Pages

Thursday, 10 December 2015

गुप- चुप बहती एक नदी है



गुप- चुप
बहती एक नदी है
नीली नीली लहरें हैं
बिलकुल तुम्हारे
आँचल सी लहराती

आकाश में
कुछ सितारे हैं
तुम्हारे दूधिया दन्त पंक्ति सा
चमकते हुए

एक चाँद भी है
बिखरा दी है
जिसने
शुभ्र चाँदनी
बिलकुल तुम्हारी
निर्मल हंसी सा

देखो दूर
कोयल कूक रही है
गाती है
कोई प्रेम गीत

सुमी, सुन रही हो न तुम

देखो !
कितना प्यारा मौसम है

आओ, क्यों न बहें
हम भी इस
गुपचुप- गुप- चुप
बहती दूधिया नदी में

(एक अधूरा सपना जो न
सच हुआ, शायद न होगा )
मुकेश इलाहाबादी ---


No comments:

Post a Comment