मुस्कराहट कर गयी थी चुगलियां
वर्ना हम क्या समझते खामोशियाँ
ख़ुद बैठे हैं ज़नाब शुकूं से घर पर
दिल पे हमारे गिरा कर बिजलियाँ
कभी न कभी तो बाम पर आएंगे
कभी तो खोलेंगे अपनी खिड़कियाँ
ज़माने से ही तुम्हे फुर्सत नहीं तो
क्या सुनोगे तुम हमारी सिसकियाँ
आँगन में आ- आ कर नाचती हैं
साँझ उदास लौट जाती हैं रश्मियाँ
देखना झूम कर बरसेंगे एक दिन
हमसे कहे गयी हैं काली बदलियाँ
मुकेश इलाहाबादी ------------------
वर्ना हम क्या समझते खामोशियाँ
ख़ुद बैठे हैं ज़नाब शुकूं से घर पर
दिल पे हमारे गिरा कर बिजलियाँ
कभी न कभी तो बाम पर आएंगे
कभी तो खोलेंगे अपनी खिड़कियाँ
ज़माने से ही तुम्हे फुर्सत नहीं तो
क्या सुनोगे तुम हमारी सिसकियाँ
आँगन में आ- आ कर नाचती हैं
साँझ उदास लौट जाती हैं रश्मियाँ
देखना झूम कर बरसेंगे एक दिन
हमसे कहे गयी हैं काली बदलियाँ
मुकेश इलाहाबादी ------------------
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