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Friday, 31 August 2018

सावन भादों सा बरस गयी आँखें

सावन भादों सा बरस गयी आँखें
तेरे दीदार  को  तरस  गयी आँखे

मुद्दतों से यँहा वीराना वीराना था 
तुझे  देखा तो  निखर गयीं आँखे 

यूँ तो निगाह में कोई और ही था
तुझे देख वंही अटक गयी आँखे 

ज़रा सा उसकी तारीफ क्या की
लाज से उसकी लरज़ गयी आँखे

पलकों पे हया के  हीरे- मोती थे
नज़रें मिली तो बहक गईं आँखे

मुकेश इलाहाबादी --------------

Thursday, 30 August 2018

हर रोज़ उलीचता हूँ

हर
रोज़ उलीचता हूँ
अहर्निश 
दुःख के
हरहराते समंदर को
अपनी चोंच से
टिटिहरी की तरह
फिर शाम थक कर
सो जाता हूँ - उसी समंदर की रेत् के किनारे

मुकेश इलाहाबादी ------------------------------

दर्द जैसे जैसे बढ़ता है

दर्द  जैसे  जैसे  बढ़ता है
ज़ख्म वैसे वैसे हँसता है

तेरी  हँसी  इक झरना है
मुझको  ऐसा  लगता है

तेरा हँस  के  बातें करना 
मुझको अच्छा लगता है

आखिर तू मुझको बतला
मुक्कु तेरा क्या लगता है 

मुकेश इलाहाबादी -----

Tuesday, 28 August 2018

मै एक अँधा कुआँ हूँ।

मै एक अँधा कुआँ हूँ
--------------------------------
एक
-----
मै
एक अँधा कुआँ हूँ।
जिसमे से सिर्फ थोड़ा सा आकाश
दीखता है
थोड़ी सी धूप , थोड़ी सी हवा आती है
धूप नीचे मेरी तलहटी तक आती - आती
गुप्प अँधेरे में तब्दील हो जाती है
और हवा - नीचे आते - आते बहना बंद हो जाती है
और गुप्प अँधेरे से गलबहियाँ करके ज़हरीली हो जाती है
लिहाज़ा अब तो मै भी ज़हरीला हो गया हूँ
इतना ज़हरीला कि मेरी तली तक
मेरे अंदर उतरने वाला भी ज़हरीला हो जाता है -
या मेरी तरह मृत हो जाता है
दो
---
मै, एक अँधा कुँआ हूँ
जिसकी तलहटी में निर्मल नहीं थोड़ा सा पानी
का डबरा सा बचा है - वो भी मेरे अंदर की
ज़हरीले हवा से ज़हरीला हो चुका है
थोड़े से कंकर और बाकी मिट्टी दिखती है
ऊपर मेरी जगत से देखोगे तो
सिर्फ और सिर्फ अँधेरा दिखेगा
इस लिए कुछ लोग मुझे अँधा कुँआ भी कहते हैं
तीन
-----
मै एक अँधा और सूखा कुँआ हूँ
जिसके अंदर गाँव कि न जाने कितनी
सुखिया , बुधिया , रधिया सीता,
क़र्ज़ में डूबे किसान समा चुके हैं
कई खूँटा तुड़ा के भागी गाय - बछिया
बकरी - बैल भी मुझमे समा के अब कंकाल शेष बचे हैं
मेरी तलहटी में - कुछ कंकर पत्थर थोड़े से ज़हरीले
और पूरी तरह से ज़हरीली हवा और गुप्प अँधेरे के बीच
अब तो मुझे गाँव वाले - अभिशप्त कुँआ कहते हैं ,
मै भी अपने को इसी नाम से जान्ने लगा हूँ
तीन
-----
गाँव के एक सूखे बाग़ के
बीचों बीच का बहुत पुराना कुँआ हूँ "मै"
जिसकी तलहटी में झांको तो अँधेरा ही अँधेरा
दीखता है - जिसे देख के बच्चे और कई तो बड़े भी
डर जाते हैं - चीख कर भाग जाते हैं
अब मेरे आस पास कोई नहीं आता
मै वर्षो से अपनी तनहाई और अभिशप्त नाम के साथ
यहीं रह रहा हूँ -
हाँ मेहाँ एक ज़माना था
जब मेरे अंदर मीठे पानी का गुप्त झरना था
मै हर वक़्त मीठे मीठे - लरज़ते जल से भरा पूरा रहता था
मेरी जगत पे - अल्ल सुबह से चहल पहल होने लगती
छनकती - मटकती गाँव की लड़कियां बहुऍ - बुज़ुर्ग महिलाऐं
अपनी चूड़ियों की खनखन के साथ -
मेरी जगत पे बनी गराड़ी और रस्सी से
अपना खाली घड़ा और बाल्टियां भरती -
वे यंहा सिर्फ जल ही नहीं भरती - सहेलियों के संग
हँसी ठिठोली कर अपने अंदर के खाली आसमान भी भरतीं
जिन्हे देख मै भी खुश होता - मुस्कुराता अपने को
सौभाग्य साली समझता -
मेरी इसी जगत से लगे चबूतरे पे
सांझ न जाने कितने प्रेमी जोड़े आ आ कर जीने और मरने की
कस्मे खा चुके हैं - और कई बार तो असफल होने पे कभी एक साथ
तो कभी सिर्फ एक प्रेमी मेरे अंदर डूब चूका है - हमेसा हमेसा के लिए
जिसका मुझे बेहद अफ़सोस है
वर्तमान में
मेरे जैसे न जाने कितने और अन्धे अभिशप्त कुंओ को पाट दिया गया है
या फिर उनके ऊपर पत्थर रख के हमेसा हमेसा के लिए बंद कर दिया गया है
सैकड़ों साल से - सैकड़ों पीढ़ियों को - करोङो - करोङो प्यासों की प्यास
बुझाने वाले अब खुद पूछे जाने की प्यास से तड़प तड़प कर दम तोड़ चुके हैं
या तोड़ रहे हैं -
हो सकता है कुछ सालों बाद मेरे जैसे अंधे कुंओ का अस्तित्व सिर्फ
कविता और किताबों में रह जाए -
खैर आप हमारी या दास्ताँ सुन के अपना वक़्त क्यूँ जाया कर रहे हैं -
जाइये अपनी प्यास कंही और बुझाइये
मुकेश इलाहाबादी -----------------------
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Saturday, 25 August 2018

तू न आया तेरा इंतज़ार कर कर सोया


तू न आया तेरा इंतज़ार कर कर सोया
दिल बच्चा था तेरा नाम लेले कर रोया

जाने कौन सा जंगल, भूल भुलैया हो
तेरे पास से गुज़र कर ही ये दिल खोया

मुकेश इलाहाबादी --------------------

गाँठे

एक
----

मर्यादा
में, बंधे - बंधे हमने खोली
एक दूजे की गाँठे
और
बंध गए एक अटूट रिश्ते में

दो
---

आओ,
खोल दे उन अदृश्य गाँठो को
जिनके उग आने से
बिखर गए थे हम दोनों

मुकेश इलाहाबादी ----------

Friday, 24 August 2018

न धूप खिलेगी न पानी रहेगा न हवा बहेगी

न धूप खिलेगी न पानी रहेगा न हवा बहेगी
प्रकृति के साथ खेलोगे तो त्राहि त्राहि मचेगी

जिस तरह रोज़ जंगल और पहाड़ कट रहे है
देखना आसमान से पानी नहीं आग बरसेगी

सत्ता के मद में ये बात मत भूलो सात्तदेशों
अगर जनता चाह लेगी तो तुम्हे कुचल देगी


मुकेश इलाहाबादी -------------------------

मीठे पानी का झरना है कैसे बहता देखूं तो

मीठे पानी का झरना है कैसे बहता देखूं तो
कभी हमसे मिलो तुझे हँसता हुआ देखूं तो

आ मेरे पहलू में कुछ देर बैठ और मुस्करा 
खुशियों के फूलों को खिलता हुआ देखूं तो 

मुकेश इलाहाबादी -------------------------

मान लेता हूँ मै बहुत सच और खरा नहीं

मान लेता हूँ मै बहुत सच और खरा नहीं
ये भी सच है, इंसान इतना भी बुरा नहीं

यूँ तो, दुश्मनो ने कोई कसर छोड़ी नहीं
फिर भी बेशर्मो सा मै ज़िंदा हूँ मरा नहीं

नक़ाब अपने चेहरे से यूँ ही उठाए रखो
कुछ और देख लूँ तुझे , दिल भरा नहीं

मुकेश इलाहाबादी ------------------------

Thursday, 23 August 2018

ये सच है मर नहीं जाऊँगा तुम्हारे बिना

ये सच है मर नहीं जाऊँगा तुम्हारे बिना
पर मै जी भी नहीं पाऊँगा  तुम्हारे बिना

तुम थे तो हँस लेता था खिलखिला लेता
अब मै मुस्कुरा न पाऊँगा, तुम्हारे बिना

यूँ तो मेरे पास कोई और हुनर नहीं है हाँ
ग़ज़लों के  गुल खिलाऊँगा तुम्हारे बिना


मुकेश इलाहाबादी ----------------------

लड़ेगा झगडेगा और मनुहार करेगा

लड़ेगा झगडेगा और मनुहार करेगा
जो शख्श तुमसे सच्चा प्यार करेगा

हो सकता है किसी बात पे झूठा कहे
ज़रूरत पड़े तो तुमपे एतबार करेगा

गर रूठ के तुम उससे मुँह फुला लो
छेड़ छेड़,बात तुमसे बार बार करेगा

गर देखेगा तुम्हारे आस पास खतरा
सबसे पहले तुमको खबरदार करेगा 

दिन हो कि रात हो या हो शुबो शाम
प्यार करने वाला सिर्फ प्यार करेगा

मुकेश इलाहाबादी -----------------

Wednesday, 22 August 2018

पत्थर की मूर्ति थी - वह

पत्थर की मूर्ति थी - वह
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सुना तो यह गया है वह पत्थर की देवी थी।
पत्थर की मूर्ति थी। संगमरमर का तराशा हुआ बदन। एक एक नैन नक्श बेहद खूबसूरती से तराशे हुए। मीन जैसी ऑखें, सुराहीदार गर्दन, सेब से गाल। गुलाब से भी गुलाबी होठ। पतली कमर चौडे नितम्ब। बेहद खूबसूरत देह यष्टि। जो भी देखता उस पत्थर की मूरत को देखता ही रह जाता। लोग उस मूरत की तारीफ करते नही अघाते थे। सभी उसकी खूबसूरती के कद्रदान थे। कोई गजल लिखता कोई कविता लिखता। मगर इससे क्या। वह तो एक मूर्ती भर थी। पत्थर की मूर्ती।
सुना तो यह भी गया था कि वह हमेसा से पत्थर की मुर्ति नही थी। बहुत दिनो पहले तक वह भी एक हाड मॉस की स्त्री थी। बिलकुल आम औरतों जैसी। यह अलग बात वह जब हंसती तो फूल झरते थे। बोलती तो लगता जलतरंग बज उठे हों। चलती तो लगता धरती अपनी लय मे थिरक रही हों।
उसके अंदर भी हाड मासॅ का दिल धडकता था। वह भी अपनी सहेलियों संग सावन मे झूला झूला करती थी। उसके अंदर भी जज्बात हुआ करते थे। वह भी तमाम स्त्रियों सा ख्वाब देखती थी।
वह सपने मे घोडा और राजकुमार देखा करती थी।
और एक दिन उसका यह सपना सच भी हुआ था। जब उसके गांव मे एक मुसाफिर आया। बडे बडे बाल, चौडे कंधे। उभरी हुयी पसलियों। आवाज मे जादू। और वह उसके सम्मोहन मे आगयी। वह उसके प्रेम मे हो गयी।
अगर पुरुष कहता तो वह। गुडिया बन जाती और उसके लिये कठपुतली सा नाचती रहती। अगर पुरुष कहता तो वह सारंगी बन जाती और सात सुरों मे बजती। अगर पुरुष कह देता तो वह नदी बन जाती और पुरुष उसमे छपक छंइयां करता। और पुरुष कहता तो वह फूल बन जाती और देर तक महकती रहती। गरज ये की वह पुरुष को परमात्मा मान चुकी थी और खुद को दासी।
पर एक दिन हुआ यूं कि, खेल - खेल मे स्त्री, पुरुष के कहने से फूल बनी और पुरुष बना भौंरा, उसने फूल का सारा रस ले लिया और फिर खुले गगन मे उड चला न वापस आने के लिये। इधर स्त्री फूल बन के उसका इंतजार ही करती रही।  इंतजार ही करती रही। और वो जब दोबारा स्त्री बनना चाहा तो वह स्त्री तो बनी पर रस न होने से वह पत्थर की स्त्री बन गयी। और तब से वह पत्थर की ही थी।
मगर  उस पत्थर की मुर्ती मे भी इतना आकर्षण था कि जो भी देखता मंत्रमुग्ध हो जाता। जो भी देखता उसे देखता रहा जाता। लोग उसे देखने के लिये दूर दूर से आते, देखते और तारीफ करते।
और एक दिन एक कला परखी ने जब उस पत्थर की स्त्री के बारे मे सुना तो उससे भी रहा न गया।
उस कला के पारखी ने उसे देखने के लिये चल दिया। उसने तमाम नदी नाले पार किये। तमाम जंगलात से गुजरा और पता लगाते लगाते एक दिन उस पत्थर की मूर्ती के गांव पहुच ही गया। और जब उस कला के कद्रदान ने उसे देखा तो वह भी उसके प्रेम मे पड गया। और वह उसकी अभ्यर्थना करने लगा। पर इससे उस स्त्री पे क्या फर्क पडना था ? वह तो पत्थर की थी।
लोग उस कद्रदान पे हंसते, उसे पागल कहते । पर, वह कददान तो उस पत्थर की स्त्री के प्रेम मे सचमुच पागल हो गया था। वह दिन रात उस मूर्ती की पूजा करता अर्भ्यथना करता उसके सामने गिडगिडाता। उससे प्रेम की भीख मांगता, उसके लिये कविता लिखता चित्र बनाता गीत गाता। पूजा करता। और कभी कभी तो उसके कदमो पे सिर रखकर खूब और खूब रोता।
और यह सिलसिला दिनो नही सालों साल चलता रहा।
आखिर उस कद्रदान का प्रेम रंगलाया। और वह पत्थर की मूर्ति, पत्थर से तब्दील हो कर मोम बन गयी और मोम से तब्दील हो कर फूल बन गयी। अब वह मूर्ति औरत की मूर्ति नही जीता जागता फूल थी। सचमुच का फूल जिसे वह कद्रदान सूंघ सकता था। अपने हथेलियेां के बीच ले के महसूस कर सकता था। उसकी कोमलता केा।
और अब वह पत्थर की मूर्ति फूल बन के मुस्कुरा रही थी। जिसे वह कद्रदान अपनी हथेलियों के बीच  आहिस्ता से लेकर उसकी महक को अपने नथूनों मे भर के खुश हो रहा था। अब वह खुशी से झूम रहा था नाच रहा था। हंस रहा था मुस्कुरा रहा था। वह मुर्ति भी उसके हाथों फूल सा खिल के महक के खुश थी। पर वह अपनी खुषी मे पागल कद्रदान यह भूल गया कि अगर उसने अपने अंजुरी को मुठठी मे तब्दील कर लिया या जोर से बंद किया तो फूल की पंखडियां बिखर जायेंगी आैंर फिर फूल फूल न रह जायेगा। पर उस कद्रदान ने ऐसा ही किया। नतीजा। फूल की पंखडियां हथेली मे बहुत ज्यादा मसले जाने से टूट गयीं और बिखर गयीं। अब वह फूल फूल न रहा। एक सुगंध भर रहा गयी।
कद्रदान को जब होष आया तब तक बहुत देर हो चुकी थी। उसके सामने अब न तो वह पत्थर की मुर्ति थी और न उसकी अंजुरी मे फूल थे जो उस मुर्ती के तब्दील होने से बने थे।

कहानी यहीं समाप्त हो जाती है।
पर कहने वाले यह कहते हैं कि। वह कद्रदान आज भी। पहाड की उन्ही चटटानों पे सिर पटकता है और जोर जोर रोता हुआ भटकता हैं कि शायद  उस खूबसूरत सुगंध वाला फूल या यूं कहो की वह स्त्री जो पत्थर की मूर्ति थी। जो उससे नाराज हो के फिर से पत्थर बन गयी है एक दिन फिर मूर्ति बनेगी और फिर उसके प्रेम से फूल बन के खिलेगी।
पर इस बार वह अपनी अंजुरी को कस के नही भींचेगा । पंखुरियों को नही बिखरने देगा।

मुकेश इलाहाबादी ------------

Tuesday, 21 August 2018

हैरत में हूँ देखकर चेहरा तेरा

हैरत में हूँ देखकर चेहरा तेरा
चाँद से भी बेहतर चेहरा तेरा

गुलों पे शुबो की शबनम जैसे
पसीने से तरबतर चेहरा तेरा

सर्द मौसम में, गुनगुनी धूप
है जाड़े की दोपहर चेहरा तेरा

चुप रहती हो फिर भी हमसे
बोलता है अक्सर चेहरा तेरा

और भी खिल गया, झीने से 
नक़ाब में छुपकर चेहरा तेरा

मुकेश इलाहाबादी ---------



ये तो दुनिया है इसी तरह चलती रहेगी


ये तो दुनिया है इसी तरह चलती रहेगी
कंही तूफ़ान होगा तो कंही आग लगेगी 

आज हम यंहा हैं कल हम लोग न होंगे
दुनिया फिर भी इसी तरह चलती रहेगी

ज़माने की कब तक तुम परवाह करोगी
दुनिया तो हर हाल में बदनाम ही करेगी

आ हम भी ईश्क़ की दास्तान लिख जाएं
फिर दुनिया हमें भी सदियों सुनती रहेगी

मुकेश तुम्हे जो सही लगता है तुम करो
दुनिया का क्या ? वो तो कुछ भी कहेगी

मुकेश इलाहाबादी -----------------------

Monday, 20 August 2018

एक रिश्ता होता है दुनियावी

 एक
रिश्ता  होता है
दुनियावी

जिस्म से जिस्म का
मन  से मन का
जिसमे कुछ वायदे होते हैं
कुछ कसमे होती हैं
कुछ ज़माने की बनाई मर्यादाएं होती हैं
इनकी इक उम्र होती है
कुछ दिन कुछ महीने
या कुछ साल भी
कई बार उम्र भर भी होती है
बस ! उसके बाद सब कुछ खत्म

पर
इक रिश्ता और होता है
वो होता है
रूह से रूह का 
जिसमे न कोई वायदा
न कोइ कसम 
न कोइ बंदिश 
यंहा तक कि
कोई नाम भी नहीं होता
बस, 
इक खुशबू भर होती है
जो महकती रहती है - अहर्निश
एक दुसरे की रूह की रूह तक

जिसे सिर्फ
दो रिश्तेदार ही जानते हैं
समझते हैं - निभाते हैं
उम्र भर -
कई - कई बार कई जन्मो तक भी

इस रिश्ते की सलेट पे
सिर्फ एक ही लफ़ज़ होता है
"मुहब्बत "  बे पनाह "मुहब्बत "
 बाकी सलेट कोरी की कोरी होती है
और ये लफ़्ज़े मुहब्बत भी
दिल की सलेट पे - "आब" से लिखा होता है
जिसे सिर्फ - मुहब्बत की आँख वाला ही पढ़ पाता है

बस ऐसा ही इक रिश्ता है
शायद - तेरा और मेरा

दिल से दिल का
रूह से रूह का

समझी कि  नहीं समझी समझी ???

मेरी  लाडो -  मेरी क्यूटी
मेरी सुमी ,,,,,,,,,,,,

मुकेश इलाहाबादी --------

Sunday, 19 August 2018

जब - जब याद आते हो तुम

भूल
जाता हूँ अपने सारे  दुःखों को
सारे संघर्षों को
अवरोधों को
जिस्म और रूह पे लगे घावों को

जब - जब याद आते हो तुम

अंधेरों से निकल
सुनहरे उजाले में आ जाता हूँ

जब - जब याद आते हो तुम 

मुकेश इलाहाबादी --------------

Friday, 17 August 2018

कुछ भीड़ में खो गए कुछ मसरूफ हो गए

कुछ भीड़ में खो गए कुछ मसरूफ हो गए
कुछ हमसे दूर हो गए कुछ मगरूर हो गए

बहुत कोशिशें की, रिश्ते  बनाए रखने की
आखिरकर  हम भी औरों की तरह हो गए

मिज़ाज़पुर्शी के लिए भी कोई नहीं आता
शहर भर के लिए हम बासी खबर हो गए

मेहराबों पे सिर्फ कबूतर गुटुर-गुं करते हैं
कभी हवेली थे अबतो हम खंडहर हो गए

फूल सा खिलने की चाहत थी हमें मुकेश
ज़माने का हुआ असर कि, पत्थर हो गए

मुकेश इलाहाबादी ------------------------

विकास के घने जंगलों में खो गया है

विकास के घने जंगलों में खो गया है
आदमी मज़हबी बातों में खो गया है

उजाला ढूंढ़ने निकला था  इल्म का
वो इंसान अंधेरी रातों में खो गया है

रोशनी का  कोई नया इंतज़ाम करो
सूरज स्वार्थ के अँधेरों में खो गया है

अन्धे - अन्धो को रास्ता दिखा रहे हैं
और आँख वाला विवादों में खो गया है

मुकेश इलाहाबादी -----------------

तुम फूलों की तरह खिलना

तुम फूलों की तरह खिलना मै - भौंरे की तरह मँडराऊँगा मुकेश इलाहाबादी -----

Thursday, 16 August 2018

भर में राजा की डुगडुगी बज रही है

शहर
भर में राजा की डुगडुगी बज रही है
सिपाही चाक -चौबंद हैं
घोड़े हिनहिना रहे हैं
गधे पूँछ हिला रहे हैं
रियाया सिर झुकाये चल रही है
सभी दिशाएं खामोश हैं
जो नहीं थी
उन्हें भी खामोश करा दिया गया है
बोलने की इजाज़त सिर्फ राजा को है
और मुस्कुराने की उसके मंत्रियों की
बाकी जनता को सिर्फ
राजा के मन की बात सुनने का आदेश है
बाकी देश में सब खुशहाली है

मुकेश इलाहाबादी ----------------------

Wednesday, 15 August 2018

पुरानी, चादर में लपेट ली है

पुरानी,
चादर में लपेट ली है
तुम्हारी
थोड़ी सी हँसी
थोड़ी सी मुस्कराहट
तुम्हारे साथ बिताये ढेर सारे पलों की यादें
ढेर सारी तनहाई
थोड़ी सी उदासी
और न ख़तम होने वाली रात की कालिमा
जिस लाद चल दिया हूँ
शब्दों के अंतहीन सफर में
जंहा हैं
कहानियों के जंगल
स्मृतियों के पहाड़
मीठी - मीठी कविताओं के प्यारे- प्यारे झरने
जिनके बीच अब काफी शुकून महसूस करता हूँ

मुकेश इलाहाबादी ------------

Tuesday, 14 August 2018

आओ हम तुम चलें - जंगल में

आओ
हम तुम चलें - जंगल में
जंहा सिर्फ दो फूल खिले हों
एक
"तुम" और एक "मै "

मुकेश इलाहाबादी --------

Monday, 13 August 2018

चीज़ें जो मेरे आस पास से गायब होती गयीं

चीज़ें जो मेरे आस पास से गायब होती गयीं - संस्मरण - एक 
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होश संभालने के बाद से हमारे आस पास से बहुत सी चीज़ें गायब होने लगीं।
जिनमे सब से पहले गायब होने वाली चीज़ों में थी, श्यामा की लकड़ी की टाल।

घर से सटे चौराहे के ठीक दाहिनी तरफ, एक नीम के पेड़ के नीचे श्यामा  की बाँस के टट्टर से घिरी
लड़की की टाल थी.
जलावन लकड़ी , लकड़ी का बुरादा , लकड़ी और पत्थर के कोयले के ढेर के बीच एक कोने में छोटी सी बरसाती में बैठे
गहरे सांवले रंग के बड़ी बड़ी मूंछो हंसमुख चेहरे के श्यामा की लकड़ी की टाल में हमेसा सुबह से देर शाम तक चहल
पहल रहती - आस पास के कई मुहल्लों में उनके यंहा से जलावन लकड़ी - और कोयला जाता -
केवल गंजी और तहमद लपेटे शयामा कभी मजूरों से लकड़ी चिरवाने में व्यस्त रहते तो कभी तुलवाने में , तो कभी
गल्ला संभालने में - वहीं नीम के पेड़ के नीचे बनी छोटी सी बरसाती में वो खाते- पीते और सो भी जाते - कभी कभी पास के गाँव अपने घर जाते
या कभी उनकी घरैतिन एक दो दिन को आ के उसी बरसाती में रह जाती।
श्यामा के टाल में लगा नीम का पेड़ सिर्फ श्यामा को ही छाँव और आसरा नहीं दिए था - उस नीम के ऊपर न जाने कितने पंछियों का भी बसेरा था ,
सुबह शाम सैकड़ों पंछी चहचहाते हुए पेड़ पे आ के बैठते  तो उनकी चहचहाट - पास मस्जिद से आती नमाज़ और पास के मंदिर से आती घंटे की
आवाज़ एक अलग जादूई आलम पैदा करता और सिर्फ उसी वक़्त थोड़ी देर को श्यामा अपनी टाल में धूप बत्ती करते और पंछियों को दाना चुगाते।
वे सुबह भी पंछियों के लिए दाना डालते अपनी बरसाती की छत पे - और जब पंछी उनकी पलास्टिक के और तीन की बरसाती पे उतरते दाना चुगने
तो श्यामा बहुत शुकून महसूस करते - सिर्फ पंछी ही नहीं पेड़ पे बसे सभी जीवों का वो ख्याल रखते - जैसे एक गिलहरी जब भी फुदकती हुई उनके
आस पास से गुज़रती तो वे उसे जो भी खा रहे होते खिलाते - गर्मी की दोपहर में और खाली वक़्त में पेड़ की जड़ों से तने पे उतरती चढ़ती चींटियों की
पांत को आटा खिलाते - पेड़ पे एक बार एक तोता कंही से उडता हुआ आ बैठा था - जो धीरे धीरे शयामा की टाल का सदस्य हो गया था - लोग कहते
इसे पिंजड़े में रख दो - पर श्यामा कहते जब हमे आजादी पसंद है तो हम इस बेजुबान की आजादी क्यूँ छीने - ऐसे थे श्यामा टाल वाले - बाबा - खैर ---
जब कभी लकड़ी चिरवाने - तुलवाने और गल्ले से उन्हें फुरसत मिलती तो मुहल्ले के बुजुर्गों के साथ प्रेम से पान सुपारी - और
हुक्के का आनंद लेते -दुनियादारी की बात करते -  खुश रहते
लेकिन गैस के चूल्हों के आने के बाद से जलावन लकड़ी - लकड़ी के बुरादे और कोयलों की बिक्री काफी कम हो होने लगी
लिहाज़ा श्यामा के टाल की रौनक भी कम होने लगी - और श्यामा के चेहरे की रौनक भी कम होने लगी - धीरे - धीरे श्यामा
की टाल पे लगभग सन्नाटा रहने लगा सिवाय मज़दूर और गरीब तबके के लोग छुटपुट खरीदारी के लिए आते - अब जंहा
शयामा की टाल पे तीन तीन चार चार माज़ूर - हमेसा लकड़ी चीरते और सजाते रहते और शयामा सिर्फ आदेश देते और
निगरानी रखते वंही अब श्यामा अपने कमज़ोर और बूढ़े हाथों से खुद लकड़ी चीरते और सजाते -
हलाकि उन्हें अब ये सब करने की ज़रूरत नहीं रह गयी थी - उनके लड़के पढ़ लिख के लायक बन गए थे -
वे मना करते ये काम करने का - उन्हें अपने पिता का ये काम लकड़हारे का काम लगता - बिलों स्टैंडर्ड दीखता -
पर श्यामा तो पुरानी लकड़ी के बने थे - जिसमे वक़्त की घुन नहीं लगी थी - लिहाज़ा वो अपने इस पचासों साल पुरानी
टाल और पुस्तैनी धंधे को बंद नहीं करना चाह रहे थे - किन्तु वक़्त की और धंधे की मार ने एक दिन शयामा को - अपनी
गोद में ले लिया -
श्यामा के जाते ही - शयामा की पुश्तैनी लकड़ी की टाल लड़कों द्वारा मुहल्ले के पुद्दर तेली के हाथों बेच दी गयी - हरे नीम
के पेड़ों के साथ - बांस में टट्टर  के साथ -
और - देखते देखते शयामा की वो पुरानी लकड़ी की टाल गायब हो गयी -
और गायब हो गया था नीम का पेड़ -नहीं नहीं सिर्फ नीम का पेड़ नहीं सैकड़ों पंछियों का रैन बसेरा भी गायब हो चूका था -
हमारे घर से सटे चौराहे के दाहिनी तरफ वाली लड़की की टाल। 
और अब वहां पे पुद्दर तेली ने कई दुकानों वाली इमारत उगा दी थी - एक बाज़ार उग आया था
इस तरह से मेरे ज़ेहन से बचपन की एक चीज़ गायब हो गयी थी।
क्रमशः
मुकेश इलाहाबादी ------------------

अब घर की अंगनाई में बूढ़े दरख़्त नहीं दिखते


अब घर की अंगनाई में बूढ़े  दरख़्त नहीं दिखते
कुंडी और साँकल वाले दरवाजे कंही नहीं मिलते

तब कच्ची दीवारें पीढ़ियों का बोझ उठा लेती थी
अब पक्के घरों में रिश्ते वर्ष भर भी नहीं टिकते 

माटी के चूल्हों पे रोटी ही नहीं रिश्ते भी पकते थे
अब गैस के चूल्हों पे उम्र भर रिश्ते नहीं सिझते  

वो दिन थे फटी धोती टूटी चप्पल में भी हंस लेते
अब तो लाखों रुपये कमा के भी चेहरे नहीं खिलते

सारे साधू - सन्यासी बड़े बड़े मठाधीश हो गए हैं 
तम्बूरा ले कर घूमने वाले सच्चे साधू नहीं दिखते 

मुकेश इलाहाबादी ------------------------------------

Saturday, 11 August 2018

तुम - थोड़ा ख्वाब - थोड़ी हकीकत --------------------------------


तुम - थोड़ा ख्वाब - थोड़ी हकीकत
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फूलों
से बने तारों से सजे
उड़न खटोले पे बैठी हो तुम
बॉब्ड कट बालों में सुर्ख गुलाब
और सफ़ेद रातरानी के फूलों का हेयर बैंड
किसी राजकुमारी के ताज सा दमक रहा है
दूज के चाँद सी मुस्करा रही हो
तुम्हारे चेहरे पे हमेसा सी खिली है
तुम्हारे हाथों में खरगोश के बच्चों सा मुलायम
और रूई के फाहों सा सफ़ेद टैडी बियर लिए
तुम बेहद खूबसूरत और खुश लग रही हो

धीरे - धीरे तुम थोड़े थोड़े भूरे - थोड़े थोड़े थोड़े सांवले
बादलों के बीच से उतर रही हो
धीरे धीरे - धीरे धीरे
अब मेरे कमरे में खिड़की के पास आ के
संतूर की सी मोहक आवाज़ में पुकारती हो
"हेल्लो - मै सुमी बोल रही हूँ "
मै एक गहरी तन्द्रा में
"कौन सुमी,,,,??"
"अरे मै सुमी बोल रही हूँ - सुमी - बादलों के पार से "
बरसों पुरानी तन्द्रा टूटी हो जैसे
एक साथ फूलों का टोकरा सिर पे गिर गया हो जैसे
एक झटके में स्वर्ग में आ गया हूँ - जैसे
बस ऐसा ही लगा  था -
एक  अरसे बाद तुम्हारी आवाज़ सुन
तुम खिलखिला रही थी
फिर - ढेरों बातें - ढेरों शिकायतें
ढेरों किस्से
जी ही नहीं भर रहा था - तुम्हे सुनते हुए
तुमसे बतियाते हुए
पर अचानक तुम
टाटा - बाय - बाय कहती फिर
बादलों के पार चली गयीं अपने उड़न खटोले पे सवार हो के
अब - एक बार फिर मै ख्वाबों की दुनिया से बाहर
हक़ीक़त की अँधेरे कमरे में था
पर, अब मेरे पास थी
तुम्हारे बदन की रातरानी खुशबू
तुम्हरी संतुरी हँसी
ढेर सारे किस्से
जिनके सहारे एक बार फिर
पार कर लूँगा - हिज़्र की ज़हरीली नदी

क्यूँ सुन रही हो न ?
मेरी प्यारी सुमी,,,,

मुकेश इलाहाबादी -------------


"

परवरदिगार , ने , खुश्बू बनाया

परवरदिगार ,
ने , खुश्बू बनाया
ख़ूबसूरती बनाई
अदाएँ बनाई
औरतें बनाई फिर भी
उसे तसल्ली न हुई
फिर उसने तुम्हे बनाया
सादगी बनाई
तब जा के  उसे तसल्ली हुई
और फिर
बड़ी एहतियात से तुम्हे
ज़मीं पे उतारा
तभी तो, जब तुम चलती हो
सभी दिशाएं गुनगुनाने लगती हैं
हवाएँ महकने लगती है
पंछी चहकने लगते हैं 
तड़ागों में कँवल दल खिलने लगते हैं
प्रेमियों के दिल मचलने लगते हैं

(इसी लिए तुम सबसे जुदा हो
सब से अलग हो - समझी कि नहीं ??
देखो : बस अब तुम नहीं - मुझे झुट्टा कह के भागना नहीं )

मुकेश इलाहाबादी -------

Friday, 10 August 2018

मेरे कमरे की खिड़की से चाँद नहीं झांकता

मेरे
कमरे की खिड़की से
चाँद नहीं झांकता
चाँदनी नहीं आती
लिहाज़ा मैंने
अपनी दीवार पे टांगने के लिए
चाँद की तस्वीर बनाने की ठानी
जैसे जैसे ही कैनवास पे लकीरें खींचता गया
तुम्हारी ही सूरत उभर के आयी
लिहाज़ा अब दीवार पे
तुम्हारी तस्वीर लगा के खुश हूँ

अब चाँद के न झाँकने और
चाँदनी के कमरे में न आने का कोई अफ़सोस नहीं

मुकेश इलाहाबादी ---------------------------

Thursday, 9 August 2018

थोड़ा-थोड़ा सलीका थोड़ी बेतरतीबी है

थोड़ा-थोड़ा सलीका थोड़ी बेतरतीबी है
थोड़ा-थोड़ा  शुकून  थोड़ी सी बेचैनी है

हंसती भी है और खिलखिलाती भी है
गौर से देखो तो, हर आँखों में नमी है

घोडा -गाड़ी महल अटारी सब मिलेंगे
हर  इक दिल में कोई न कोई कमी है 

निकलोगे जब तुम मंज़िल पर, राह  
कंही उबड़- खाबड़ कंही पे चिकनी है  

जीवन भी है भोजन की थाली,कभी 
दाल मखनी तो कभी रोटी चटनी है 

मुकेश इलाहाबादी -----------------

एक खूबसूरत परी आती है

रोज ,
रात - एक खूबसूरत परी आती है
ख्वाबों में
जो देर तक हंसती है
खिलखिलाती है
इठलाती है
जाते - जाते रख जाती है
ढेर सारी - कविताएं
मेरी पलकों पे
जिन्हे सुबह उठते ही
कागज़ पे उतार लेता हूँ
जिसे आप मेरी कवितांए समझती हैं
(अब उस परी का नाम मत पूंछना
जिसका नाम सुमी है -
और आँखे बड़ी बड़ी
और बड़ा मासूम सा चेहरा है

मुकेश इलाहाबादी ---------

Wednesday, 8 August 2018

तुम, अगर रूप भर होते

तुम,
अगर रूप भर होते
ढूंढ लेता तुमसे अधिक रूपवान

तुम खुशबू भर होते,
मै साथ हो लेता गेंदा गुलाब के साथ

गर तुम स्पर्श भर होते
फ़ागुन की हवा तुमसे ज़्यदा मादक है

पर तुम तो
रूप,स्पर्श और खुशबू से भी कंही बहुत ज़्यादा हो

ज़्यादा ही नहीं - सब कुछ हो - सुब कुछ

मुकेश इलाहाबादी -------------------------


सुबह से मन खिन्न था

08 - 0 8 -2018
सुबह से मन खिन्न था - कई बातों के ले कर।  ऑफिस आया, नेट बंद था मन और खिन्न हुआ।  फिर काम का बोझ
अजीब मनः स्तिथि थी।  खैर दिमाग को एक झटका दिया, एक ग्लास पानी पिया, फाइलें खोली, काम शरू कर दिया
अब मन कुछ नहीं सोच रहा था - जो दिमाग में चल रहा था - चलने दे रहा था। 
उधर दिमाग अपनी आदतानुसार कुछ न कुछ सोचने में लगा था -इधर हाथ  कंप्यूटर में चल रहा था।  अचानक
फ़ोन की घंटी बजती है।
हेल्लो
जी - मै सुमी बोल रही हूँ
किसी अनजान महिला की आवाज़ थी, पहचाना नहीं - दिमाग सोचने लगा ' सुमी ???
इस नाम का कौन है जो इस तरह से बोलेगा ' मै सुमी बोल रही हूँ ' फिर एक पुरानी परिचिता का खयाल आया लगा
वो ही होंगी - कई बार फ़ोन कर देती थीं पर इधर कई सालों से उनका कोई फ़ोन नहीं आया था लिहाज़ा , उम्मीद तो
नहीं थी फिर भी मैंने जवाब दिया " कौन सुमी नरूला ??"
" अरे मै सुमी बोल रही हूँ।  सुमी, कटनी से '
फिर मैंने सोचा कटनी में तो मेरा कोइ रहता नहीं है - परिचत और फिर इस नाम का
फिर भी नहीं पहचाना - फिर उसने अपना नाम दोहराया - तब मैंने कहा ' अच्छा तुम जय पुर से बोल रही हो ??
जी नहीं मै कटनी से बोल रही हूँ। कई साल पहले ही जयपुर छोड़ दिया था '
तब मुझे याद आया - ओह "ये तो सुमी ही है " मेरी तलाश
उदास मन बल्लियों उछल गया - एक ऐसी साध पूरी हुई जो इस तरह अचानक पूरी होगी उम्मीद न थी।
फिर क्या था - बरसों की नहीं कई दशक पुरानी उदासी  और बेचैनी के बादल छंट गए।
मन मयूर नाच उठा -
बात एक लम्बी कॉल के बाद ही बंद हुई - बीच में एक बार कट ज़रूर हुई पर फिर उधर से ही दोबारा और जल्दी ही
कॉल बैक हुआ -
फिर बातों का सिलसिला -
एक दुसरे ने इतने सालों में कितने थपेड़े खाए - क्या क्या न सहा - क्या न हुआ हुआ -
कुछ सारांश में कुछ विस्तार में बताया गया - ज़्यदा देर तो सुनना ही हुआ - और मै सुनना ही तो चाहता था।
खैर - टूटे हुए सिरे को इस लम्बी कॉल ने फेविकोल का जोड़ दे दिया -
एक दुसरे के नंबर सेव किये गए - आगे फिर फिर बातें होते रहने के बाद कॉल ख़त्म हुई -

पर सुबह के इसखूबसूरत  कॉल की घंटी अभी शाम तक ज़ेहन में सितार सा बज रही है।

बाहर सूरज डूब रहा है - अंदर एक सूरज उगता हुआ महसूस कर रहा हूँ।
एक अरसे के बाद

मुकेश इलाहाबादी ----------------------------------------------------------


जैसे , ही मै उतरता हूँ अंतरतम में

जैसे ,
ही मै उतरता हूँ अंतरतम में
तुम भी उतर आती हो उजास बन के
या फिर बरसती हो दिव्य झरने की तरह
जिसमे नहा कर
हो जाता हूँ ताजा दम
बहुत - बहुत दिनों तक के लिए

मुकेश इलाहाबादी ------------

Monday, 6 August 2018

साँसे जिसके बदन की खुशबू के साथ घुली मिली नहीं

मेरी,
साँसे जिसके बदन की खुशबू
के साथ घुली मिली नहीं

जिसके
बदन की कोमलता को -  हरारत को
मेरी हथेलियों ने महसूसा नहीं - जाना नहीं

जिसके रक्ताभ होंठो को
मेरे जलते होंठो ने छुआ नहीं

जिसे मेरी आँखों ने जी भर के देखा नहीं

ये दिल उसे क्यूँ पुकारता है
अहिर्निश ,

क्यूँ ? क्युँ ? क्युँ ?

मुकेश इलाहाबादी ------------------


Saturday, 4 August 2018

तेरी खामोशी तो पढ़ लूँ फिर तुझसे बात करूँ

तेरी खामोशी तो पढ़ लूँ फिर तुझसे बात करूँ
पहले मै जी भर देख लूँ फिर तुझसे बात करूँ

तेरी दरिया सी इन आँखों में पहले डूब तो लूं
मै रूह की खुश्बू सूंघ लूँ फिर तुझसे बात करूँ

तेरी अदाओं में हंसी में है अजब जादू मुकेश
इन सब से तो मिल लूँ फिर तुझसे बात करूँ 

मुकेश इलाहाबादी --------------------------

Friday, 3 August 2018

ख़ुद से ख़ुद को सजा देता हूँ

ख़ुद से ख़ुद को सजा देता हूँ
फिर देर तक रो भी लेता हूँ 

मुझको खुद भी नहीं मालूम
अपने को क्यूँ सजा देता हूँ

ज़िंदगी की बढे दरियाव में
तेरे नाम  की  नैया खेता हूँ 

मुकेश इलाहाबादी ------------

Thursday, 2 August 2018

तुम चाँद भर होती ??

तुम
चाँद भर होती
मै अपने पर ले कर
उड़ आता तुम तक
और - तुम्हे चूम लौट आता
धरती  पे अपने नीड में

गर तुम
चहुँ ओर व्याप्त आकाश भर होती
सच मै किसी घाटी में जा कर
तुझे पुकारता - तेरा नाम लेकर
जब तक तुम न आ जाती मिलने मुझसे

यदि
तुम खुशबू भर होती
ऊगा लेता तुम्हे अपने सहन में
और भीगता शब भर
तुम्हारी रातरानी खुशबू से

गर तुम
गुब्बारा होती तो
ले तुझे अपने हाथो में
खुश होता देर तक किसी बच्चे सा

देखो ! देखो - मुस्कुराओ मत मेरी बातों को सुन के
अगर मुस्कुराना ही है तो
आओ मेरे पास बैठो - और मुस्काओ

मुकेश इलाहाबादी -----------------------