साँझ
होते ही,
चुपके से उतर जाता हूँ
रात की नदी मे
चलाते हुए
यादों के चप्पू हौले हौले
करता हूं नौका विहार
तब
चल रहा होता है एक चाँद
दूर बहुत दूर मेरे साथ
जो मेरे संग संग हँसता है
खिलखिलाता है
और कभी कभी बादलों के बीच छुप के मुझे
झिन्काता भी बहुत है
होते ही,
चुपके से उतर जाता हूँ
रात की नदी मे
चलाते हुए
यादों के चप्पू हौले हौले
करता हूं नौका विहार
तब
चल रहा होता है एक चाँद
दूर बहुत दूर मेरे साथ
जो मेरे संग संग हँसता है
खिलखिलाता है
और कभी कभी बादलों के बीच छुप के मुझे
झिन्काता भी बहुत है
मुकेश इलाहाबादी,,,,,,
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