेगा इतना जलेगा कि तू अपनी ही आग मे जल जल के राख हो जायेगा और यही नही तेरे नजदीक जो भी आयेगा वह भी खाक हो जायेगा। और जिस दिन यह धरती तुम्हारे नजदीक आयेगी वह भी खाक हो जायेगी।
पर आफताब को इन बातों का कोई भी असर न होना था और न हुआ।
और --- वह आज भी जलता हुआ नाच रहा है घूम रहा है।
और -----इधर धरती अपने बच्चों को लिये दिये इस उम्मीद पे अपनी धुरी पे नाज रही है। कि एक न एक दिन जरुर वह अपने आफताब की बाहों मे होगी हमेसा हमेसा के लिये।
भले ही वो और आफताब दोनों खाक हो जायें।
बस ! सुमी, तुम मुझे भी एक ऐसा ही जलता हुआ आफताब और अपने को नाचती हुयी धरती जानो जो एक दूसरे के आकर्षण में बंधे - बंधे जीते हैं मरते हैं कसमे खाते हैं फिर - फिर मिलने को बिछुडने को जन्मो - जन्मों से न जाने कितने युगों - युगों से ।
सुन नही हो न सुमी ?
अरे !!! तुम तो सो गयी ?
चलो, हम भी सो जाते हैं ।
वैसे भी बहुत रात हो गयी है, जो काली भी हैं। अधियारी भी है।
बॉय! गुड बॉय !
सुमी
फ़लक पे ये जोे आफताब है न ! सूरज ! लाल सुर्ख लाल। डहलिया के फूल सा टह टह करता लाल आफताब। अपनी मस्ती में घूमता हुआ सब को रोशनी देता हुआ। खुद को राख करता हुआ नाराज हो जाये तो क़ायनात को भी राख कर देने वाला आफताब।
ये आफताब हमेसा से इतना गरम न था। इक जमाना था जब इसकी किरणें रोशनी तो देती थी पर जलाती न थी जिस्म कोे दिल को रुह को चॉदनी से भी ज्यादा ठंडक पहुंचाती थी।
और ये आफताब अपनी मस्ती मे मगन अपनी विशालता और भव्यता के साथ अपनी धूरी पे घूमता हुआ क़ायनात के चक्कर लगाता रहता।
और जानती हो ? क़ायनात की तमाम निहानकायें और हमारी प्रथ्विी जैसी न जाने कितनी प्रथ्वियां इस आफताब पे मुग्ध हो जातीं। अपना दिल हथेली पे ले, इसके चारों ओर चक्कर लगाने व साथ पाने के लिये बेताब रहतीं ।
मगर, ये आफताब ! अपने गुरुर मे मगन कायनात के चक्कर पे चक्कर लगाता रहता और खुश रहता अपने अकेले पन मे ही।
मगर ! एक दिन जब वह अपनी ही निहारिका यानी आकाशगंगा मे घ्ूाम रहा था। और हमेसा सा अपनी धुरी पे नाच रहा था कि अचानक उसे अपने से दूर बहुत दूर एक छोटी सी मगर बेहद खूबसूरत सी समंदर का घांघरा ओर हरियाली चुनरी ओढे प्रिथ्वी दिखी जो उसी की तरह अपनी धुन मे नाच रही थी और खुश थी।
आफताब ने उसे देखा और देखता ही रह गया। वह अपनी गति भूलकर ठिठका रह गया पल भर को और फिर वो उस धरती को उसकी खूबसरती को करोडों करोडों प्रकाशवर्ष की दूरी से निहारने लगा।
अचानक धरती को जाने क्यूं लगा कोई उसे गौर से देख रहा है नाचते हुये घूमते हुये।
उसने अपनी नजरें उठायीं तो उसे आसमान मे बडा और खूब बडा मदमस्त सा ये आफताब दिखा उसे देखते हुये।
दोनो की नजरें चार हुयीं।
और ..... पल भर मे न जाने क्या हुआ दोनो एक दूसरे के आकर्षण में बंध गये हमेसा हमेसा के लिये।
और .... उस पल से ये आफताब और धरती दोनो एक दूसरे के लिये ही अपनी धुरी पे नाचने और घूमने लगे। अपनी ही मस्ती मे रहने लगे। एक दूसरे के नजदीक आने लगे।
और फिर आफताब व धरती के संजोग से इन्सानो व जीवों की पैदाइस हुयी।
तब से ये धरती मॉ की तरह हम इन्सानों को पालती आ रही है और आफताब हम इन्सानों को जीवन देता आ रहा है रोशनी के रुप मे।
उधर आफताब और धरती की ये मुहब्बत फलक रहने वाले कुछ फरिस्तों को पसंद नही आयी। वैसे भी मुहब्बत को जमाने ने कब पसंद किया है ? और उन लोगों ने धरती और आफताब के खिलाफ बगावत कर दी। पर दोनो न माने ।
तो फरिश्तों ने आफताब से कहा ‘जा, आज के बाद से तू इतना जलेगा इतना जलेगा कि तू अपनी ही आग मे जल जल के राख हो जायेगा और यही नही तेरे नजदीक जो भी आयेगा वह भी खाक हो जायेगा। और जिस दिन यह धरती तुम्हारे नजदीक आयेगी वह भी खाक हो जायेगी।
पर आफताब को इन बातों का कोई भी असर न होना था और न हुआ।
और --- वह आज भी जलता हुआ नाच रहा है घूम रहा है।
और -----इधर धरती अपने बच्चों को लिये दिये इस उम्मीद पे अपनी धुरी पे नाज रही है। कि एक न एक दिन जरुर वह अपने आफताब की बाहों मे होगी हमेसा हमेसा के लिये।
भले ही वो और आफताब दोनों खाक हो जायें।
बस ! सुमी, तुम मुझे भी एक ऐसा ही जलता हुआ आफताब और अपने को नाचती हुयी धरती जानो जो एक दूसरे के आकर्षण में बंधे - बंधे जीते हैं मरते हैं कसमे खाते हैं फिर - फिर मिलने को बिछुडने को जन्मो - जन्मों से न जाने कितने युगों - युगों से ।
सुन नही हो न सुमी ?
अरे !!! तुम तो सो गयी ?
चलो, हम भी सो जाते हैं ।
वैसे भी बहुत रात हो गयी है, जो काली भी हैं। अधियारी भी है।
बॉय! गुड बॉय !
सुमी