मेरे साथ पूरी क़ायनात मुस्कुराती है
जब तू आ के मुझसे लिपट जाती है
तेरी ये नीमजदा आँखे चूमता हूँ तो
बादल हँसता है और नदी शर्माती है
इधर उड़ता परिंदा मुंडेर पे आता है
उधर बुलबुल पंचम सुर में गाती है
पहाड़ के सीने में एक नीली झील है
रात चाँद के साथ खिलखिलाती है
तू गुपचुप गुपचुप रहती है तो क्या
तेरी ये आँखे तो मुझसे बतियाती हैं
मुकेश इलाहाबादी -----------------
No comments:
Post a Comment