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Monday, 1 September 2014

मुस्कराहट कर गयी थी चुगलियां

मुस्कराहट कर गयी थी चुगलियां
वर्ना हम क्या समझते खामोशियाँ

ख़ुद बैठे हैं ज़नाब शुकूं से घर पर
दिल पे हमारे  गिरा कर बिजलियाँ 

कभी न कभी तो बाम पर आएंगे 
कभी तो खोलेंगे अपनी खिड़कियाँ

ज़माने से ही तुम्हे फुर्सत नहीं तो
क्या सुनोगे तुम हमारी सिसकियाँ

आँगन में आ- आ कर नाचती हैं
साँझ उदास लौट जाती हैं रश्मियाँ 

देखना झूम कर बरसेंगे एक दिन
हमसे कहे गयी हैं काली बदलियाँ

मुकेश इलाहाबादी ------------------

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