Pages

Monday, 3 November 2014

मुसलसल बारीसे ग़म थमती नहीं

मुसलसल बारीसे ग़म थमती नहीं
ज़िंदगी मेरी इक ठाँव रुकती नहीं 

लब तो उसके कंपकंपाते हैं, मगर
अपने होठों से कुछ वो कहती नहीं
 
जी तो चाहे है ख़त उसे इक लिखूं
उँगलियाँ थरथराती हैं चलती नहीं 
 
एहसास की छछलाती नदी थी,जो
बर्फ सी जम गयी, अब बहती नहीं
 
कि ज़िंदगी अपनी ज़िद पे अड़ी है
लाख कहा पर वो  मेरी सुनती नहीं

मुकेश इलाहाबादी -----------------

No comments:

Post a Comment