सुबह की धूप गुनगुनी लगी
सूरज तेरी ये अदा भली लगी
फ़लक पे बाज उड़ता देख कर
फ़ाख्ता बेचारी डरी डरी लगी
टके सेर खाजा टेक शेर भाजी
तेरी नगरी अंधेर नगरी लगी
अपने पाप जा के कहाँ धोऊँ?
राम तेरी गंगा भी मैली लगी
चाँद सा चेहरा और खुले गेसू
मुझे तुम्हारी सूरत भली लगी
मुकेश इलाहाबादी -------------
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