Pages

Tuesday, 28 August 2018

मै एक अँधा कुआँ हूँ।

मै एक अँधा कुआँ हूँ
--------------------------------
एक
-----
मै
एक अँधा कुआँ हूँ।
जिसमे से सिर्फ थोड़ा सा आकाश
दीखता है
थोड़ी सी धूप , थोड़ी सी हवा आती है
धूप नीचे मेरी तलहटी तक आती - आती
गुप्प अँधेरे में तब्दील हो जाती है
और हवा - नीचे आते - आते बहना बंद हो जाती है
और गुप्प अँधेरे से गलबहियाँ करके ज़हरीली हो जाती है
लिहाज़ा अब तो मै भी ज़हरीला हो गया हूँ
इतना ज़हरीला कि मेरी तली तक
मेरे अंदर उतरने वाला भी ज़हरीला हो जाता है -
या मेरी तरह मृत हो जाता है
दो
---
मै, एक अँधा कुँआ हूँ
जिसकी तलहटी में निर्मल नहीं थोड़ा सा पानी
का डबरा सा बचा है - वो भी मेरे अंदर की
ज़हरीले हवा से ज़हरीला हो चुका है
थोड़े से कंकर और बाकी मिट्टी दिखती है
ऊपर मेरी जगत से देखोगे तो
सिर्फ और सिर्फ अँधेरा दिखेगा
इस लिए कुछ लोग मुझे अँधा कुँआ भी कहते हैं
तीन
-----
मै एक अँधा और सूखा कुँआ हूँ
जिसके अंदर गाँव कि न जाने कितनी
सुखिया , बुधिया , रधिया सीता,
क़र्ज़ में डूबे किसान समा चुके हैं
कई खूँटा तुड़ा के भागी गाय - बछिया
बकरी - बैल भी मुझमे समा के अब कंकाल शेष बचे हैं
मेरी तलहटी में - कुछ कंकर पत्थर थोड़े से ज़हरीले
और पूरी तरह से ज़हरीली हवा और गुप्प अँधेरे के बीच
अब तो मुझे गाँव वाले - अभिशप्त कुँआ कहते हैं ,
मै भी अपने को इसी नाम से जान्ने लगा हूँ
तीन
-----
गाँव के एक सूखे बाग़ के
बीचों बीच का बहुत पुराना कुँआ हूँ "मै"
जिसकी तलहटी में झांको तो अँधेरा ही अँधेरा
दीखता है - जिसे देख के बच्चे और कई तो बड़े भी
डर जाते हैं - चीख कर भाग जाते हैं
अब मेरे आस पास कोई नहीं आता
मै वर्षो से अपनी तनहाई और अभिशप्त नाम के साथ
यहीं रह रहा हूँ -
हाँ मेहाँ एक ज़माना था
जब मेरे अंदर मीठे पानी का गुप्त झरना था
मै हर वक़्त मीठे मीठे - लरज़ते जल से भरा पूरा रहता था
मेरी जगत पे - अल्ल सुबह से चहल पहल होने लगती
छनकती - मटकती गाँव की लड़कियां बहुऍ - बुज़ुर्ग महिलाऐं
अपनी चूड़ियों की खनखन के साथ -
मेरी जगत पे बनी गराड़ी और रस्सी से
अपना खाली घड़ा और बाल्टियां भरती -
वे यंहा सिर्फ जल ही नहीं भरती - सहेलियों के संग
हँसी ठिठोली कर अपने अंदर के खाली आसमान भी भरतीं
जिन्हे देख मै भी खुश होता - मुस्कुराता अपने को
सौभाग्य साली समझता -
मेरी इसी जगत से लगे चबूतरे पे
सांझ न जाने कितने प्रेमी जोड़े आ आ कर जीने और मरने की
कस्मे खा चुके हैं - और कई बार तो असफल होने पे कभी एक साथ
तो कभी सिर्फ एक प्रेमी मेरे अंदर डूब चूका है - हमेसा हमेसा के लिए
जिसका मुझे बेहद अफ़सोस है
वर्तमान में
मेरे जैसे न जाने कितने और अन्धे अभिशप्त कुंओ को पाट दिया गया है
या फिर उनके ऊपर पत्थर रख के हमेसा हमेसा के लिए बंद कर दिया गया है
सैकड़ों साल से - सैकड़ों पीढ़ियों को - करोङो - करोङो प्यासों की प्यास
बुझाने वाले अब खुद पूछे जाने की प्यास से तड़प तड़प कर दम तोड़ चुके हैं
या तोड़ रहे हैं -
हो सकता है कुछ सालों बाद मेरे जैसे अंधे कुंओ का अस्तित्व सिर्फ
कविता और किताबों में रह जाए -
खैर आप हमारी या दास्ताँ सुन के अपना वक़्त क्यूँ जाया कर रहे हैं -
जाइये अपनी प्यास कंही और बुझाइये
मुकेश इलाहाबादी -----------------------
LikeShow more reactions
Comment
Comments

No comments:

Post a Comment